श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ५५)

गाँव में थी महामारी फैली । करते यह उपाय साई।
दूर हुई बीमारी। गाँववाले हुए सुखी॥

08l-  साईनाथइस कथा में हम पढते हैं कि साईनाथ ने ग्रामवासियों को सुख-शांति कैसे प्रदान की। लौकिक स्तर पर शिरडी गाँव में जिस तरह यह कथा घटित होती है, उसी तरह मानसिक स्तर पर भी हमारे मन में यह कथा घटित होनी चाहिए। जिस तरह महामारी  का विनाश शिरडी में हुआ, उसी तरह अशांति नामक महामारी  का विनाश हमारे मन में भी होना चाहिए। ऐसा कब हो सकता है, तो हमारी शिरडी की द्वारकामाई में ये साईनाथ सक्रिय होंगे तब ही अर्थात हमारे अन्तर्मन में इस साई को हम सद्गुरु रूप में, ‘कर्ता’ रूप में विराजमान करेंगे, तब ही। जिनके अन्तर्मन में ये साईनाथ क्रियाशील हैं, वे केवल साक्षी भाव में ही उपस्थित रहते हैं। बल्कि वहीं पर गेहूँ पीसने वाली यह कथा घटित होती है और अशांति को दूर कर वहाँ शांतरस प्रवाहित हो सकता है।

साईनाथ की सद्गुरु-स्वरूप में हमारे अन्तर्मन में होने वाली उपस्थिति हमें बहिर्मुखता से दूर कर अन्तर्मुखता प्रदान करती है। हम यदि दिल से साईनाथ से प्यार करते हैं तो वे हमें अन्तर्मुखता प्रदान करते ही हैं। अब हम सरल शब्दों में देखेंगे कि यह सब कैसे संभव होता हैं। बहिर्मुख होना अर्थात इस साईनाथ को भूलकर बाह्य विषयों की दुनिया में उलझे रहना; वहीं अन्तर्मुख होना अर्थात साईनाथ के नामस्मरण को अखंड रखकर यह मानना कि ‘साईकृपा से ही मुझे यह जीवन मेरा सर्वांगीण विकास करने के लिए प्राप्त हुआ है’ और इस बात का ध्यान रखते हुए केवल सांसारिक सुखों में ही न उलझकर साईचरणों में ध्यान लगाकर बाबा के नियमानुसार अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी अच्छी तरह से निभाते रहना। संक्षेप में देखा जाये तो बहिर्मुखियों के जीवन में बाह्य विषय-वासनाओं को प्राथमिकता दी जाती है। वहीं अंतर्मुखियों के जीवन में ‘साईनाथ’ को प्राथमिकता दी जाती है।

हमने देखा कि इस कथा में गृहस्थाश्रमी होने वालीं वे चारों स्त्रियाँ जब सुनती है कि बाबा गेहूँ पीसने बैठ हैं, वे दौड़ते-भागते द्वारकामाई में जा पहुँचती हैं और बाबा के हाथों से खूंटा खींचकर स्वयं गेहूँ पीसने लगती हैं। वे चारों भी अपने-अपने परिवार से जुडी हैं, उनके अपने बाल-बच्चें भी होंगे, साथ ही उन्हें अपनी ज़िम्मेदारियाँ भी निभानी पड़ती होंगी, मगर फिर भी वे चारों वहाँ आई हैं। वे अपने परिवार में ही उलझकर नहीं रह जाती हैं, बल्कि ‘मेरे बाबा’ यही उनके जीवन की प्राथमिकता है।  इसी कारण बाबा गेहूँ पीसने बैठे हैं, इस बात का पता चलते ही सारा काम छोड़ वे दौड़ते भागतें द्वारकामाई में जा पहुँचती हैं। इससे हम सहज ही समझ सकते हैं कि अन्तर्मुखता एवं बहिर्मुखता में क्या अंतर है।

आत्माराम के प्रति अभिमुख होना, मेरे इस साईनाथ के प्रति अभिमुख होना, ‘सर्वप्रथम मेरे साईनाथ’ यही जीवन की प्राथमिकता (प्रायोरिटी) होना, यही भक्तिमार्ग की अन्तर्मुखता है, जो इन चारों के पास भी है। आगे चलकर इन चारों के द्वारा गेहूँ पीसकर पूरा होते ही इन चारों के मन में पुन: बहिर्मुखता अपना सिर उठाने की कोशिश करती है, उनके मन में उस आटे का उपयोग अपने परिवार के लिए करने की इच्छा उत्पन्न होती है। परन्तु उसी क्षण बाबा उन्हें अन्तर्मुखता प्रदान करते हैं।

