श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ९)

सद्गुरु की ज़रुरत क्यों है? इसका उत्तर इस गेहूँ पीसनेवाली कथा में ही छिपा हुआ है। इन चार स्त्रियों के समान ही हम भी इसी प्रकार किसी भी कर्म का आरंभ तो अच्छी तरह से ही करते हैं, परन्तु आगे चलकर कर्म करते-करते यह फलाशा नामक राक्षसी अपने मन में प्रवेश कर मनमानी करने लगती है। फिर हमारा समतोल बिगड़ जाता है हम दिशाहीन हो जाते हैं और इसी स्थान पर सद्गुरु हमें गलत दिशा में भटकने से रोकते हैं, उचित दिशा दिखाकर मन का संतुलन बराबर करते हुए पुन: वे हमसे स्वधर्म पालन करवा लेते हैं। यदि सद्गुरु न हो तो उस फलाशा को नष्ट करके हमसे स्वधर्म पालन कौन करवायेगा? हमें ही हम कहॉं पर गलत हैं, भटक रहें हैं इस बात का पता भी नहीं चलेगा। हम सामान्य मनुष्य हैं इसलिए मन की थाह पाना नामुमकीन है, इसीलिए ‘जाणितो वर्म सकळांचे’ (जाणते हैं वे सबके मन की) ऐसे सद्गुरु का होना हमारे लिए बहुत ज़रुरी है। ‘सद्गुरु वाचोनी सापडेना सोय’ (सद्गुरु बिना कोई सहाराही नहीं) यह हमारे लिए १०८% प्रतिशत सत्य है।

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कल हमने देख कि चार स्त्रियों के मन की फलाशा किस तरह उनका मार्ग भ्रष्ट करती है और वही पर बाबा उनके मार्ग में खडे हो जाते हैं। आटे को चार हिस्से में बॉंटकर अपने घर ले जाने की तैयारी करते ही बाबा उनपर गुस्सा हो जाते हैं। यहॉं पर बाबा का जो शोध है वह फलाशा पर है। बाबा की इस क्रोधाग्नि में फलाशा जलकर राख (भस्म) हो जाती है। फिर बाबा इन्हीं स्त्रियों से उस आटे को गॉंव की सीमा के चारों ओर डलवा देते हैं। गेहूँ पीसकर हो चुका था फिर भीउस महामारी का निर्दलन करना बाकी था। यानी बाबा का कार्य अब तक पूरा नहीं हुआ था। बाबा ने महामारी को दूर करने के लिए स्वयं ही गेहूँ पीसने बैठ गए थे। उसी आटें को माध्यम बनाकर वे उस गॉंव में आने के कगार पर खडे बहुत बड़े संकट को दूर भगानेवाले थे। सद्गुरु जब ऐसा कोई कार्य सुरु करते हैं तब उस कार्य के पीचे उनका क्या उद्देश्य है इस बात का पता चलना किसी के लिए भी संभव नहीं, पर मेरे बाबा स्वयं यदि कोई कार्य हाथ में लेते हैं इतना तो निश्चित है कि उसका कोई उदात्त हेतु ज़रूर है और मैं सिर्फ साईराम का वानरसैनिक बनकर अपना कर्तव्य प्रेमपूर्वक पूरा करूँगा। फल की अपेक्षा नहीं करूँगा। स्त्रियों के आचरण में जो गलत है, उसे कभी न करने की और बाबा के प्रेम प्रति जो अत्यन्त उचित कर्म करती हैं, उसका सदैव स्वीकार करने की तैयारी हममे होनी चाहिए। उसी प्रकार बाबा यदि गुस्सा भी होते हैं तो उसमें भी मेरी ही कुछ भलाई है इस बात का पूरा विश्वास होना चाहिए। कारण मैं जब गलत दिशा की ओर अग्रसर होने लगता हूँ तब मेरे पतन के बीच आकर मुझे बचानेवाले सिर्फ मेरे ये साईनाथ ही हैं और ये साईराम अपना स्वधर्म सदैव पालते ही हैं वह भी बिलकुल बारीकी से। क्योंकि बाबा मुझसे प्रेम करते हैं, उनके अकारण करुणा के कारण ही बाबा यह सब कुछ करते ही रहते हैं, मुझे सिर्फ़ बाबा के प्रेम का स्वीकार करना होता है, बाबा के आदेश का पालन करना होता है। हमने प्रथम अध्याय के मुख्य कथा का आरंभ करने से पहले ही इस अध्याय के कथा के पहले हेमाडपंत ने ‘फलाशा का पूर्णविराम। काम्य त्याग का यही वर्मा करना नित्यनैमितिक कर्म। ‘शुद्धस्वधर्म’ यह नाम।’ इस पंक्ति को लिखने के पीछे उनका जो दृष्टिकोन था उसका अध्ययन किया। अब हम जिस कथा के कारण हेमाडपंत के हृदय में साईसच्चरित लेखन का उद्भव हुआ उस गेहूँ पीसनेवाली कथा उनके ही शद्बों में देखेंगे और फिर उसके भावार्थ का एवं मथितार्थ का अनंत भांडार भी प्राप्त करेंगे।

