श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग- १३)

सुनते ही हम हो जाते हैं सावधान।
अन्य सुख लगने लगते हैं तिनके के समान ।
भूख-प्यास का हो जाता है संशमन।
और संतुष्ट हो जाता है अन्तर्मन।

इस साईसच्चरित की कथाओं की महिमा का जितना भी वर्णन किया जाये उतना कम ही है। ये ‘कथाएँ’ भला हमें क्या कुछ नहीं देती! इनके बारे में जितना भी अध्ययन करें उतना कम ही है! जिनके सामने अमृत भी फीका पड़ जाये ऐसी हैं यह कथाएँ। इस साईसच्चरित की कथाएँ साक्षात् ‘हरिकृपा’ हैं। ‘हरिकृपा यानी क्या? उसे कैसे प्राप्त करना चाहिए? उसे प्राप्त करने का सहज आसान मार्ग क्या है?’ इस प्रकार के प्रश्‍न अकसर हमारे मन में उठते रहते हैं। लेकिन हम साईभक्तों के लिये इन सबका एकमेव आसान उत्तर है- ‘साईनाथ’! श्रीसाईसच्चरित की ये साईकथाएँ साक्षात् हरिकृपा ही है और जो भी कोई इनका महज़ श्रवण भी करता है उसके प्रारब्ध का नाश भी इस हरिकृपा से होगा ही इसमें कोई शक नहीं।

एका जनार्दनी भोग प्रारब्ध का।
हरिकृपा से उसका नाश है ही।

संत श्रीएकनाथ महाराज कहते हैं- प्रारब्धभोगों का नाश केवल हरिकृपा से ही होता है और किसी भी साधन से नहीं होता। संत एकनाथजी के द्वारा कही गयी इस सर्वोच्च सिद्धांत की प्रचिति हमें इस साईकथा के ज़रिये मिल जाती है। ये साईकथाएँ हमारे प्रारब्ध का नाश करके हमारे प्रारब्ध भोगों से हमारा उद्धार करती हैं। इन साईकथाओं के द्वारा हमारे प्रारब्धभोगों का नाश भला कैसे होता है? हेमाडपंत की ऊपर लिखित पंक्ति ही इस बात को स्पष्ट करती है। ऊपर दी गयी पंक्तियों का विस्तारपूर्वक अध्ययन करते समय हमने देखा कि ये कथाएँ हमें सावधानी, आनंद, संतुष्टि एवं परिपूर्णता प्रदान करती हैं। ये चार गुण मानो इस साईकथारूपी माता की चार भुजाएँ ही हैं,जिनके द्वारा यह माता हमारे प्रारब्ध का नाश करती है।

हरिकृपा

श्रीमद्पुरुषार्थ द्वितीय खंड ‘प्रेमप्रवास’ में हम सब ने पढ़ा ही है कि हर एक मनुष्य के मन में आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन यह चार केंद्र होते हैं। इन चारों केन्द्रों की दिशा एवं ताकत हर किसी के पूर्वजन्म के अपने कर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं। पूर्वजन्म से इस जन्म में लिंगदेह के साथ आने वाला ‘प्रारब्ध’ यानी इन चारों केन्द्रों की जन्मजात स्थिति। इस प्रारब्ध का नाश अर्थात इन चारों केन्द्रों की आज की स्थिति की सभी कमियों का, न्यूनता का नाश और इन चारों केन्द्रों का उचित समर्थकेंद्र में परिवर्तन। ‘नाश’ इस शब्द का सच्चा अर्थ ‘उचित परिवर्तन’ यही है। कारण इस दुनिया में कोई भी बात यूँ ही उत्पन्न नहीं होती और ना ही किसी भी बात का नाश किया जा सकता है। Nothing can be created nor destroyed यह विज्ञान का नियम यहाँ पर भी लागू होता ही है।