सद्गुरु की क्या ज़रूरत है, इस बात का उत्तर हमें यहाँ पर मिल जाता है। अपने मन पर काबू करना हमारे बस के बाहर की बात होती है। इसी कारण उसे अन्तर्मुख करना हमारे लिए बहुत कठिन होता है। परन्तु मैं यदि श्रध्दावान हूँ और मेरा अपने बाबा पर पूरा विश्‍वास है तो ये सद्गुरु हमें ना तो रास्ते से भटकने देंगे और ना ही हमारी अन्तर्मुखता को डगमगाने देंगे।

साई के प्रति श्रद्धा होने से पहले वे भी अपने-अपने सांसारिक बंधनों में उलझी हुई थीं। ये चारों जब साई को सद्गुरु मान लेती हैं, तब अपने आप ही वे अपने जीवन में अंतर्मुख हो जाती हैं। साईनाथ ही उन्हें यह अन्तर्मुखता प्रदान करते हैं। उन चारों के शिरडीरूपी अन्त:करण के द्वारकामाईरूपी अन्तर्मन में जब ये सद्गुरु साईनाथ क्रियाशील हो जाते हैं, तब वे चारों अपने आप ही दौड़ते-भागते साईप्रेमवश उनके पास आ पहुँचती हैं। सांसारिक बंधन उन्हें रोक नहीं पाते हैं, उलटे अब साई कृपा से अन्तर्मुख हो जाने के कारण उनका जीवन अब और भी अधिक सुखमय एवं आनंदित बन जाता है, साथ ही परमार्थ भी आनंदपूर्वक जोडने लगता है। इससे पहले वे सांसारिक बंधनों में फँसी हुई थीं, लेकिन वे बहिर्मुखी चारों स्त्रियाँ अब सद्गुरु साईनाथ की कृपा से ही गृहस्थी और परमार्थ दोनों को एक साथ आनंदमय बनाने के लिए अन्तर्मुख हो जाती हैं।

हमारे मन में भी इसी प्रकार की वे चारों होती हैं। इन चारों के कारण ही मेरा मन बहिर्मुख हो चुका है अर्थात सांसारिक बंधनों में उलझा रहता है, साईनाथ को भूल चूका होता है। परन्तु जिस क्षण ये साईनाथ मेरे अन्तर्मन में प्रतिष्ठित होते हैं, उसी पल उन चारों का रूपांतरण वे गेहूँ पीसनेवालीं उन चार स्त्रियों के रूप में कर देते हैं अर्थात मुझे बहिर्मुखी बनाने वाली चार वृत्तियों का रूपांतरण अन्तर्मुख बनानेवाली वृत्तियों में कर देते हैं। हमारे मन की ये चार वृत्तियाँ ही सारा खेल खेलती रहती हैं। वे जब साईविमुख होती हैं, तब वे बहिर्मुख अवस्था में होती हैं और तब वे ही मुझे सांसारिक विषयों के मोहजाल के, सुख-दु:ख के बंधनों में बाँधे रखती हैं, वहीं जब वे साईनाथ-अभिमुख अर्थात अन्तर्मुख स्थिति में होती हैं, तब वे मुझे शांतरस, आनंद प्रदान करती हैं। पहले वाली बहिर्मुख उन चार वृत्तियों का रूपांतरण चार अन्तर्मुख वृत्तियों में करने का सामर्थ्य केवल इस एक मन:सामर्थ्य प्रदान करने वाले साईनाथ में ही हैं, यही इस कथा के माध्यम से हेमाडपंत हमें बता रहे हैं।

