श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २५)

29_01_2011_COL चक्रशक्ति और मंत्रशक्ति ये दोनों शक्तियाँ महाविष्णु की प्रमुख शक्तियाँ हैं । जाँता और चरखा इन दोनों के माध्यम से ये शक्तियाँ ही हमारे जीवन में कार्यकारी होती हैं । चक्रशक्तिरूपी लक्ष्मण और मंत्रशक्तिरूपी सीता इन दोनों के बीच चक्रधारी, मंत्रराज, ॐकारस्वरूप महाविष्णु श्रीराम खड़े हैं । श्रद्धारूपी सीतामाई और सबूरीरूपी लक्ष्मणदादा इन दोनों के बीच ये मेरे साईराम खड़े हैं । चक्र और मंत्र ये दोनों शक्तियाँ जब राममय हो जाती हैं, तब ये साईराम मुझे मिलते हैं। सुदर्शन चक्र की गति से ध्वनिरूपी पवित्र स्पंदन उत्पन्न होते रहते हैं और मंत्र के ध्वनिस्पंदन से कवचरूपी सुरक्षा चक्र भक्तों का संरक्षण करते ही रहता है ।

साईनाथ ने इस प्रथम अध्याय में ही श्रोता-वक्ताओं के समुद्धार के लिए इस चक्रशक्ति एवं मंत्रशक्ति दोनों का मधुर संगम करके, श्रोता-वक्ताओं को अभय एवं कृपा दोनों ही प्रदान किये हैं । जब इस प्रथम अध्याय को हम प्रेमपूर्वक पढ़ते हैं, तब हमारे ये साईनाथ हमारे जीवन में इन दोनों शक्तियों को समान रूप में प्रवाहित करते हैं । जो श्रद्धा-सबुरी के साथ अनन्य-प्रेमपूर्वक, पूर्ण विश्‍वास के साथ, निष्ठा से इस अध्याय को पढ़ेगा, उसके जीवन में कभी किसी भी महामारी का प्रवेश नहीं हो सकता ।

साईनाथ हमारे लिए यह सब कुछ करने के लिए सदैव तत्पर ही हैं, हमें इस प्रथम अध्याय की कथा की चारों स्त्रियों की तरह इस साईनाथ से सरल मन से प्रेम करते हुए, उनकी सेवा में सब कुछ न्यौछावर कर, उनकी आज्ञा का पालन अचूकता से करते रहना चाहिए । अब तक हमने इन चारों के आचरण से छ: मुख्य बातें सीखी हैं।

1)    ‘सबसे पहले मेरे साई’ यह जीवन-निर्धार ।
2)    प्रत्यक्ष आज्ञा के लिए समय व्यर्थ न गँवाना ।
3)    ‘क्यों’ इस प्रश्न को कहीं भी स्थान न देना ।
4)    सहजता एवं स्निग्धता ।
5)    उपासना और सेवा का मेलजोल ।
6)    सदैव नाम का आश्रय लेना और आलस को कहीं भी स्थान न देना ।

इन छ: बातों के साथ सबसे महत्त्वपूर्ण रहने वाली सातवीं बात है- भक्तिमार्ग का अवलंबन करते समय अहंकार को आडे आने न देना । उपासना करते समय, सेवा करते समय, भक्ति करते समय यदि यह दंभ हममें होता है, तो वह हमारा घात करता है । ये चारों जब दौड़ते-भागते गेहूँ पीसने आती हैं, तब से लेकर गाँव की सीमा पर आटा डालने तक उनमें कहीं भी जरा सा भी अहंकार/दंभ बिलकुल भी नहीं रहता है । वे कहीं पर भी अपनी बड़ाई करती हुई दिखाई नहीं देती हैं।

वे यह नहीं कहतीं कि देखो, हम बाबा की कितनी बड़ी भक्त हैं ! हमने बाबा के लिए गेहूँ पीसा ! हम बाबा के कितने करीबी हैं ! हमने बाबा के हाथ से खूँटा छीन लिया ! बाबा पर हमारा अधिकार चलता है। बाबा ने हमें ही उस आटे को गाँव की सीमा पर डालने को दिया ! हमसे ही पीसवाया भी ! इस तरह की बातें वे नहीं करतीं।

