श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-५८)

मैं था ऐसा अहंकारी। हो गया नि:शब्द शर्मसार।
पहली मुलाकात में ही यह अनुचित। आचरण हुआ था मुझसे॥

साईनाथ के मुख से ‘क्या कहा इन ‘हेमाडपंत’ ने’ ये उद्गार निकलते ही हेमाडपंत को अपनी गलती का एहसास हो गया। हेमाडपंत कहते हैं कि बाबा ने जब स्वयं अपने मुख से उस वाद-विवाद का उल्लेख किया और वाद-विवाद की प्रवृत्ति को छोड देने के बारे में केवल एक ही वाक्य में ही मुझे बोध किया कि व्यर्थ ही वाद-विवाद की प्रवृत्ति रखना अच्छी बात नहीं है। मग़र फ़िर भी जो कुछ भी हुआ उस बात से मैं लज्जित हो गया और साथ ही इस बात का पश्‍चत्ताप भी हुआ कि बाबा के साथ हुई इस पहली मुलाकात में ही मुझसे यह अनुचित आचरण कैसे हुआ। इस बात का मुझे तहेदिल से पश्‍चाताप हुआ।

पश्‍चाताप

साईसच्चरित में हेमाडपंत जहाँ-जहाँ पर अपनी गलतियों की घटनाओं का वर्णन करते हैं, वहाँ-वहाँ वे इसी प्रकार से पश्‍चाताप भी करते हैं। उद्देश्य यही होता है कि इस बात से अथवा घटना से हर किसी को यह सीख लेनी चाहिए कि जब कभी भी कोई घटना घटित होती है अथवा हमें कोई अच्छा-बुरा अनुभव आता है, वह हमारी शिक्षा का ही एक अंग बन जाना चाहिए और जब परमात्मा सगुण-साकार रूप लेकर साईनाथ बनकर, राम बनकर, कृष्ण बनकर आते हैं, उस समय तो उनके द्वारा प्राप्त कृपा-अनुभव हर एक व्यक्ति के लिए एक प्रकार की सीख ही होती है। साईसच्चरित में वर्णित हर एक घटना यह इसी प्रकार की सीख हर किसी को देते रहती है।

आगे चल कर हेमाडपंत कहते हैं कि –

इस से मुझे मिली सीख। वाद-विवाद यह दुष्प्रवृत्ति।
इसका स्पर्श न हो मुझे पल भर के लिए भी। होती है वह परम अकल्याणकारी॥

वाद-विवाद करना यह मूलत: बुरा ही होता है, वह बिलकुल किसी कुलक्षण के ही समान होता है और वह परम अकल्याणकारक है, इसीलिए इस प्रकार का वाद-विवाद करनेवाले किसी भी मनुष्य का स्पर्श भी नहीं होने देना चाहिए, यही उचित होगा।

मग़र हम ठहरे सामान्य मनुष्य! हम भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार से जीवन जीने की इच्छा रखते हैं। बिलकुल सुबह उठने से लेकर कितनी ही बार घर में किसी न किसी के साथ तो वाद-विवाद छिड़ ही जाता है और इसके पश्‍चात् जो गलत होता है, उससे फिर पश्‍चात्ताप तो होता है। परन्तु इस प्रकार का पश्‍चात्ताप जब और जिसे होता है, उस व्यक्ति ने और दूसरे व्यक्ति ने भी इस प्रकार का वाद न हो इसके लिए प्रयास करने चाहिए। यदि गलती से पुन: वाद-विवाद छिड़ ही जाता है तो पहले वाले प्रसंग को याद रखना चाहिए और उससे मिलनेवाली सीख को याद करना चाहिए। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि जब कभी भी ऐसा वाद-विवाद छिड़ जाता है वह चाहे पहली बार हो या दूसरी बार हो अथवा दसवीं बार हो, अपनी इस गलती को परमात्मा के सामने शुद्ध मन से कबूल कर लेना जरूरी है। जो जैसे हुआ बिलकुल वैसे का वैसा ही उन्हें बता देना चाहिए। क्योंकि हर एक गलती से मिलने वाली सीख यह कोई उस मनुष्य की बुद्धि को परमात्मा से मिला आशीर्वाद ही होता है ताकि उसे ध्यान में रखकर वह मनुष्य उस गलती को न दोहराये।

