समय की करवट (भाग २२)- ‘अनुशासनबद्ध समूह’ संकल्पना का ‘ग्लोबलायजेशन’

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस अध्ययन में हमने भारत में हुए कई स्थित्यंतरों के बारे में संक्षेप में जान लिया। अब आज से हम भारत के अलावा अन्य देशों में हुए स्थित्यंतरों का संक्षेप में अध्ययन करनेवाले हैं।

सुविख्यात अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर
कई दशकों तक फैले एक बड़े कालखंड़ के दौरान अमरिकी विदेशी नीति तय करने में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करनेवाले सुविख्यात अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने सन १९९० में हुए पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद जारी किये सूचक बयान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं, जो ‘समय की करवट’ के विभिन्न पड़ावों को अधोरेखित करते हैं। लेकिन उस महत्त्व को समझने के लिए जागतिक परिस्थिति में हुए बदलावों को जान लेना ज़रूरी है।

हाल ही में एक साईट पर सुविख्यात अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने सन १९९० में हुए पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद जारी किये सूचक बयान पढ़े –

‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’

कई दशकों तक फैले एक बड़े कालखंड़ में अमरिकी विदेशी नीति तय करने में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करनेवाले हेन्री किसिंजर के बयानों का महत्त्व है ही।

लेकिन उस महत्त्व को समझने के लिए जागतिक परिस्थिति में हुए बदलावों को जान लेना ज़रूरी है।

सोलहवीं सदी से दुनिया के व्यवहार में केंद्रस्थान में रहनेवाले और दुनिया के कोने कोने में अपने अपने साम्राज्य फैलानेवाले युरोप खंड के देशों का महत्त्व दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद कम हुआ। यह युद्ध ब्रिटन और दोस्तराष्ट्रों ने, युद्ध के आख़िरी पड़ाव में उनके पक्ष में युद्ध में उतरी अमरीका के बलबूते पर भले ही जीत लिया हो, मग़र फिर भी उन्हे, ख़ासकर ब्रिटन को इस जीत की प्रचंड बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी। पूरी दुनियाभर में ही साम्राज्य फैला हुआ होने के कारण, ‘ब्रिटीश साम्राज्य पर का सूरज कभी भी ढलता नहीं’ ऐसी शेखी हमेशा बघारनेवाला ब्रिटीश साम्राज्य, दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ख़ोख़ला होकर आख़िरी साँसे गिनने लगा। दुनिया को संसदीय राज्यप्रणाली का परिचय करानेवाले और दुनिया के पहले जनतंत्र होने का ढिंढ़ोरा पीटनेवाले ब्रिटन ने कपटपूर्वक, ख़ौफ़ जमाकर अपने कब्ज़े में कर लिये दुनिया भर के प्रदेशों को जनतंत्र की भनक तक लगने नहीं दी, दमनतंत्र का इस्तेमाल कर उन्हें हमेशा अपनी एढ़ी के नीचे दबाकर ही रखा; उनमें संघभावना का बीज कभी नहीं बोया। लेकिन सौ-डेढ़सौ-दो सौ साल ब्रिटन की ग़ुलामी सहनेवाले देशों में स्वतंत्रतासंग्राम कई वर्षों से शुरू ही थे। लेकिन दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद की ब्रिटन की नाज़ूक परिस्थिति का फायदा उठाकर कई देशों में आज़ादी के लिए कड़ीं लड़ाइयाँ हुईं और दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद कुछ ही सालों में ब्रिटीश साम्राज्य में होनेवालें भारत सहित कई राष्ट्र स्वतंत्र होकर ‘ग्रेट ब्रिटन’ यह लंडन, वेल्स, स्कॉटलंड तथा उत्तर आयर्लंड इन काऊंटीज़ तक और दुनिया के कुछ भागों में थोड़ेबहुत बचेकुचे निवेशों तक ही सीमित रहा। अँग्रेज़ों ने इन देशों को संसाधनों पर डाका डालते हुए भी, वहाँ के लोगों को मूलभूत मानवाधिकार भी न दिये होने के कारण और हमेशा हीन दर्ज़े के मानकर गुलाम की तरह पेश आने के कारण, वहाँ के लोगों ने ब्रिटीश साम्राज्य को कभी ‘अपना’ माना ही नहीं। इस कारण मूलतः ब्रिटीश लोग हालाँकि अनुशासनप्रिय थे, मग़र फिर भी ब्रिटीश साम्राज्य कभी भी शिस्तबद्ध समूह बन ही नहीं सका।

