श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग १०) – भक्त का अधूरा काम साईनाथ पूरा कर देते हैं।

‘बाबा ने सीमरेखा पर आटा क्यों डलवाया?’ यह प्रश्न हेमाडपंत ने शिरडीवासियों से पूछा, तब उन्हें उन लोगों से सारी बात का पता चल जाने पर बाबा की इस अद्भुत लीला का आकलन हुआ।

फिर मैंने उनसे (शिरडीवासियों से) पूछा । बाबाने यह ऐसा क्यों किया।
महामारी को संपूर्णत: दूर कर दिया। लोगों ने यह कहा।
गोधूम नहीं बल्कि थी वह महामारी। मसलने को जाँते में बैरी।
उस चूर्ण को फिर सीमा रेखा। पर डलवा दिया।
आटा डाला गाँव की सीमा पर। वहीं से बीमारी को भगाया।
दुर्दिन दूर हुआ देखते ही देखते। यह कौशल साईबाबा का।
गाँव में थी महामारी फैली। करते ही यह ‘उपाय’ साईनाथ ने।
दूर हुआ बीमारी का डर। गाँव को मिली शांति॥

बाबा ने सच पूछा जाये तो ‘मांडू’ (महीन) पीसाई अर्थात वस्त्र से छाना जा सकने वाला आटा तैयार करने के लिए पीसाई शुरू की थी। चार औरतों ने उनके हाथों से जाँता झपटकर पीसना शुरू कर दिया, इस वजह से खुरदरा आटा तैयार हो गया। स्त्रियों के मन में गेहूँ पीसते समय जिस मोह का तूफान उठ रहा था, उसी के कारण यह खुरदरा आटा तैयार हुआ। बाबा को वस्त्र से छाना जा सकने वाला आटा पीसकर महामारी जैसी भयानक विसूचिका (हैजा) को दूर करना था, वही उन स्त्रियों के मन में वह आटा घर में रोटियाँ बनाने के लिए ले जाने की इच्छा थी। रोटी के लिए महीन आटे की ज़रूरत न होकर खुरदरा आटा ज़रूरी था और इसीलिए स्त्रियों ने आटा उसी तरह पीसा।

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‘महीन’ आटा नहीं बन सका था, खुरदरा आटा ही तैयार हुआ था, फिर भी उसी आटे के माध्यम से बाबा को जो कार्य करना था, वह महामारी को रगड़ने का कार्य बाबा ने किया ही। यही इस सद्गुरुनाथ की अकारण करुणा है।

साई के प्रेम में, साई की लीलाओं का गान करते हुए भक्तों की ओर से जो सेवा होती है, फिर उस सेवा में थोड़ा-बहुत लोभ होने के कारण कार्य का स्वरूप यदि उबड़-खाबड़ भी हो जाये, तब भी ये सद्गुरुनाथ अपनी अकारण करुणा के कारण उस कार्य के माध्यम से उन्हें जो परिणाम साध्य करना होता है, वह वे अचूकता से करते ही हैं। सच तो यह है कि महीन आटा केवल वे ही पीस सकते हैं, हम नहीं; यानी बैरी को मसलने का, महामारी का नाश वे ही कर सकते हैं, हम नहीं कर सकते। फिर हम क्या कर सकते हैं?

मेरे सद्गुरु स्वयं जो कार्य करने की ठान लेते हैं, उस कार्य में मैं अपनी पूर्ण क्षमता के अनुसार, प्रेमपूर्वक उसमें सहभागी हो सकता हूँ। एक सामान्य मनुष्य होने के नाते यह कार्य करते करते बीच में मेरे मन में भी लोभ उठ सकता है और इस वजह से मेरे सद्गुरु को, उनके उस कार्य में मुझसे जी अपेक्षा थी वैसा कार्य अब मुझसे नहीं हो सकता है। परन्तु अपने सामान्य भक्तों की अनजाने में हुईं ग़लतियों को ये साई भलीभाँति जानते हैं और इसीलिए नीतिमर्यादा एवं भक्ति के मूल उद्देश्य का बाल भी बाँका न होते हुए जो कुछ भी क्षम्य गलतियाँ भक्तों की ओर से जाने-अनजाने में हो जाती हैं, जानबूझकर नहीं, उन गलतियों को सुधारकर भक्तों का प्रवास उचित दिशा में कराते हुए ये सद्गुरु उस कार्य को पूर्णत्व की ओर ले ही जाते हैं।

