श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २२)

Wall Paper Saibaba (32) (1)_2(1)गेहूँ पीसनेवाली कथा की उन चार औरतों की भूमिका (किरदार) के बारे में हम अध्ययन कर रहे हैं । हमें इन सभी कथाओं में विशेष तौर पर किस बात पर ध्यान देना चाहिए? इस प्रश्‍न का उत्तर है- भक्तों की भूमिका पर, उनके आचरण पर । ये मेरे साईनाथ, मेरे राम अपनी ‘भूमिका’ सदैव ही भली-भाँती निभाते रहते हैं, मुझे अपने भक्त की भूमिका किस प्रकार अधिक से अधिक अच्छी तरह निभानी चाहिए, इस बात का बोध मुझे हर एक कथा से ग्रहण कर उसे आचरण में उतारना चाहिए । ये साईनाथ सदैव भक्त से रहने वाले प्रेम के साथ, अकारण कारुण्य के साथ क्रियाशील हैं ही, मुझे उचित दिशा से किस प्रकार सक्रिय होना है, इस बात की सीख लेनी चाहिए । साईसच्चरित की रचना रचने के पीछे मेरे इस साईनाथ का उद्देश्य भी भक्त की भूमिका को समझाना यही है । मुझे कैसा आचरण करना चाहिए, साथ ही अपने जीवन का विकास करते हुए इस साई-गोपाल के गोकुल में यानी ‘भर्ग’ लोक में निरंतर इसका ‘सामीप्य’ कैसे प्राप्त करना चाहिए । मेरे साईराम अपना काम सदैव अचूक रूप से करते ही हैं, मुझे क्या करना चाहिए यह सीखना बहुत ज़रूरी है । राम मेरे लिए युद्ध करने के लिए, इस महामारी का नाश करने के लिए तत्पर एवं समर्थ हैं ही, मुझे निश्चय के साथ राम का ‘साचार’ वानरसैनिक बनना चाहिए। इन बातों का दिग्दर्शन करने के लिए ही बाबा ने इस साईसच्चरित में गेहूँ पीसने की लीला की है।

बाबा हमारे लिए स्वयं पीसने बैठे हैं, हमारे लिए ही युद्ध करने के लिए खड़े हुए हैं, फिर अब मुझे क्या करना चाहिए, इस बात का फैसला मुझे करना ही चाहिए और उसके अनुसार कार्य भी करना चाहिए । श्रीमद्पुरुषार्थ में लिखित अनिरुद्ध महावाक्य हमें यही बताता है कि रावणरूपी बैरी का विनाश कब और कैसे होता है ।

युद्ध मेरे राम करेंगे । समर्थ दत्तगुरु मूल आधार ।
मैं सैनिक वानर साचार । रावण का अंत निश्चित ।
॥ इति अनिरुद्ध-महावाक्यम् ॥

राम का वानरसैनिक बनना कोई मुश्किल काम नहीं है, यह हर किसी के लिए सहज सरल है । हर कोई राम का वानरसैनिक सहज ही, सुंदर तरीके से कैसे बन सकता है, इसका विवेचन श्रीअनिरुद्धजी ने श्रीमद्पुरुषार्थ द्वितीय खंड  प्रेमप्रवास में किया ही है । परन्तु यहाँ पर साईसच्चरित के अन्तर्गत आनेवाली पीसाईवाली कथा में, प्रथम अध्याय में, साईनाथ हमें यही दिशा दिखा रहे हैं । उन चार औरतों का आचरण हमारे लिए मार्गदर्शक है । हेमाडपंत उनका वर्णन बड़े ही सुंदर तरीके से कर रहे हैं । वे स्त्रियाँ कोई हमसे अलग नहीं थी, हमारे समान ही सामान्य गृहस्थी करने वाली स्त्रियाँ थीं, फिर भी वे साईराम की वानरसैनिक बन गयीं, यही बात हेमाडपंत हमें बताते हैं ।

