श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग २१)

ORIGINAL SHIRDI SAIBABA MURTIहमें यदि सहज, सरल एवं सुंदर रूप से प्रेमप्रवास करना है, तो हमारे लिए केवल इस सद्गुरुतत्त्व के अलावा अन्य कोई मार्गदर्शक है ही नहीं, केवल ये साईनाथ ही हमारे समुद्धारकर्ता हैं, इस बात का हमें सदैव स्मरण रखना ज़रूरी है ।

दो हाथ एक माथा । स्थैर्य-श्रद्धा-अनन्यता । ना चाहे कुछ और साईनाथ । बस हो एक कृतज्ञता । – श्रीसाईसच्चरित

हम ने भक्तिमार्ग के श्रद्धा, सबुरी और अनन्यता इन तीन तत्त्वों का अध्ययन किया । जाँते के दो चक्के (तह) और ऊपर रहनेवाला खूंटा इनका निर्दशक रहनेवाले श्रद्धा, सबुरी और अनन्यता इन तीन तत्त्वों से ही परमार्थ सहज रूप से करना चाहिए यह बात हमें साईनाथजी ने बतायी है । इसीलिए हेमाडपंत ‘पीसनेवाला यही एक’ ऐसा कहते हैं । यानी परमार्थ इतना सहज सरल करके बतानेवाला केवल यही एकमात्र है । हमें यदि सहज सरल एवं सुंदर रूप से प्रेमप्रवास करना है, तो इस बात की मन में गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि हमारा उद्धार करनेवाला इस साईनाथ के सिवाय कोई और हो ही नहीं सकता है । हेमाडपंत कहते हैं- ‘गेहूँ पीसने का क्या आनंद । उनका उल्हास वे ही जाने ।’

हमारे लिए गेहूँ पीसने के परिश्रम करने में उन्हें क्या सुख मिलता है ये वे ही जानते हैं । अपने बच्चों के लिए गेहूँ पीसते समय माँ को जो सुख मिलता है, वह सिर्फ वह मैया ही जानती है । यहाँ पर हेमाडपंत हमसे प्रश्न पूछते हैं- यहाँ पर हमें यह सोचना चाहिए कि क्या हमने कभी बाबा को सुख देने का प्रयत्न किया है? हमारे साई हमें सुख प्राप्त हो इसके लिए स्वयं दिन-रात कितना परिश्रम करते हैं । स्वयं की किसी भी बात का विचार न करते हुए हमारे सुख के लिए अखंड मेहनत करते रहते हैं । हम बाबा को सुख मिले, बाबा को खुशी हो ऐसा आचरण भी यदि करे तो वह भी कम नहीं है । बाबा की सेवा करना, बाबा के लिए कुछ करना यह तो बहुत दूर की बात है । बाबा के लिए कोई क्या कर सकता है? बाबा ही सदैव हमारी सेवा करते हैं । परंतु हम कम से कम बाबा को अच्छा लगे, बाबा को खुशी हो ऐसा आचरण तो कर सकते हैं । परमात्मा के बच्चों की, दीन-दुखियों की, ज़रूरतमंद लोगों की, वृद्ध-अपाहिज़ों की सेवा तो कर सकते हैं । अपने किसी भी कार्य को करने से पहले मुझे सबसे पहले यह विचार करना चाहिए कि मेरे इस कार्य से बाबा को खुशी मिलेगी या नहीं?