ना तो उन्होंने किसी प्रकार की बड़ाई की और ना ही उन में से किसी को भी अहंकार ने कहीं भी स्पर्श किया है ।

‘हमारी भक्ति-सेवा कितनी अधिक हैं’ यह किसी को दिखाने के लिए वे चारों गेहूँ पीसने नहीं जाती । वे बाबा से झगड़कर खूँटा उनके हाथ से खींच लेती हैं, उस समय भी ‘हम बाबा के श्रेष्ठ भक्त हैं, बाबा हमारी बात सुनते हैं’, ऐसा भाव उनमें नहीं है । वे अपनी बडाई के गीत नहीं गातीं। बाबा की महिमा के गीत गाते समय वे वहाँ पर खड़े लोगों को यह दिखाने के लिए नहीं गाती हैं कि वे कितनी भक्ति करती हैं, बल्कि वे सहज प्रेम से गाती हैं । लोगों के सामने अपने काव्य एवं गायन का दिखावा कर दांभिक प्रदर्शन करने के लिए वे नहीं गाती । यही बात सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

आटे को गाँव की सीमा पर डालने की ज़िम्मेदारी बाबा ने हमें ही दी है । हमारे द्वारा पीसा गया आटा ही गाँव की सीमा के चारों ओर डालने को दिया है । हमारे द्वारा पीसे गए आटे से ही महामारी को रोका गया आदि अहंकारी बातें कहीं पर उनके मन में नहीं आती हैं । हम कितने महान हैं । बाबा हमें ही चाहते हैं, हमारी भक्ति सब से अधिक है आदि बातों का दंभ प्रदर्शन कर वे अन्य भक्तों को नीचा नहीं दिखाती हैं। इन चारों के आचरण में कहीं भी जरा सा भी अहंकार नहीं हैं ।

हमें भी हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए । भक्तिमार्ग का अवलंबन करते हुए अहंकार को बिलकुल भी स्थान नहीं देना चाहिए । इसकी छाया भी हम पर नहीं पडनी देनी चाहिए । अहंकार के बल पर कोई यदि दूसरों को फँसाता है, तब भी यह साईनाथ हर किसी का मर्म जानता है और उन्हें हर किसी मनुष्य के मन में रहने वाले हेतु, कारण आदि का पता होता ही है । ये चारों सरल मन से बाबा की सेवा करती हैं, बिना किसी अहंकार के साईनाथजी का नाम-गुण-गान करती हैं । हमें भी उनके इस महत्त्वपूर्ण गुण को उनसे सीखना चाहिए ।

आठवी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ये चारों स्त्रियाँ गेहूँ पीसते समय एक दूसरे के साथ पूर्णत: सामंजस्यतापूर्वक व्यवहार करते हुए बिना एक दूसरे की खोट निकाले, बिना तू तू-मैं मैं किये परस्पर समन्वय एवं सहकार्य की भावना के साथ सामूहिक रूप से साथ मिलकर अपना कार्य अच्छी तरह से करती हैं । जब अनेक भक्त मिलकर सामूहिक रूप से कार्य करते हैं, उस समय परस्पर सहकार्य के साथ मिल-जुलकर काम करना अति आवश्यक होता है ।

अनेक भक्त एक साथ मिलकर उपासना करते हैं, सेवाकार्य करते हैं, तब भक्तों को इन चारों के आदर्श को अपने संमुख रखना चाहिए । ‘मैं बड़ा या तुम, मैं सही हूँ या तुम, मैं जो कहता हूँ वही सच है और तुम जो बोल रहे हो वह गलत हैं, मैं तो इतने सालों से बाबा की भक्ति में हूँ फिर यह कल का आया हुआ भक्त मुझे सिखाने की जुर्रत कैसे कर सकता है? …….हम अपनी गलती को छिपाकर अपने अहंकार की पुष्टी कर अपने ही अध:पतन के लिए कारण बनते हैं ।

