श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग- १२)

सुनते ही हम हो जाते हैं सावधान।
अन्य सुख लगने लगते हैं तिनके के समान ।
भूख-प्यास का हो जाता है संशमन।
और संतुष्ट हो जाता है अन्तर्मन।

हेमाडपंत हमें इन कथाओं का अनन्य साधारण महत्त्व समझाकर बता रहे हैं। कथाओं का महज़ श्रवण करने से भी हर एक मानव अपना समग्र विकास कर सकता है, ऐसा सामर्थ्य श्रीसाईसच्चरित की इन सभी कथाओं में हैं। फ़िर यदि हम उन्हें पढ़ सकते हैं तो अपना जीवन विकास करना यह भला हमारे लिए असंभव कैसे हो सकता है? निश्‍चित ही नहीं।

हम कथारूपी सेतु पर से आनंदपूर्वक प्रेमप्रवास करते हुए साईनाथ का सामीप्य प्राप कर सकते हैं। हम जैसे सभी सामान्य मानवों के लिए यह एक कृतिशील मार्ग है। इन कथाओं की विशेषता यही है कि यहाँ पर भक्त ‘नायक’ न होकर ‘कर्ता’ न होकर साईनाथ ही हर एक कथा के ‘नायक एवं कर्ता’ हैं। यहाँ पर हर एक कथा में ‘कृतिशीलता’ सर्वथा साईनाथ की ही है। इसीलिए ये कथाएँ मेरे अहं की कृतिशीलता का लोप करके साई की कृतिशीलता को जीवन में प्रवाहित करती हैं।

हमें तो केवल सद्गुरु के आने पर ‘उठकर बैठना’ है यानी हमें कुछ अधिक श्रम नहीं करना है। आद्यपिपा अपने अभंग में कहते हैं- ‘उठकर बैठने में थका नहीं, इतनी ही मुझसे सेवा हो गई।’ इसी तरह हमें भी केवल उठकर बैठने की क्रिया करनी है।

‘उठकर बैठना है’ यानी हकीकत में हमें करना क्या है? इसका अर्थ यह है कि हम अहंकार की, षड्रिपुओं की, विकार-वासनाओं की गहरी नींद में डूबे रहते हैं, उस में से जागृत होकर हमें अपनी ही जगह पर केवल उठकर बैठना है। चलने का श्रम भी हमें करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ये साईनाथ ही स्वयं चलकर अपने हर एक भक्त के पास आते रहते हैं। परन्तु हम ही घोर अहंकार की निद्रा में डूबे रहते हैं और साथ ही कल्पनाओं की दुनिया में खोये रहते हैं।

मेरे साईनाथ बारंबार मेरी तरफ़ आते रहते हैं, मेरे द्वारा बंद की गयी दरवाजे-खिड़कियाँ भी इन्हें रोक नहीं पाती हैं, क्योंकि इनकी गति ‘अनिरुद्ध’ है। इन्हें कोई भी, कभी भी, कहीं भी, किसी भी प्रकार से रोक नहीं सकता है। इसीलिए मैं चारों ओर से अपने सभी दरवाज़ें मज़बूती के साथ बंद करके भी यदि सोया भी रहता हूँ, तब भी वे मुझ तक आते ही रहते हैं। ये साईनाथ मुझ तक आते हैं, बारंबार, तर्खड के कथा में जिस तरह हम पढ़ते हैं, बिलकुल उसी तरह। बाबा सौ. तर्खड को जो कहते हैं, उसे हमें मन में, हृदय में, अन्त:करण में अंकित करके रखना चाहिए। बाबा सौ. तर्खड से कहते हैं –

‘‘क्या करूँ माँ! मैं हर रोज़ की तरह। आज भी बांदरा गया था।
लेकिन नहीं मिला खाने-पीने को माँड। भूखा ही मुझे आना पड़ा।
कैसा देखो ऋणानुबन्ध। किवाड़ था यदि बंद।
तब भी मैंने प्रवेश किया स्वच्छंद । कौन प्रतिबंध लगा सके मुझ पर।’’