प्रथम कथन करता हूँ उस कथा का। श्रवण की जिए स्वस्थ चित्त होकर।
उसी से उद्गम इस साईसच्चरित का। हुआ कैसे फिर सुनियें।

– श्रीसाईसच्चरित

बाबा की हिस ‘अद्भुत’ लीला को देखकर हेमाडपंत के मन में श्रीसाईसच्चरित लेखन-इच्छा की गंगा प्रकट हुई, वहीं ‘गंगोत्री’ रुपी कथा का अब हम अध्यायन करेंगे। यह कथा जिस तरह श्रीसाईसच्चरित नदी का उद्गम है, उसी तरह यह ‘मुख’ भी है कारण यही पर हेमाडपंत की प्रेमनदी साईप्रेम सागर में विलीन हो गई। अब हम इस अत्यन्त हृदयस्पर्शी सुंदर प्रेमरुपी आल्हादक कथा का श्रवण करेंगे।

एक दिन प्रात: समय द्वारकामाई में दन्तधावन कर के मुँह धोंकर बाबा ने ‘मांडू’ (बारीक) गेहूँ पीसना आरंभ कर दिया। बिलकुल बारीक वस्त्रगाल आटा के लिए जो पीसते हैं, उसे ‘मांडू’ पीसाई कहते हैं। जाते में इस्द प्रकार का आयोजन किया था जिस से उसमें कम से कम गेहूँ ही डाला जा सके और पीसते रहने से बिलकुल महित आटा पीसा जा सके बाबा ने वस्त्र से चालने के लिए हाथ में एक सूप लेकर गेहूँ की गोनी से गेहूँ सूप में निकाल लिया और गोनते पर जाता रखकर पीसना आरंभ किया। पीसते समय उसमें ढिलापन न आये इसलिए बाबा ने खूंटे को और अधिक कसकर मज़बूत कर दिया। अस्तिन को ऊपर खींचकर, कफनी को ठीक से लपेटकर पैर पसारकर बाबाने गेहूँ पीसना आरंभ किया। बाबा को गेहूँ पीसते देख हेमाडपंत के मन में विचार आया कि बाबा ने आज यह गेहूँ पीसने को आरंभ आखिर क्यों किया? हेमाडपंत बाबा की यह लीला आश्चर्यचकित होकर निहारनें लगे। एक हाथ से खूंटा पकड़ दूसरे हाथ से गेहूँ जाते मैं डालकर गर्दन झुकाये पीसना आरंभ किया। वैसे तो संत बहुत सारे है परन्तु गेहूँ पीसनेवाला मात्र यही एकमेव परमात्मा साईनाथ ही है और गेहूँ पीसने का सुख एवं उससे मिलनेवाली खुशी वही जानता है बाबा गेहूँ पीसने बैठे है।

