श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २८ )

श्रीसाईबाबा के गेहूँ पीसनेवाली कथा
श्रीसाईबाबा के गेहूँ पीसनेवाली कथा

अकारण करुणा के निधि रहनेवाले साईनाथ अपने बच्चों के जीवन में अंधकार न आने पाये इसके लिए हर पल सुसज्ज एवं सतर्क रहते हैं ।

श्रीसाईसच्चरित का आरंभ ही हेमाडपंत श्रीसाईबाबा के गेहूँ पीसनेवाली कथा से करते हैं । वास्तव में देखा जाये तो हेमाडपंत श्रीसाईसच्चरित का आरंभ अन्य किसी भी कथा के द्वारा कर सकते थे। खास कर ‘वे बाबा के पास किस तरह पहुँचे’ इस कथा के द्वारा भी वे श्रीसाईसच्चरित कथा का आरंभ कर सकते थे, परंतु ऐसा न होते हुए गेहूँ पीसनेवाली कथा से ही बाबा का चरित्र शुरू होता है, यह बात विचार करने योग्य है ।

मेरी कथा मैं ही करूँ । भक्तेच्छा पूरी मैं ही करूँ ॥ यह बात दूसरे अध्याय में साफ साफ कहनेवाले साई ने हेमाडपंत से इसी कथा से चरित्र का आरंभ करवाना इसके पीछे कुछ कारण जरूर होना चाहिए । क्योंकि परमात्मा की कृपा एवं प्रेम ये दो ही बातें अकारण होती हैं, बाकी हर एक क्रिया के पीछे कुछ न कुछ कारण होता ही है ।

महामारी यह हकीकत में क्या होती है? बहुत पहले देवी, प्लेग जैसी संक्रामक बीमारियाँ (एपिडेमिक्स) तेज़ी फैलती थीं और एक बार भी यदि उस बीमारी का कोई मरीज़ मिल जाता था तब उस पीछे-पीछे लगातार अनेक लोग उस बीमारी से ग्रसित हो जाते थे और एक के बाद एक करके मृत्यु के मुख में जाने लगते थे, उनकी मौत हो जाती थी। फिर ऐसे समय पर सारा गाँव ही उजड़ जाता था । सारांश, बहुत बडे पैमाने पर मनुष्यसमाज का जीवन खत्म हो जाता है, उसे ‘महामारी’ कहते हैं ।

मनुष्य को जिस तरह शारीरिक रूप में मौत आती है उसी तरह अन्य नौ प्रकार की अपमृत्युएँ भी आती हैं, जिनका वर्णन श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज में किया गया है। शारीरिक मृत्यु से उस मनुष्य के लिए सब कुछ खत्म हो जाता है परन्तु इन नौ प्रकार की अपमृत्युओं के कारण मनुष्य जीते जी ही मृत्युवत् यातनाएँ भुगतता है । इतना ही नहीं बल्कि इन अपमृत्युओं के कारण मनुष्य अनेक बार मरणपीडा भुगतता है ।

ये नौ अपमृत्यु कौन से हैं? ‘सद्गुणों की मृत्यु, सद्विचारों की मृत्यु, नैतिक मूल्यों (एथिक्स) की मृत्यु, प्रेम की मृत्यु, यश एवं सत्-कीर्तन की मृत्यु, श्रद्धा की मृत्यु, स्वावलंबी पुरुषार्थ एवं समाधान की मृत्यु’ इस प्रकार की नौ अपमृत्युओं का वर्णन श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज करते हैं ।

और यह नौ प्रकार की मौत जब बहुत बडे जनसमुदाय को ग्रसित करने लगती है, तब वह व्यक्तिगत मौत न रहकर महामारी बन जाती है । जब जब इस प्रकार की महामारी जनसमुदाय को ग्रसित करती है, तब-तब उस मृत्यु से उस जनसमुदाय को मुक्ति दिलाने के लिए विश्व के  धन्वन्तरि अपना कार्य आरंभ करते हैं ।

मूलत:, मृत्यु का अर्थ है- जीवन का अभाव, चैतन्य का अभाव। और चैतन्य का अर्थ है-परमात्मा का ही मानवी शरीर में होनेवाला सक्रिय अस्तित्व । यानी जब मृत्यु होती है तब मनुष्य का चैतन्य उस देह को छोड देता है । यह हुई भौतिक धरातल पर होनेवाली मृत्यु की बात ।