मेरा यह कृत्य बाबा के नियमानुसार है या नहीं? मेरे किसी भी आहार, विहार, आचार एवं विचार से बाबा को कहीं दु:ख तो नहीं होगा? इन बातों के प्रति सावधानी रखना तो मेरे हाथो में निश्‍चित रूप से है ।

बाबा को गेहूँ पीसने न देकर बाबा की तकलीफ़ कम करने की इच्छा से और बाबा को सुख मिले ऐसा कुछ हमें करना चाहिए इस हेतु से दौड़ते-भागते द्वारकामाई में जानेवालीं और बाबा के हाथों से खूंटा झपटकर पीसने लगनेवालीं चारो औरतें यानी मेरे ही शरीर की चार वृत्तियाँ ।

1) आहार 2) विहार 3) आचार 4) विचार

हर किसी के परमार्थ का सफर आरंभ होता है, मूलाधारचक्र के इन चार दलों से ही । प्रथम अध्याय में इस गेहूँ पीसनेवाली कथा के माध्यम से, ‘इन स्त्रियों का बाबा के कार्य में प्रेमवश पूर्णत: सहभागी होना और बाबा के द्वारा गलती का एहसास करवाते ही सुधारने के लिए तत्पर रहते हुए बाबा की आज्ञा का अचूकता से पालन करना इन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्वों का मार्गदर्शन करना’ यही हेमाडपंत का हेतु है ।

मेर शरीर में रहनेवाली महामारी का नाश करने के लिए यानी हमारे दुख-भोग का नाश करने के लिए प्रारब्धरूपी बैरी को श्रद्धा-सबुरी के जाँते में रगड़ने के लिए जब ये मेरे सद्गुरु साईनाथ पीसने लगे हैं, इस बात का पता मुझे चलते ही यह स्वाभाविक है कि मैं शिरडी में हूँ ही यानी इस साईनाथ को सद्गुरु स्थान पर मानकर मुझसे जितनी बन पाए उतनी भक्ति करता रहता हूँ और जिस पल मुझे इस बात का पता चलता है, उसी क्षण तुरंत मेरे शिरडी के यानी मेरे देह के अन्तर्गत आनेवाली इन चारों स्त्रियों को यानी आहार, विहार, आचार एवं विचार इन चारों मूल वृत्तियों को दौड़ते-भागते द्वारकामाई में जाकर बाबा के कार्य में सहभागी हो जाना चाहिए ।

जिस भक्त के देह में यह गेहूँ पीसनेवाली कथा घटित होती है, उसके जीवन में आगे चलकर पूरा का पूरा श्रीसाईसच्चरित प्रवाहित होने ही वाला है, उसे ये साईनाथ अखंड रूप में मिलने ही वाले हैं । परन्तु इसके लिए सर्वप्रथम इस प्रथम अध्याय से शुरुआत होनी चाहिए ।     यह प्रथम अध्याय और इसके अन्तर्गत आनेवाली गेहूँ पीसनेवाली कथा यह हर एक भक्त के मानसिक स्तर पर घटित होना सर्वथा महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि एक बार यदि यह कथा घटित हो जाती है, फिर महामारी का डर रहता ही नहीं और भक्त आनेवाले जीवन में अपनी प्रगति वेग के साथ कर सकता है । इसके लिए आहार, विहार, आचार एवं विचार इन चारों स्त्रियों को यानी मूलाधार चक्र की चारों वृत्तियों को इस साईनाथ के प्रेमवश दौड़ते-भागते जाकर यानी अपनी पूर्ण क्षमता के अनुसार एवं उत्कटता के साथ इस साईनाथ के कार्य में सम्मिलित होना चाहिए और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि साई की आज्ञा का पालन करते हुए उनके नियमों का बाखूबी पालन करना चाहिए ।