यह बात (खबर) देखते ही देखते पूरे गॉंव में फैल गई इससे गॉंव के स्त्री-पुरुष द्वारकामाई में आ पहुँचे। आश्चर्य तो सभी को हो रहा था पर बाबा यह क्यों कर रहे हो? यह पुछने की हिम्मत किसी को नहीं हो रही थी। इतने में बाबा के प्रेमवश चार स्त्रियॉं दौड़ते-भागते द्वारकामाई में आ पहुँची, उन्होंने बाबा के हाथोंसे खुंटा झपटकर ले लिया। बाबा उनके साथ झगड़ने लगे फिर भी उन्होंने बुरा नहीं माना। हमारे होते हुए हमारे बाबा कष्ट क्यों करेंगे? उनके मन में बाबा के प्रति होनेवाला प्रेम तिलमात्र भी कम न हुआ, उलटे बाबा की नारजगी पर उनका प्रेम और अधिक बढ़ गया। वे गेहूँ पीसते-पीसते बाबा के लीलाओं का वर्णन करनेवाले गीत गाने लगी। उन चार स्त्रियों का प्रेम देख बाबा का भी ‘ऊपरी’ गुस्सा शांत हो गया (झूठा गुस्सा / दिखावा करनेवाला) गुस्से का रुपांतर अब प्यार में बदल गया और बाबा गालों ही गालों में हँसने लगे।

पायलीभर गेहूँ पीसकर हो गया, सूप खाली है। गया और अब उन औरतों के मन में कल्पनाओं के महल बनने लगे। ‘बाबा स्वयं तो रोटी बनाते नहीं, वे तो भिक्षा मॉंगकर खाते हैं, फिर वे इतना सारा आटा लेकर क्या करनेवाले हैं? बाबा ठहरे बालब्रह्मचारी, उनका ना घर ना गृहस्थी, फिर इतने आटे की क्या ज़रूरत है? उन चारों में से एक ने कहॉं ‘बाबा परम कृपालु हैं’, हमारे लिए ही वह पीसने-पीसाने की लीला उन्हों ने रची है। यह सारा आटा वे हमें ही देनेवाले हैं।’ अब बाबा इस पीसे हुए आटे का चार भाग करके एक-एक भाग हमें ही दे देंगे। इस प्रकार की कल्पना उन चारों के मन में उठने लगी। बात यहीं पर खत्म नहीं होती अब उन लोगों ने सूप में सारा आटा भर लिया। जाता को दीवार से टीकाकर खड़ाकर दिया। और उस आटे को लेकर घर जाने के लिए निकल पड़ी। अब तक कुछ भी न बोअलनेवाले बाबा यह सब देख गरज पड़े और बोले, यह सब क्या तुम्हारे बाप का माल है जो फूकट में लूटकर ले जा रही हो? यह सारा आटा अभी का अभी लेजाकर गॉंव की सीमा के चारों ओर डाल दो। ये गेहूँ क्या मैंने तुमसे कर्ज़ के रुप में लिया था जो तुम ले चली हो? ऐसे कहा।

बाबा के बोल सुनते हीं स्त्रियों को अपनी गलती का अहसास हो गया और तुरन्त ही उन्होंने बाबा की आज्ञानुसार (शिवेंच्या ओढाकाठी) गॉंव के सीमा के चारों और उस आटे को ले जाकर डाल दिया। उसी क्षण से गॉंव में आने वाली महामारी की बीमारी वही पर थम गई। हेमाडपंतने अपने इसी निरीक्षण का उल्लेख यहॉं पर किया है। महामारी रुपी शत्रु को कुचलने के लिए बाबा ने यह्ह लीला की स्वयं गेहूँ पीसने की किया से आटा निर्माण कर उसे गॉंव की सीमा के चारों ओर डलवाकर, इस उपाय द्वारा पूरे गॉंव को एक महासंकट से बचाया। यह सारी अद्भुत लीला देखकर जिस लीला का कार्य-कारण-संबंध अचिन्त्य है, हेमाडपंत के मन का प्रेमसागर हिलोरे लेने लगा तथाअ बाबाकी ऐसी लीलाओं का संग्रह करना चाहिए ऐसी इच्छा कृपा से ही प्रकट हुई।

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