प्रारब्धभोग का नाश करने के लिये मुझे अपने अंदर के इन चारों केन्द्रों की दुर्बलता को दूर करके उन में उचित परिवर्तन करके समर्थ केन्द्र में रूपांतरण करना होता है और यह साईकृपा से होता है। साईकथाओं के द्वारा प्रवाहित होनेवाले यह चार गुण हमारे इन चारों केन्द्रों की दुर्बलता को दूर करके उनमें उचित परिवर्तन करके समर्थ केन्द्र में रूपांतरण करना। साईकथाओं के द्वारा प्रवाहित होनेवाले ये चार गुण हमारे इन चारों केन्द्रों पर कार्यकारी रहते हैं और वे इन चारों केन्द्रों का रूपांतरण उचित रूप में करके उन्हें समर्थ बनाकर हमारे प्रारब्ध का नाश करते हैं। यह कार्य ‘साईकथा-प्रदत्त ये चार गुण कैसे करते हैं’ उसे हम देखेंगे।

१)आहार केंद्र
हमारे मन का आहार केंद्र है भूख का केन्द्र। अन्न की ही तरह अन्य सभी प्रकार की भूख भी इसी आहार केंद्र पर निर्भर रहती हैं। लैंगिक भूख, कीर्ति की भूख, पैसे की भूख, अधिकार की भूख, सत्ता की भूख इस तरह की सभी प्रकार की भूख इसी केन्द्र पर निर्भर होती है। जितने प्रमाण में यह केन्द्र अनुचित पद्धति से कार्य करता है, उतने ही प्रमाण में झूठी भूख का प्रमाण बढ़ जाता है।

मुझे सच में जिस चीज़ की ज़रूरत है वह मैं परमेश्‍वरी नियम के अनुसार परिश्रम करके उस भूख का शमन कर सकता हूँ। उस सच्ची भूख को पहचानना हर किसी के लिये आवश्यक होता है। क्योंकि कई बार हम गलत बातों के चक्कर में पड़कर गलत भूख का आहार बन जाते हैं और जो सच्ची भूख होती है वह हमें कभी लगती ही नहीं यानी हम ग़लत बातों के जंजाल में फँसे रहते हैं।

अनावश्यक चाहतों के पीछे भागते रहते हैं और हमारी जो सच्ची भूख है अर्थात् इस साईनाथ के प्रेम की भूख वह हमें कभी लगती ही नहीं। इसलिये ‘सावधानी बरतना’ बहुत ही ज़रूरी है। जितने प्रमाण में यह सावधानी हममें आयेगी, उतने ही प्रमाण में हम मन के इस आहार केन्द्र में कोई भी भूख उत्पन्न होती है तब उसे सावधानीपूर्वक जाँच-परखकर ही आगे कदम उठाते हैं अर्थात् जो झूठी भूख है, जिसकी हमारे लिये कोई ज़रूरत नहीं है उसे समय रहते ही सावधानी पूर्वक दूर कर सकते हैं।

इसके साथ ही इस सावधानी के कारण ही हम ‘अपनी सच्ची भूख क्या है’ इसकी पहचान कर सकते हैं और इस साईप्रेम की भूख को बढ़ाते हुये अपने इस आहार केन्द्र को निर्दोष एवं समर्थ बना सकते हैं, उसे पूर्णत: विकसित कर सकते हैं।

२)निद्रा केन्द्र
निद्रा केन्द्र यह केवल नींद का ही केन्द्र न होकर निद्रा केन्द्र यह ‘तृप्ति’ का केन्द्र है, यह बात श्रीमद्पुरुषार्थ सुस्पष्ट रूप में हमें बताता है। इस केन्द्र की क्षमता पर ही जिस तरह शांत नींद निर्भर करती है, उसी तरह उचित आहार से तृप्ति, लालच, अतृप्ति में मर्यादा, वासनाओं के प्रति नीति का बंधन ये बातें भी निर्भर करती हैं।

जिसका यह ‘तृप्ति’ केन्द्र (निद्रा केन्द्र) कम विकसित होता है वह जीव सदैव अशांत, अतृप्त रहता है। उसे गुस्सा बहुत जल्द और अधिक आता है। ऐसे लोगों को विषयवासनाओं को काबू में करना भी मुश्किल होता है और उनसे अनेक बुरे काम, पाप आदि होते हैं।