महामारी का नाश, रावणरूपी बैरी का नाश करनेवाले ये मेरे साईराम ही हैं, मैं सिर्फ़ इनके कार्य में सहभागी होकर इन की आज्ञानुसार सीमा पर आटा ले जाकर डालने का ‘आचरण’ करूँगा यानी इस साईराम का वानरसैनिक बनूँगा यही इन चारों की भूमिका है । बाबा पीसने बैठे हैं इस बात का पता चलते ही अपने सभी काम-काज छोड़कर वे जल्दी-जल्दी भागते-दौड़ते द्वारकामाई में आ पहुँची । यही पर हमें वानर सैनिक बनने की सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रेरणादायी बात का पता चलता है । यही है ‘निश्चय करना’ । सबसे पहले ‘इस पावन कार्य में मेरे लिए क्या करना संभव है’, इस बात का ध्यान हमेशा रखना चाहिए और उसके अनुसार ही कृति करनी चाहिए ।

इन चारों औरतों की अपनी गृहस्थी थी, उनका का भी घर-परिवार था, बाल-बच्चे थे, खाने-पीने का इंतजाम करना पड़ता था, पर फिर भी ‘मेरे बाबा पीसने बैठे हैं’ इस बात का पता चलते ही वे चारों तुरंत वहाँ आ पहुँची । उस समय वे चारों भी अपने-अपने घर में कुछ न कुछ काम तो कर ही रही होंगी । परन्तु उनके लिए ‘साईनाथ’ ही सर्वप्रथम, सर्वोच्च एवं महत्त्वपूर्ण थे । इसी लिए हाथ में लिया हुआ काम बाद में भी किया जा सकता है, परन्तु मेरे बाबा यदि सुबह-सुबह स्वयं पीसने बैठे हैं, तो ज़ाहिर है कि मेरे लिए बाबा जो कर रहे हैं उसमें उनका हाथ बँटाना ही प्राथमिकता (प्रायॉरिटी) है, यह उन स्त्रियों ने सोचा और इस निर्धार के अनुसार वैसी कृति भी की ।

हमारे जीवन में भगवान को, इस सद्गुरु साईनाथ को क्या इस तरह प्राथमिकता हम दे रहे हैं ? वानरसैनिक बनने के लिए यही सबसे पहला और महत्त्वपूर्ण कदम है । बिना प्रेम यह प्राथमिकता निश्चित नहीं होगी और इसीलिए मेरे बाबा के प्रेम को प्रतिसाद (रिस्पाँड) करते हुए मुझे भी इन चारों की तरह ‘मेरे ये सद्गुरु साईनाथ ही सबसे पहले, उसके बाद बाकी सब कुछ’ इस क्रम के अनुसार जीवन की प्राथमिकता निश्चित करनी चाहिए ।

दुसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बाबा के कार्य में सहभागी होने के लिए बाबा की प्रत्यक्ष आज्ञा का इंतजार न करते हुए स्वयं उनके कार्य में जुट जाना चाहिए । इन चारों ने ‘बाबा हमें आज्ञा देंगे, हमें बुलायेंगे, अपने कार्य में सहभागी होने को कहेंगे, तब हम जायेंगे’, इस तरह का विचार भी न करते हुए ‘बाबा पीस रहे हैं’ यह जानकारी मिलते ही तुरंत दौड़ते-भागते वहाँ पहुँचकर बाबा के हाथों से खूंटा छीनकर पीसना शुरू कर दिया । यहाँ पर इनका ‘जल्दी-जल्दी दौड़कर जाना’ और ‘खूंटा छीनकर पीसने लगना’ ये दो क्रियाएँ हमारे लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । बाबा उनसे लड़ने लगे फिर भी उन्होंने बाबा के कार्य में सहभागी होने का अपना निश्चय टूटने नहीं दिया । हमें भी अपने सद्गुरु के कार्य में सहभागी होते समय ऐसे ही रहना चाहिए । उत्तम शिष्य के लक्षण बताते हुए हेमाडपंत ‘प्रत्यक्ष आज्ञेलागी न खोळंबणे’ (सद्गुरु के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में आज्ञा दिये जाने का इंतज़ार न करते हुए उनका इशारा समझते हुए स्वयं कार्य करना) यह जो लक्षण बताते हैं, वह लक्षण इन चारों श्रद्धावान महिलाओं की तरह क्या हम में है? इसके बारे में हमें सोचना चाहिए ।

तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ‘क्यों’ यह प्रश्न उनके इस सभी कार्य में कहीं भी उठता हुआ दिखाई नहीं देता है । उन्होंने बाबा से वे ‘क्यों पीस रहे हैं’ यह भी नहीं पूछा । उसी प्रकार ‘आटे को गाँव की सीमा पर क्यों ड़ालना है?’ यह भी नहीं पूछा । इस साईनाथ से, सद्गुरुनाथ से ‘क्यों’ यह पूछना ही सबसे बड़ा प्रज्ञापराध है क्योकि इससे हम उनके न्यायी होने पर संदेह प्रकट करके (अविश्वास दिखाकर) हरि कृपा स्वीकर करने का रास्ता बंद कर देते है । ‘भगवान, मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ?’, ‘भगवान, मुझे ही यह सब ‘क्यों’ भुगतना पड़ा?’, ‘तुमने इस तरह होने ही ‘क्यों’ दिया?’, ‘मैं तुम्हारी इतनी भक्ति करता हूँ, फिर भी बाबा मुझ पर ऐसा बुरा समय ‘क्यों’ आने दिया?’ इस प्रकार के अनेक ‘क्यों’ हमें दलदल में धकेलते रहते हैं ।

इस सद्गुरुनाथ से ‘क्यों’ पूछना सर्वथा अनुचित ही है । सर्वप्रथम बात यह है कि ये मेरे साईनाथ न्यायी ही हैं और मेरे लिए जो उचित है वही वे मुझे दे रहे हैं, यह निष्ठा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । मैं जब ‘क्यों’ का प्रश्न उठाता हूँ उस समय मैं उनके न्यायी होने पर मैं संदेह प्रकट करता हूँ  । यह सर्वथा गलत ही है । दूसरी बात यह है कि साईनाथ से प्रश्न पूछने से पहले हमें यह सोचना चाहिए कि हमें यह प्रश्न पूछने का अधिकार दिया किसने है?

अब तक साईनाथ ने हमारे लिए इतना सबकुछ किया, तब तो हमने सादा धन्यवाद तक कभी नहीं कहा । उनके अनंत ऋणों को भुलाकर उलटे उनसे प्रश्न पूछने की मुझे हिम्मत ही कैसे हुई? तीसरी महत्त्वपूर्ण बात है- ‘क्यों’ का उत्तर यदि सद्गुरुनाथ ने दे दिया, तो वह इतना खतरनाक हो सकता है कि उसे सुनने की ताकत भी हममें नहीं होगी । हमने ही पिछले जन्म में ऐसा कुछ बुरा किया होगा कि जिसके फलस्वरूप यह भोग मेरे जीवन में आया है और वह भी मेरे इस सद्गुरुनाथ ने मेरे लिए बिलकुल सौम्य रूप में परिवर्तित करके मुझे दिया है । जहाँ पर मिरची खाकर मुँह जल जाने वाला था, मुँह में छाले पड़ जानेवाले थे, वहाँ पर मोटी फिकी मिरची खानी पड़ी । हमें तीखी मिरची खाने का हमारा भोग बहुत ही सौम्य करके हमें हमारे इस सद्गुरु ने दिया है, यह ध्यान में रखना चाहिए । सद्गुरु साई की इस कृपा को हम भूल जाते हैं और उलटे उन्हीं से ‘क्यों’ यह भोपाली मिरची मुझे खानी पड़ रही है, ऐसा पूछते हैं । कितना गलत व्यवहार करते हैं ना हम! इन चारों औरतों ने इस सहभाग में जो सबसे सुंदर कार्य किया है, वह है- ‘क्यों’ यह प्रश्न उनके मन को कहीं भी, ज़रा सा भी स्पर्श तक नहीं करता ।

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