अपमृत्यु के संबंध में अखिर होता क्या है? मृत्यु यानी अभाव और अभाव का अर्थ है-कुछ भी न होना । मनुष्यजीवन में जब परमात्मा का सक्रिय अस्तित्व नहीं रहता यानी परमात्मा से विमुख होकर उनसे विरुद्ध दिशा में मनुष्य का प्रवास जब शुरू हो जाता है, तभी उसकी अपमृत्यु होती है । जब एक बड़ा जनसमुदाय इस तरह परमात्मा से विमुख होकर उनकी विरुद्ध दिशा में प्रवास करने लगता है, तब ही विश्व में महामारी फैलती है । जो भौतिक धरातल पर तो मनुष्य को जीवित रखती है परन्तु उसे जो जीवन मिलता है, वह पशुतुल्य ही होता है ।

‘परमात्मा का जीवन में अभाव रहना’ इसका क्या मतलब है? इसका अर्थ है- सत्य, प्रेम और आनंद ये जो जीवन के ईश्वरी मूल्य हैं, इनकी राह छोड़कर उसके ठीक विपरित दिशा में यानी असत्य, द्वेष और दुख की राह पर चलना । अभाव ही अंधकार है । अंधकार का अर्थ है- ‘तमस्’ यानी सत्त्वगुण का लोप और तमोगुण का बढ़ता हुआ आधिपत्य । तो इसका अर्थ क्या यह है कि मनुष्य में होनेवाले सत्त्वगुण का धीरे-धीरे लोप होना शुरू हो जाता है और उसके जीवन का कब्ज़ा अब तमोगुण के पास सहज ही दे दिया जाता है और फिर नयी सुबह होगी इस बात का इंतजार करते हुए कितने दिनों तक रुकना प़देग़ा यह वह नहीं जानता क्योंकि उसके जीवन में सिर्फ अंधेरा और न खत्म होनेवाली रात्रि का ही साम्राज्य होता है और उस अंधकार में टटोलते हुए, ठोकर खाते हुए, गिरते चरते, रोते-पीटते उसकी इच्छा हो अथवा न हो, उसे चलना ही पड़ता है ।

परंतु अकारण करुणा के निधि रहनेवाले साईनाथ अपने बच्चों के जीवन में इस प्रकार का अंधकार आये ही नहीं, इसके लिए हर पल सुसज्ज एवं सावधान रहते हैं । जिस क्षण मानवसमुदाय पर इस महामारी की परछाई पड़ने की संभावना दिखायी देती है, उसी समय इस बात का उन्हें पता चल जाता है और वे उसी पल से हर एक जीवात्मा को इस महामारी से छुड़ाने के लिए, बचाने के लिए अपना कार्य आरंभ कर देते हैं । श्रद्धा और सबुरी ये दो सिक्के जिसके पास होते हैं, वही साईनाथ की इस गेहूँ पीसने की क्रिया के पीछे छिपे हुए मर्म को जान सकता है । परन्तु जिसके पास श्रद्धा और सबुरी नामक ये दोनों सिक्के नहीं होते हैं, उसे ठोकरें खाते हुए, रोते-पीटते, गिरते-परते, अनंत काल तक चलना ही पड़ता है ।

महामारी का नाम लेते ही उसमें रोग एवं रोगजन्तुओं का होना यह तो स्वाभाविक बात है। अपमृत्यु के संदर्भ में बात करते हुए श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराजने कहा है- ‘इन सभी प्रकार की अपमृत्युओं का एकमात्र मूल कारण ‘मोह’ यह रोग और ‘अहंकार’ यह रोगजन्तु होता है । ‘मोह’, फिर वह किसी भी चीज़ के लिए हो सकता है और ‘अहंकार’ किसी को भी और किसी भी चीज़ के लिए हो सकता है ।

मोह का रोग और अहंकार का रोगजन्तु बडी ही तेज़ी के साथ फैलनेवाला होता है और इसी कारण वह मनुष्य में एवं समाज में भी अत्यन्त तेज़ी से फैलकर महामारी का रूप धारण कर लेता है । सामान्य मानव से लेकर अर्जुन (श्रीकृष्ण के सखा) तक को भी इस मोह ने नहीं बक्षा और अहंकार ने तो दुर्वास जैसे ऋषि का भी नुकसान ही किया ।

इस अनेकस्तरीय महामारी को नष्ट करना यानी रोग और रोगजन्तुओं को समूल नष्ट कर देना; और इसके लिए अत्यन्त प्रभावी रहनेवाली रामबाण औषधि या टीके (व्हॅक्सिन) की खोज करना इन कठिन कार्यों को करने के लिए, जो हम सामान्य मानवों की क्षमता एवं बुद्धि दोनों से परे की बात है, उसे करने के लिए समर्थ एवं अत्यन्त अनुभवी डॉक्टर की ज़रूरत होती है, है ना?

Leave a Reply

Your email address will not be published.