साईकथाओं द्वारा हमें प्राप्त होने वाला ‘समाधान’ (संतुष्टता) यह गुण हमारे इस निद्रा केन्द्र को पूर्ण विकसित करके हमें इस बात का अहसास करवाता है कि सच्ची तृप्ति एवं शांति किस में हैं यह तब होता है जब साईकथाओं द्वारा हमारा मन संतुष्ट रहता है। सच्चा भक्त सदैव संतुष्ट ही रहता है।

३)भय केन्द्र
भय केन्द्र यह है मनुष्य को उसके स्वयं की ‘कमजोरी’ की, उसकी क्षमता की, मर्यादा का एहसास करवाने वाला केन्द्र। संक्षेप में कहें तो मुझे अपनी हैसियत का एहसास करवाने के लिये यह भय केन्द्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

यह भय केन्द्र परमेश्‍वर ने मनुष्य को डराने अथवा सताने के लिये नहीं बनाया है, बल्कि मनुष्य अपनी मर्यादित क्षमता का सदैव ध्यान रख सके इसीलिये बनाया है। जिस समय मैं घमंड में आकर परमात्मा के धाक को न मानकर अपनी इच्छानुसार स्वैर व्यवहार करने लगता हूँ और अपनी ताकत का उपयोग दूसरों को तकलीफ़ देने के लिये करने लगता हूँ, तब मेरा यह भय केन्द्र विकृत हो चुका होता है।

यह भय केन्द्र इस तरह विकृत होने के कारण, परमात्मा का धाक न होने के कारण मैं सदैव अपराध और भी अधिक करते रहता हूँ और दुख की खाई में स्वयं को धकेलते रहता हूँ। जिनका भय केन्द्र विकृत रहता है, वे कभी खुश रह ही नहीं सकते, साईकथा द्वारा भक्त को मिलने वाला ‘आनंद’ हमारे इस भय केन्द्र को उचित रूप में कार्य करना सिखाता है।

सच्चे भक्त को स्वयं के मर्यादा का पूरा एहसास रहता है, परमात्मा का धाक भी रहता है और मेरे परमात्मा पूर्ण रूप में समर्थ हैं और उनका मुझ पर पूरा ध्यान है वे मेरा ध्यान रख रहे हैं। इस एहसास से भक्त के भय केन्द्र का रूपांतरण एहसास केन्द्र में हो जाता है। इससे वह सदैव सुखी एवं आनंदित रहता है।

४)मैथुन केन्द्र – मैथुन केन्द्र अर्थात् केवल लैंगिक केन्द्र नहीं बल्कि मानवी इच्छा भी है, अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये लगने वाले सामर्थ्य को पूरा करने वाला केन्द्र। कार्य सिद्ध करने की क्षमता एवं कौशल्य इस मैथुन केन्द्र पर ही आधारित होते है।

हम जब किसी कार्य को हाथ में लेते हैं, तब उसे पूरा करने के लिये क्षमता एवं सामर्थ्य साथ ही कौशल्य भी ज़रूरी होता है। इसके लिये उनकी पूर्ति होते रहना, परमेश्‍वरी उर्जा का अखंडित रूप में प्रवाहित होते रहना ज़रूरी होता है।

साईकथा के द्वारा प्राप्त होने वाली परिपूर्णता, परिपूर्ति आदि गुण इस परमेश्‍वरी ऊर्जा को हमारे जीवन में प्रवाहित कराते रहते हैं। साईकथाओं के आश्रय में रहनेवाले भक्त को परमेश्‍वरी ऊर्जा की कभी भी कमी नहीं पड़ती और इससे उसके मैथुन केन्द्र का कार्य भी सदैव उचित रूप में होते रहता है।

इस तरह साईकथा यानी हरिकृपा हमारे मन के इन चारों केन्द्रों को उचित दिशा प्रदान करती है अर्थात् हमारे प्रारब्धभोग का नाश करती है। हमारा प्रारब्ध चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो यानी इन चार केन्द्रों की स्थिति कैसी भी क्यों न हो, मग़र फ़िर भी साक्षात् हरिकृपा होनेवाली साईकथाओं के द्वारा हम अपने प्रारब्धभोग को दूर कर अपना जीवनविकास ज़रूर कर सकते हैं, इसी बात की गवाही इस पंक्ति के द्वारा हेमाडपंत हमें दे रहे हैं।

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