हम यदि ‘इनके’ ही हैं और नीतिमर्यादा का ध्यान रखते हुए ‘इनसे’ यानी साईनाथ से अनन्यप्रेम करते हुए उनके द्वारा बताये गए पिपिलिका पथ पर से ही चल रहे हैं, तो फिर हमें घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। यदि कोई स्तोत्र कहते समय हमारा उच्चारण ठीक से नहीं होता है, कहीं कोई गलती हो जाती है, तो ‘अब क्या होगा’ यह कहकर घबराने की कोई ज़रुरत नहीं है। मेरे साईनाथ ने यह स्तोत्र, यह मंत्र मुझसे कहने को कहा है अथवा मेरे साईनाथ का यह स्तोत्र, यह मंत्र, यह उपासना में दिल से कर रहा हूँ, परन्तु मेरा संस्कृत उच्चारण अच्छा नहीं है इसलिए मेरे उच्चारण में गलती हो रही है।

ऐसे में जरा भी न घबराते हुए, प्रेमपूर्वक ठीक से उच्चारण करने की कोशिश करते हुए अपनी उपासना को करते रहना चाहिए। क्योंकि मेरे साईनाथ सब कुछ जानते हैं और मेरे संस्कृत के अल्पज्ञान को भी वे जानते ही हैं। इस वजह से मेरे उच्चारण में गलती हो सकती है, इस बात की जानकारी भी उन्हें होती ही है। मेरी ओर से इसे सुधारने की कोशिश चल रही है यह भी वे जानते हैं। मेरे बाबा, मेरे सद्गुरुनाथ मेरा ध्यान रखेंगे ही और मेरी गलतियों को सुधाकर मेरा विकास करने के लिए वे स्वयं ही मेरा मार्गदर्शन करेंगे। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि प्रेमपूर्वक बाबा पर पूरा विश्वास रखकर की गई मेरी इस उपासना में जो कुछ गलतियाँ हो भी जाती हैं, तब भी उसका कोई भी गलत परिणाम न होकर, उलटे इस उपासना से जो उचित परिणाम होना चाहिए, वह मेरे साईनाथ मुझे प्रदान करेंगे ही। जिस तरह उन स्त्रियों के गलती से महीन आटे की जगह खुरदरा आटा पीसा गया, तब भी उस खुरदरे आटे के द्वारा भी बाबा ने उन्हें जो करना था वह सर्वतोपरी किया ही। उस महीन (बारीक) आटे की जगह खुरदरा आटा पीसा गया इसलिए गाँव में फैली महामारी का समूल नाश करने का कार्य साध्य नहीं हो सका, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

इस कथा से सर्वप्रथम सरल भावार्थ सिद्ध होता है, वह यही है कि मैं अपने सद्गुरु के, अपने साईनाथ के कार्य में जब सम्मिलित होता हूँ, तब इस कार्य को करते समय, उपासना अथवा सेवा करते समय मुझसे कुछ गलतियाँ हो जाती हैं इस कारण वह कार्य जितना अच्छी तरह से होना था, वैसा न होकर थोड़ा-बहुत उबड़-खाबड़ रह जाता है, उसमें कुछ त्रुटियाँ रह जाती हैं। ऐसा मुझसे हो भी सकता है, यह जानकर मैं उस कार्य को करते समय प्रेमपूर्वक मन:पूर्वक अपने साईनाथ के प्रति अनन्य भाव रखकर, विश्वास एवं आस्था रखकर क्रियाशील रहूँगा। उसमें एकाग्रचित्त होकर करता रहूँगा। तब वह कार्य यदि त्रुटी युक्त होता भी है, तब भी मेरे साईनाथ उचित समय पर हस्तक्षेप करके उस कार्य का १०८% प्रतिशत उचित यश सिद्ध करते ही हैं। नीतिमर्यादा की लक्ष्मणरेखा का उल्लंघन जब तक मैं नहीं करता, तब कार्य करते समय अनजाने में जो कुछ भी गलती मुझसे होती है, उसे संभालने के लिए मेरा साईनाथ पूर्ण रूप से समर्थ है ही। इसीलिए इन छोटी-मोटी गलतियों के पीछे रोने-पीटने की बजाय, साई के सामने अपनी गलती कबूल करके फिर से वही गलती न हो इस बात का ध्यान रखकर हमें अपना प्रयास जारी रखना चाहिए। परमपूज्य अनिरुद्ध बापू कहते हैं – जो आदमी अपने जीवन में कुछ भी नहीं करता, उससे भला गलती भी कैसे होगी? लेकीन जो आदमी काम करते समय अपने गलतियों सें ही सीखकर  स्वयं को सुधारता है एवं साईनाथ के कार्य में अधिक से अधिक क्रियाशील रहता है, वही इस साईनाथ का सच्चा भक्त होता है।

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