मेरा आहार उचित होना चाहिए, विहार उचित होना चाहिए, आचार यानी आचरण उचित होना चाहिए और साथ ही विचार भी उचित होना चाहिए । इन सभी की उचितता यानी क्या और इन सब बातों को कैसे साध्य करना चाहिए, इसका विस्तारपूर्वक एवं सहज-सरल वर्णन श्रीअनिरुद्धजी ने श्रीमद्पुरुषार्थ द्वितीय खंड ‘प्रेमप्रवास’ में किया है और उसका पूर्णत: पालन करना यानी इन चारों स्त्रियों ने साई के गेहूँ पीसने के कार्य में सहभागी होने से लेकर उस आटे को साई की आज्ञा के अनुसार गाँव की सीमा पर डालने तक का काम करना यह सब साई की आज्ञा का पालन करना ही है । मान लीजिए कि आहार, विहार, आचार एवं विचार इन में मेरी असावधानी के कारण यदि कोई गलती हो जाये, जैसे उन चारों स्त्रियों के हाथों उस आटे को चार हिस्सों में बाँटने की गलती हुई थी, मगर तब भी बाबा के कहते ही आहार, विहार, आचार एवं विचार इनमें तुरंत ही सुधार कर लेना और श्रीमद्पुरूषार्थ ग्रन्थराज के मार्गदर्शन के अनुसार इन चारों बातों को रखना, यह पुरुषार्थ ही हमें महामारी से मुक्त करनेवाला है ।

गेहूँ पीसनेवाली इस कथा की उन चारों स्त्रियों का साईकार्य में सहभागी होना हमारे लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है; आहार, विहार, आचार और विचार इन चार मूलभूत घटकों की जीवन में रहनेवाली भूमिका हर एक भक्त के लिए महत्त्वपूर्ण है । मेरे जीवन में फिलहाल ये चारों स्त्रियाँ यानी ये चारों वृत्तियाँ कैसी हैं? वे बाबा के प्रेमवश बाबा की आज्ञानुसार एवं बाबा के नियमानुसार आचरण कर रही हैं क्या? मुझे इन चार वृत्तियों की वर्तमान स्थिति में उचित परिवर्तन करके उन्हें इस कथा के अनुसार आचरण करने के लायक बनाना है ।

दूसरे नज़रिये से देखा जाये तो आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चारों वृत्तियाँ हर किसी में होती ही हैं । पर मेरे अन्दर ये चारों वृत्तियाँ कैसी हैं? क्या आहार मात्रापूर्वक एवं उचित है? या फिर मैं अपने शरीर का शोषण अथवा अतिभक्षण कर के मर्यादा भंग कर रहा हूँ । निद्रा भोगी की नहीं बल्कि योगी की हो, जितनी ज़रूरत है उतनी ही हो । भय हो तो सिर्फ ‘परमात्मा के प्रति रहने वाला धाक’ इसी स्वरूप में हो और मैथुन भी सिर्फ मर्यादा के अनुसार ही हो । ये चार वृत्तियाँ सभी में मूलत: समान रूप में होती हैं, इसका प्रमाण साईसच्चरित में है ही । परन्तु वे सत्त्वगुण के आधिपत्य में हैं या रजोगुण के अथवा तमोगुण के आधिपत्य में हैं, इस बात की जाँच करना सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । बाबा के कार्य के आडे आनेवाली चारों वृत्तियाँ ही माया कहलाती हैं और बाबा के कार्य में पूरक रहने वाली चारों वृत्तियाँ ही शिरड़ी की वे चारों स्त्रियाँ हैं ।

अब हमारे जीवन में किसे स्थान देना है, माया को देना है या इन चारों स्त्रियों को देना है, इस बात का फैसला हमें स्वयं ही करना है । आहार, विहार, आचार एवं विचार ये चारों हो अथवा आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन ये चारों हो, हर बार हमें क्या करना है और क्या नहीं, इसका फैसला हमें सोच समझ कर करना चाहिए। ‘मेरा यह जो कार्य है, जिसे मैं कर रहा हूँ, वह मेरे साईनाथ के कार्य में बाधा डालेगा या फिर उसके अनुरूप होगा?’ यह सीधा-सादा प्रश्न स्वयं से पूछकर हम उचित-अनुचित का फैसला सहज ही कर सकते हैं और शिरडी की यह गेहूँ पीसनेवाली कथा, उसमें होनेवाली उन चारों स्त्रियों की भूमिका (किरदार) हम अपने जीवन में उतार सकते हैं ।

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