समय की करवट (भाग ११) – द ग्रेट इंडियन मिड्ल क्लास

 ‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

भारत ने संरक्षित नीति का त्याग कर ग्लोबलायझेशन की हवा भारत में बहने दी। ऐसे कुछ साल (विदेशी कंपनियों के) अच्छे गये।

आगे चलकर वैश्‍विक मंदी शुरू हुई। उस बवंडर में, अभी अभी तक दुनिया पर अधिराज्य करनेवालीं जागतिक अर्थसत्ताएँ खोखली होकर गिरने लगीं। बहुत ही थोड़ीं अर्थव्यवस्थाएँ ‘येनकेनप्रकारेण’ टिककर रह सकीं। लेकिन उनकी नींव अब उतनी मज़बूत नहीं रही थी। उसके कुछ साल पहले युरोप के (इंग्लंड को छोड़कर बाक़ी) देश एकत्रित होकर उन्होंने बड़ी उम्मीद के साथ युरोपीय महासंघ का निर्माण किया था, महासंघ के सभी देशों की एक ही एक ऐसी ‘युरो’ मुद्रा का स्वीकार किया था, उनमें से ग्रीस, स्पेन आदि कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं को इस ‘वैश्‍विक मंदी’ के बवंडर ने मुँह के बल गिरा दिया था।

परिणामस्वरूप आंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के भारत के बाहर के स्रोत कम हो गये। भारत, जो अब तक उनके लिए ‘जस्ट अनदर’ मार्केट था, वह अब ‘पर्चेसिंग पॉवर’ रहनेवाला एकमात्र मार्केट शेष बचा था। ऐसा क्यों हुआ? कारण था – भारत में बढ़ रही मध्यमवर्गियों की संख्या।

मध्यमवर्गीय….अभी अभी तक जिस शब्द का इस्तेमाल ‘मिड्लक्लास मेंटॅलिटी’ वगैरा वगैरा संदर्भ में उपमर्दकारक रूप में किया जाता था, वह अचानक ‘तारकमंत्र’ कैसे बन गया? मध्यमवर्गीय के बारे में ऐसा कहा जाता था कि ना वह पैसे के बलबूते पर जो चाहे वह हासिल कर सकता है और ना ही ग़रीबों की तरह सड़कों पर उतरकर आंदोलन करके अपनी माँगों को पूरा करवा सकता है। दोनों तरफ़ से थप्पड़ खानेवाले मृदंग (ढोलक) की तरह इसकी हालत हो जाती थी। शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व देनेवाले मध्यमवर्गियों का अंतिम ध्येय शायद ही कभी – अपना खुद का कारोबार/व्यवसाय यह रहता है; आम तौर पर पहले ज़माने में सरकारी नौकरी और बाद के मंदी के ज़माने में (झीरो-बजट के दौर में) कोई भी नौकरी यह उनका अंतिम लक्ष्य रहता था।

यहाँ पर मध्यमवर्गीय यानी केवल ‘पैसे से मध्यम दर्ज़े का’ ऐसी नहीं है, बल्कि वृत्ति से मध्यमवर्गीय। ‘मध्यमवर्गीय’ यानी जो किसी भी मामले में प्रायः संघर्ष न करते हुए सुवर्णमध्य (बीच का मार्ग) निकालकर जितना हो सके उतना प्राप्त कर लेनेवाला; अधिकांश बार बिना संघर्ष के, सुवर्णमध्य निकालकर मामला सुलझाने की वृत्ति रहने के कारण कई बार अन्याय का सामना करना पड़नेवाला। मग़र फिर भी, ‘इस मध्यमवर्गीय को अधिक भड़काया न जायें’ इस सूत्र का भारत में बारिक़ी से पालन किया जाता है। क्योंकि कई बार इस मध्यमवर्गीय क्लास ने चुनावों में ‘अनपेक्षित’ घटित कराया है। लेकिन इसके बावजूद भी, अधिकांश रूप में तुच्छ समझा जानेवाला भारतीय मध्यमवर्गीय अचानक से जागतिक कंपनियों के ‘गले का हार’ कैसे बन गया?