जिस तरह एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ वाद-विवाद होता है उसी तरह उसका अपने स्वयं के मन के साथ भी वाद-विवाद होता रहता है, यह तो हम पहले ही देख चुके हैं। मन का मन के साथ वाद-विवाद होने का प्रमुख कारण है, उस परमात्मा पर मनुष्य का दृढ़ विश्‍वास न होना। मूलत: देखा जाए तो परमात्मा ने हर एक मनुष्य को बुद्धि नामक सर्वोत्तम सलाहगार देकर ही भेजा होता है। परन्तु मनुष्य का मन हर बार इस बुद्धि की बात सुनता ही है, ऐसा भी होता नहीं है। जब कभी मन ही वादी और प्रतिवादी बनकर आमने सामने खड़ा हो जाता है तब हर बार बुद्धि ही मदद के लिए दौड़ी चली आती है। क्योंकि मानवी बुद्धि ही उस महाप्रज्ञा का मनुष्य का हित करने के लिए परमात्मा के द्वारा दिया गया सरल, सुलभ साधन है और महाप्रज्ञा यह साक्षात् जगत्-जननी ही हैं यानी वे हम सभी की माँ ही है।

हम एक सामान्य उदाहरण देखेंगे। ‘अ’ और ‘ब’ नामक दो भाई थे। किसी कारणवश दोनों में झगड़ा छिड़ गया, उन दोनों में से कोई भी सुनने को तैयार न था। अंत में दोनों की माँ ने हस्तक्षेप करते हुए उन दोनों को उनकी गलती का अहसास करवाया। उन दोनों भाईयों ने अपनी माँ की बात पर गौर किया और इससे उन में सुलह हो गई। इसमें महत्त्वपूर्ण क्या है? तो उन दोनों ने अपने माँ की बात सुन ली और उनके बीच का झगड़ा मिट गया।

हमारा मन भी अकसर ‘अ’ और ‘ब’ नामक इन दो भाईयों की तरह ही होता है। उनके झगड़े में वह बुद्धिरूपी माँ वादी-प्रतिवादी बनने वाले मन को समझाती है, लेकिन मन इतना हठी होता है कि वह बहुत कम बार अपनी माँ की बात सुनता है। कभी-कभी तो सुनकर भी अनसुना कर देता है। शायद ही कभी उस माँ की यानी बुद्धि की बात भली भाँति सुनता है। उसे बुद्धि की बात सुनने से हुए भले का अनुभव भी मिलता ही है। संक्षेप मे देखा जाए तो मानवी मन को समझाने के लिए इस परमात्मा ने ही जो बुद्धि की योजना की है, उसी योजना के अनुसार जब मन बुद्धि की बात सुनता है तब उसका लाभ उसे मिलता ही है।

इसीलिए जब कभी भी मनुष्य के मन में यह प्रश्‍न उठता है कि इस दुनिया में ईश्‍वर है या नहीं, उस वक्त वह परमेश्‍वर द्वारा दी गयी बुद्धि की योजना पर यदि गौर करेगा तो उसे इस बात का पता ज़रूर चल जायेगा कि मनुष्य को बेकार की बहस करने के लिए नहीं बल्कि अपने साथ सबका देवयान पथ पर चलकर कल्याण करने के लिए परमेश्‍वर ने बुद्धि का वरदान दिया है और इस वरदान का मानव को अनुचित उपयोग नहीं करना चाहिए, उचित उपयोग ही करना चाहिए।

मन पर जब चर्चा चल ही रही है तब ऐसे में विशेष तौर पर याद आती है, सन्त श्री समर्थ रामदास स्वामीजी के मन के श्‍लोकों की। यह श्री समर्थ के द्वारा हर एक मन को किया गया उपदेश है और उसे सुनकर हर एक मन को स्वयं को ही उपदेश करना चाहिए।

इस चर्चा के पीछे हमारा उद्देश्य क्या है? तो मानव को उसकी वाद-विवाद करने की प्रवृत्ति से दूर रखने के लिए किया गया उत्तम उपाय, जो परमात्मा ने मनुष्य के लिए पहले से ही कर रखा है, उस बुद्धि के वरदान के बारे में जानना और उसका उचित उपयोग करना। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वाद-विवाद करने वाले मन को यदि संवाद करने के लिए उत्सुक करना है तो मन को परमात्मा के प्रति अपनी श्रद्धा दृढ़ करनी ही होगी और एक बार यदि श्रद्धा दृढ़ हो जाती है तो फ़िर संवाद अपने आप ही सुंदर, सरल तरीके से होता रहता है।

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