ये चारों औरतें गेहूँ पीसते समय आपस में जरा सा भी झगड़ा नहीं करतीं कि तुम खूँटा ठीक से नहीं पकड़ती हो, तुम धीरे-धीरे घूमा रही हो या जोरों से घूमा रही हो, तुम ज्यादा समय ले रही हो, मुझे कम समय दे रही हो, तुम गेहूँ अधिक डाल रही हो अथवा कम डाल रही हो, जाओ तुम चली जाओ, मैं ही गेहूँ पीसूंगी या हम तीनों ही पीसेंगी । …… इस तरह का दोषारोपण उनके बीच कहीं भी दिखाई नहीं देता । उलटे एक दूसरे की सहायता करते हुए बड़े ही प्रेम के साथ एक साथ मिलकर, सामूहिक रूप में मिल-जुलकर ये कार्य करती हैं ।

मैंने पहले बाबा के हाथों से खूँटा लिया था, इसलिए मेरी भक्ति बड़ी है, मेरा अधिकार बड़ा है इन बातों में वे अपना समय बरबाद नहीं करतीं । अंत में जब महीन आटे की जगह खुरदरा आटा पीसा जाता है, तब भी उनमें ‘तुम्हारे कारण ही यह आटा खुरदरा हुआ, तुमने गलत तरीके से पीसा इसीलिए ऐसा हुआ’ इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप वे एक-दूसरे पर नहीं करती हैं, बल्कि जो कुछ भी हुआ हम चारों के कारण ही यही एकता उनमें दिखाई देती है ।

सामूहिक उपासना एवं सेवा आदर्श रूप में किस प्रकार करनी चाहिए, इसका अत्यन्त सुंदर उदाहरण हेमाडपंत ने यहाँ पर प्रस्तुत किया है । हमारी आँखे खोलने के लिए ही ऐसा उदाहरण उन्होंने हमें दिया है। गाँव की सीमा पर आटा उन्होंने सामूहिक रूप में ही डाला और साथ ही ‘साई की आज्ञा का पालन करते हुए आटा हमने डाल दिया, लेकिन महामारी तो साई ने ही दूर की’ यह बात पूरे भरोसे के साथ वे सब से कहती हैं । साई ने ही इस परमेश्‍वरी कार्य में सामूहिक रूप में हमारा विकास जल्द से जल्द हो सके इसलिए इस कार्य में सहभागी होने का अवसर हमें प्रदान किया और इसके लिए हम बाबा की ऋणी हैं, यही उनका भाव है ।

भक्तिसेवा का अहंकार उनके पास बिलकुल भी नहीं है । जब हम सामूहिक रूप से उपासना एवं सेवा करते हैं, उस समय छोटी-मोटी बातों के झमेले में न पड़कर अकेले-अकेले उपासना करने के बजाय सामूहिक रूप से उपासना, प्रार्थना, सेवा जब हम करते हैं, तब उसमें से कई गुना अधिक परमेश्‍वरी ऊर्जा हर एक को प्राप्त होती है । इस साई-गोपाल की भक्ति करते समय जो भी अपना अहंकार पकड़कर अनुचित रूप में उन्मत्त होकर व्यवहार करता है, वह द्वारका के उन यादवों की तरह स्वयं ही अपने विनाश का कारण बनता है ।

वहीं ये चारों स्त्रियाँ तो गोकुल के गोपों की तरह हैं । उनके मन में यह दृढ विश्‍वास है कि महामारी दूर करनेवाला यह मेरा साईबाबा ही है, इस गोवर्धन पर्वत को उठाकर पकड़ने के लिए समर्थ रहनेवाले एकमात्र ये श्रीकृष्ण ही हैं, हमें अपनी लाठी का सहारा गोवर्धन को देने का अवसर प्रदान कर हमें सुरक्षित रखकर सदैव हमें अपना सामीप्य प्रदान करने वाले इस साई-गोपालकृष्ण के सदैव ऋणी रहनेवाले गोप हम हैं। अब साईसच्चरित के इस अध्याय को पढकर हमें ही यह निश्चय करना है कि हमें यादव बनना है या गोप !

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