दूसरे विश्‍वयुद्ध का पराजित राष्ट्र जर्मनी के सन १९४६ के समझौते के तहत, पहले प्रशासन की सहूलियत के लिए चार भाग किये और एक एक भाग ब्रिटन, अमरीका, फ़्रान्स  तथा सोव्हिएत रशिया ने बाँट लिया। बाद के तीन-चार सालों में ब्रिटन, अमरीका एवं फ़्रान्स  के प्रशासन में रहनेवाले भागों को एकत्रित किया गा और उनका एक देश बनाकर उसे ‘पश्चिम जर्मनी’ नाम दिया गया। सोव्हिएत रशिया के कब्ज़े में रहनेवाले भाग का अलग देश बनाकर उसे ‘पूर्व जर्मनी’ नाम दिया गया। उसने रशिया की तरह ही कम्युनिस्ट राज्यपद्धति का स्वीकार किया। पूर्व एवं पश्चिम जर्मनी ऐसे दो टुकड़ें कर विजयी दोस्तराष्ट्रों (‘अ‍ॅलीज्’) ने अपनी विजय मनायी।

कई छोटे-बड़े देशों से बना युरोप महाद्वीप….उसके कई देश पूर्वापार ताकतवर, तो कुछ देश कम ताकतवाले। लेकिन दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद सभी देशों को अपरिमित हानि का सामना करना पड़ा। फिर भी पश्‍चात्समय में धीरे धीरे युरोप महाद्वीप के देश, इंडस्ट्री और टूरिझम इन दो क्षेत्रों के बलबूते पर पुनः अपनी फिसली हुई आर्थिक गाड़ी पटरी पर ले आये।

लेकिन आगे चलकर बीसवीं सदी के अन्त में आयी आर्थिक मंदी (रिसेशन) ने परिस्थिति पुनः बिगड़ गयी और बदलते हालातों का समूह से मुक़ाबला करना युरोपीय देशों को ज़रूरी प्रतीत होने लगा। इस ज़रूरत में से ही युरोपीय महासंघ का जन्म हुआ, उन्होंने अपने लिए ‘युरो’ इस एकसमान मुद्रा का स्वीकार किया।

जेता राष्ट्रों ने थोंपा हुआ ‘बँटवारा’ मिटाने के लिए कई साल बीतने पड़े। सन १९४६ में हुए जर्मनी के दो टुकड़ें जोड़ने के लिए सन १९९० तक इन्तज़ार करना पड़ा। सन १९९० में दोनों जर्मनियों में हुए ऐतिहासिक समझौते के अनुसार, दोनों देशों के बीच निर्माण की गयी दीवार तोड़ी जाकर जर्मनी का एकत्रीकरण किया गया।

अर्थात् ब्रिटीश साम्राज्य के टुकड़ें हुए और बिखरे हुए युरोप महाद्वीप के देशों का युरोपीय महासंघ बन गया; वहीं, दो देशों में बँटे जर्मनी का पुनः एक देश हो गया और इसलिए अधिक सामर्थ्यवान बन गया।

इस उदाहरण से हम क्या देखते हैं? तो बदलते हालातों में अनुशासनबद्ध समूह के रूप में काम करने की ज़रूरत दुनिया के सभी देशों को प्रतीत हो रही है। मानवी समाज में झुँड़ और अनुशासनबद्ध समूह दोनों पूर्वापार चलते आये हैं। लेकिन युरोपीय महासंघ और जर्मनी के उदाहरण से सीखकर ‘अनुशासनबद्ध समूह’ इस संकल्पना को ‘फॉर्मली’ अपनाने की ज़रूरत आज दुनिया को महसूस हो रही है। ‘अनुशासनबद्ध समूह’ इस संकल्पना का ‘ग्लोबलायझेशन’ हो चुका है। भारत को आज़ादी मिली, वह प्रक्रिया कई पड़ावों में बँटी थी। देशभर में फैलीं छः सौ से भी अधिक रियासतों का टूटाफूटा ‘फ़ेडरेशन’ बनाने का प्रस्ताव भी अँग्रेज़ों ने चालबाज़ी से सामने रखा था। लेकिन हमारे समाज के दिग्गजों ने उस चाल को नाक़ाम कर दिया, क्योंकि केवल स्वार्थ के लिए एकत्रित हुआ यह फ़ेडरेशन बिखर जाने में बिलकुल देर नहीं लगती थी। सारी रियासतें विलीन करने के बाद ही एकसंध भारत का निर्माण हुआ।

यह सारा इतिहास हमने पढ़ा हुआ होने के बावजूद भी और ये बातें हमारी आँखों के सामने घटित हो रही होने के बावजूद भी हम भारतीय और कितने समय तक खुद को अपने देश से अलग मानने की वृत्ति रखनेवाले हैं? देश पर आया संकट यह क्यों मुझे खुद पर का संकट प्रतीत नहीं होता? क्योंकि मैंने कभी संघभावना अपनायी ही नहीं, इसलिए।

अब तो सुधर जाते हैं!

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