सौ. तर्खड का बेटा बाबा को प्रेमभाव के साथ हर रोज नैवेद्य अर्पण करता है। वही लड़का अपनी माँ के साथ शिरडी जाते समय अपने पिता से इस नियम का बड़े ध्यानपूर्वक पालन करने को कहता है। परन्तु एक दिन श्री. तर्खड नैवेद्य अर्पण करना भूल जाते हैं और ठीक उसी दिन बाबा शिरडी में सौ. तर्खड से कहते हैं, ‘‘माँ, जिस तरह हर रोज मैं बान्दरा (तर्खड का निवासस्थान बान्दरा में था) जाता हूँ, उसी तरह आज भी गया था; परन्तु आज मुझे खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं मिला (श्री तर्खड के द्वारा साई को नैवेद्य अर्पण किया न जाने के कारण) इसलिए मुझे भूखे ही लौटना पड़ा। माँ, कैसा ऋणानुबंध है यह देखो। अर्थात मेरे भक्त के साथ रहने वाले मेरे प्रेम के नाते के कारण मेरा मेरे भक्त के साथ नाता कितनी मज़बूती के साथ जुड़ा हुआ है।

यह देखो कि किवाड (दरवाजे, खिड़कियाँ, झरोके आदि को यहाँ पर किवाड़ कहकर संबोधित करने में कोई हर्ज नहीं) बंद थे, मग़र फ़िर भी मैंने घर के अन्दर स्वच्छन्दतापूर्वक प्रवेश किया। भक्तों के प्रेम के कारण ही अपनी मरज़ी से मैं इसी तरह सभी अवरोधों को लाँघकर अपने भक्तों के पास जाता रहता हूँ। मुझ पर प्रतिबंध लगा सके ऐसा कौन है? मुझे रोकने की ताकत भला है किसी में? अर्थात मुझे कोई भी, कहीं भी, कभी भी रोक ही नहीं सकता है।’ नौवे अध्याय वाली इस कथा में बाबा स्वयं की अपनी ‘अनिरुद्ध’ गति के बारे में स्वयं ही बता रहे हैं।

ऐसे ही हैं ये साईनाथ! हम यदि अपने मन के सारे दरवाज़े बंद कर देते हैं यानी परमेश्‍वरी कृपा एवं सहायता का स्वीकार करने के सारे रास्ते बंद कर नींद में यदि मग्न हो भी जाते हैं, तब भी मेरे पास वे आते ही रहते हैं, मेरे पास आकर मुझे आवाज देते ही रहते हैं, मुझे सावधान करते ही रहते हैं। परन्तु मेरे साईबाबा मेरे लिए इतना सब कुछ करते ही रहते हैं और मुझ से महज़ उठकर बैठने का काम भी यदि नहीं हो सकता है तो अपनी अधोगति के लिए जिम्मेदार मैं ही हूँ।

हम इसी प्रकार इस साई की मेहनत, अथक परिश्रम, जो वे केवल हमारे प्रेम के कारण ही हमारे लिए करते रहते हैं, उन्हें अनदेखा कर उठकर बैठने तक की कोशिश नहीं करते, फ़िर हमारा उद्धार कैसे होगा? हम यदि उठकर बैठते भी हैं तब भी साईनाथ को अपने सामने खड़ा पाते ही हैं। हमें उचित दिशा प्रदान करने के लिए, हमारा हाथ थामकर हमारे साथ चलने के लिए साई खडे हैं, परन्तु हमें भी इसके लिए उठकर बैठना चाहिए।

मेरे जीवन में रहने वाले सारे प्रतिबंध, सारी रुकावटें, जो मैं ही निर्माण करता हूँ, उन सब को पार करके भी ये साईनाथ बारंबार मेरे पास आते ही रहते हैं, परंतु मैं ही उठकर बैठने का श्रम नहीं करता हूँ और अपने बाबा को हर बार भूखा ही लौटा देता हूँ।