शिरडी की उन चारों स्त्रियों को किसी के कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि बाबा के पास जाओ। वे अपने-आप ही दौड़ते-भागते बाबा के पास जा पहुँचती हैं। स्वाभाविक है कि यह अन्तर्मुखता उनमें ‘सहज’ रूप से आ गई है। यह कृत्रिम नहीं है। जब ये साईनाथ मेरे अन्तर्मन में रहते हैं, तभी यह सब-कुछ हो सकता है। ये चार वृत्तियाँ जो पहले ‘अपकारी’ थीं, वे ‘उपकारी’ बन जाती हैं। सद्गुरु साई अंधकार का रूपांतरण प्रकाश में करते हैं, वह इसी प्रकार से! अब हम देखेंगे कि ये चार वृत्तियाँ कौन सी हैं और साईनाथ उनका रूपांतरण अन्तर्मुख वृत्तियों में कैसे करते हैं? यह अब हम देखेंगे।

मन को बहिर्मुख बनाने वाली ये चार वृत्तियाँ इस प्रकार हैं-
१) इच्छा २)आशा (फलाशा) ३) तृष्णा ४) वासना।

इन चार वृत्तियों के कारण ही मन को बहिर्मुखता प्राप्त होती है और मैं अपने साईनाथ से दूर चला जाता हूँ। ये चार वृत्तियाँ ही मुझे विषयविकारों से, अहंकार से जोड़ती हैं। इन चारों में से किसी एक पर भी विजय प्राप्त करना मुझ जैसे सामान्य मानव के लिए दुष्कर होता है। इन वृत्तियों के कारण ही मेरे मन में अतृप्ति, अशांति रहती है। इन्हीं के कारण में सांसारिक बंधनों में उलझा रहता हूँ, जन्ङ्क-मरण के फेरे में फँसता हूँ, अपने साईनाथ को भूल जाता हूँ। परन्तु जिस पल मेरे अन्तर्मन में  मेरे सद्गुरु साईनाथ क्रियाशील हो जाते हैं, उसी क्षण उनकी कृपा से इन चारों का रूपांतरण चार उपकारी वृत्तियों में हो जाता है और मुझे अन्तर्मुखता प्राप्त होती है और बाबा ही इन चार अपकारक वृत्तियों का रूपांतरण उपकारक वृत्तियों में करते हैं।

१) इच्छा का रूपांतरण ‘निश्‍चय’ में करते हैं।
२) आशा अर्थात फलाशा का रूपांतरण ‘ईश-समर्पण’ में करते हैं।
३) तृष्णा का रूपांतरण ‘तृप्ति’ में करते हैं।
४) वासना का रूपांतरण ‘सद्गुरु-चरणों के सामीप्य की प्राप्ति की चाह’ में कर देते हैं।

मुझे स्वतंत्र रूप से कुछ करना है, इस इच्छा का रूपांतरण ‘मुझे साई का होकर रहना है’ इस निश्‍चय में हो जाता है।

फलाशा का पूर्णविराम होकर कर्म ईश्‍वरार्पण करने की वृत्ति सक्रिय होती है।
तृष्णा का रूपांतरण तृप्ति में, समाधान में हो जाता है ।

वासना का रूपांतरण सद्गुरु के सामीप्य के एवं उनके चरणों के प्रति आकर्षित होने की चाह में हो जाता है। मुझे विषयविकारों में उलझाने वाली मेरे मन की ये चारों वृत्तियाँ अब साईं के चरणाँ में रममाण होने वाली, बाबा के साथ गेहूँ पीसने की उनकी क्रिया में शामिल होने वाली बन जाती हैं। उनकी ‘दिशा’ पहले बाह्य विषयों की ओर थी, दस इन्द्रियों की ओर थी। अब वे ग्यारहवी दिशा में, महाप्राण की दिशा में रूपांतरित हो जाती हैं। अर्थात मेरा मन साई के दिशा में अभिमुख हो जाता है।

इसके बाद भी यदि मेरे समान सामान्य मानव का मन थोड़ा-बहुत बाह्य दिशा की ओर प्रवृत्त हो जाता है, तो ये साईनाथ तुरंत ही उसे अन्तर्मुख बना देते हैं। हम से निरपेक्ष प्रेम करने वाले ये मेरे साईनाथ ही केवल हमारे हित के लिए यह सब कुछ करते रहते हैं। अब हमें ही यह निश्‍चित करना है कि मेरे मन की इन चारों वृत्तियों को कैसा होना चाहिए, घर-गृहस्थी के बंधनों में उलझा रहना चाहिए अथवा बाबा के प्रेम के बंधन में बँधकर प्रेमपूर्वक उत्साहित हो उनकी गेहूँ पीसने की क्रिया में शामिल होना चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published.