बाबा मुझसे क्या चाहते हैं? कुछ भी नहीं। बाबा केवल यही चाहते हैं कि मैं उठकर बैठ जाऊँ क्योंकि एक बार यदि मैं उठकर बैठ जाता हूँ तो साईनाथ को देखते ही मुझे अपनी गलती का एहसास हो जायेगा कि अरे! इतनी सारी मुसीबतें, रुकावटें, जो अपनी जिन्दगी में मैंने स्वयं निर्माण कर रखी हैं, उन्हें तोड़कर मेरे बाबा बिना किसी स्वार्थ के, केवल प्रेमवश मुझ तक आ पहुँचे हैं, मेरा उद्धार करने के लिए। मुझ जैसे सामान्य मानव के लिए इतना कुछ निरपेक्ष प्रेम से करने वाले साई के लिए ‘असंभव’ ऐसा कुछ भी नहीं है, ये ही एक ऐसे हैं जो मुझसे बिना किसी लाभ के प्रेम करते हैं।

उठकर बैठना इसका मतलब है- मुझ में यह ‘एहसास’ जागृत होना। ‘बिना किसी लाभ की अपेक्षा करते हुए प्रेम’ करने वाले एकमात्र मेरे साईनाथ ही हैं, इस बात का एहसास होते ही उस भक्त का अगला प्रवास आरंभ हो जाता है।

साईसच्चरित की कथा का जब हम पठन करते हैं, तब हमें पता चलता है कि साईसच्चरित की कथा में हर भक्त के लिए साई ही अथक परिश्रम करते रहते हैं और उस भक्त के प्रति रहने वाले उनके निरपेक्ष प्रेम का अनुभव भी हमें होता ही है। साथ ही उस कथा में होने वाले भक्त ने यदि एक बार भी उठकर बैठने वाली क्रिया पूरी की है, तो ये साईनाथ अद्भुत लीला करके उस भक्त का जीवन-विकास करते ही हैं।

उस भक्त का उठकर बैठना यानी साई की ‘साद’ को ‘प्रतिसाद देना’। मेरे साईनाथ तो निरंतर मुझे ‘साद’ देते ही रहते हैं, मुझे बस बाबा को ‘हाँ’ कहना है यानी ‘हाँ’ कहना है। हमें यदि कोई आवाज देता है, बुलाता है, तो हम उसे ‘हाँ’ कहते हैं, उसी तरह हमें साईनाथ को भी ‘हाँ’ कहना है। प्रतिसाद (रिस्पाँज़) देना ही है भक्त का उठकर बैठना। हमें तो बस ‘हाँ’ कहने का ही श्रम करना है। (सच में देखा जाये तो हमारा यह करना कुछ भी नहीं है) ‘निरपेक्ष प्रेम’ करने वाले साईनाथ के द्वारा हमारे लिए निरंतर किया जा रहा श्रम अपरंपार है।

श्रीराम की कथा हनुमानजी सदैव गाते ही रहते हैं। श्रीराम के प्रिय होने के कारण हनुमानजी बिभीषण के पास भी गए और रावण के पास भी गए। हनुमानजी के आते ही बिभीषण नींद से उठ बैठे, वहीं रावण हनुमानजी के बारंबार समझाने पर भी नींद से जागने को तैयार ही नहीं था।
हनुमानजी हर किसी के पास आते ही रहते हैं, रामकथा का गायन हमारे सामने बैठकर करते ही रहते हैं, हमें बिभीषण की तरह स़िर्फ उठकर बैठना होता है, उन्हीं की तरह हनुमानजी का स्वागत करना होता है, बस इतना ही!

और यदि हम रावण की तरह उठकर बैठने को तैयार ही नहीं हैं, तो फ़िर अंतत: हमारे जीवन में भी सर्वनाश निश्‍चित है। साईसच्चरित की कथाओं का वाचन, श्रवण, अध्ययन करना यही है- साईनाथ की साद को प्रतिसाद देना, उठकर बैठना, बाबा की पुकार में ‘हामी’ भरना। ये कथाएँ हमें इस बात का एहसास करवाती हैं कि बाबा स्वयं ही अपने भक्तों की सेवा करते हैं, निरपेक्ष प्रेम करते हैं, केवल वे ही हमारे उद्धारक हैं, इन्हें कहीं भी, कोई भी, कभी भी रोक नहीं सकता है। ये कथाएँ यही मर्म हमारे मन में दृढ़ करती हैं कि इस परमात्मा को ‘हाँ’ करना है या उनसे विमुख होना ही यह बात केवल हम पर ही निर्भर करती है।

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