यह स्थित्यंतर तो बिलकुल हमारी आँखों के सामने ही हुआ है। इसे समझने के लिए, गत कुछ महीनों में प्रकाशित हुईं कुछ ख़बरों पर नज़र डालते हैं।

कुछ महीने पहले एक-दो ख़बरें प्रकाशित हुई थीं।

उस समय आंतर्राष्ट्रीय मार्केट्स में चढ़ते जानेवाले ईंधन के दामों की इस वृद्धि का कारण कुछ ‘अर्थ’विशेषज्ञों ने ऐसा दिया था कि ‘१९९० के दशक के बाद भारत और चीन में मध्यमवर्गियों की मात्रा बढ़ी हुई होने के कारण उन देशों में मक्कई (कॉर्न) खाने का प्रमाण बढ़ गया है। इस कारण, जिनमें कॉर्न का उपयोग किया जाता है, ऐसे ईंधनों के दाम बढ़े हैं।’

दूसरी एक ख़बर के अनुसार, ‘भारत और चीन के इस बढ़ते मध्यमवर्ग के कारण इन देशों में गाड़ियों की बिक्री का प्रमाण बढ़ गया है, जिसके कारण ईंधन का इस्तेमाल अत्यधिक रूप में बढ़ा होने के कारण ईंधन की क़ीमतें बढ़ी हुई हैं।

अर्थात्, इन दो खबरों के अनुसार, ईंधन की भड़की हुईं क़ीमतों के लिए भारत के मध्यमवर्गीयों को ज़िम्मेदार ठहराया गया था।

वहीं, अब कुछ दिन पहले आयी यह ख़बर देखिए।

आर्थिक मंदी में से बाहर निकलने के लिए अमरिकी उद्योगक्षेत्र भारत एवं चीन के प्रचंड बड़े मध्यमवर्ग के ज़ोरदार पीछे पड़ जायें और अमरीका के लिए नौकरियों का निर्माण करें, ऐसा अमरिकी राष्ट्राध्यक्ष बराक ओबामा ने ‘अमेरिकन चेंबर ऑफ़ कॉमर्स’ को संबोधित करते हुए किये अपने भाषण में कहा था।

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भारतीय मध्यमवर्ग पर जागतिक कंपनियों की नज़र पहले से ही है। यह बात अब ओबामा ने केवल अधोरेखित की है बस्स; और जिस अमरिकी उद्योगक्षेत्र को ओबामा भारत में अधिक निर्यात करने का मशवरा दे रहे हैं, उसमें स्वाभाविक रूप में ऑटोमोबाईल उद्योग भी है ही! जागतिक ऑटोमोबाईल उद्योग ने, भारत के लोगों की ‘पर्चेसिंग पॉवर के अनुसार’ अपनी प्राथमिकता (प्रायॉरिटी) बदलते हुए, भारत में छोटी गाड़ियाँ बेचने पर ज़ोर देने के लिए कब की शुरुआत की है। अमरिकी, जर्मन, जॅपनीज्, कोरियन, इटालियन, ब्रिटीश ऐसे सभी देशों की बड़ी कंपनियों ने भारत के लिए अपना ‘बड़ापन’ छोड़ते हुए छोटी गाड़ियों का निर्माण करना शुरू किया है; और भारत के मध्यमवर्ग को रहनेवाले, अमरिकी स्टाईल की मॉलसंस्कृति के आकर्षण को देखते हुए इन कंपनियों का यह क़दम ग़लत हो ही नहीं सकता, ऐसे आसार दिखायी दे रहे हैं।

इस कारण, ‘भारत में और ज़ोर से बिझनेस कीजिए’, इसमें – ‘और ज़ोर से गाड़ियाँ बेचिए’ यह संदेश भी अभिप्रेत है ही। इससे भारत एवं चीन में ईंधन की माँग और बढ़ेगी। परिणामस्वरूप आंतर्राष्ट्रीय मार्केट में ईंधन के दाम बढ़ जायेंगे। यानी फिर उसके लिए ज़िम्मेदार भारत का मध्यमवर्ग ही। यक़ीनन ही। क्योंकि भारत में बढ़ता हुआ मध्यमवर्ग….उससे बढ़ी हुई पर्चेसिंग पॉवर….जिससे गाड़ियों की बढ़ती माँग….  ….  …. वही टेप पुनः सुनना पड़ेगा।

अरे, और कितने दिन हम दुनिया की ये बातें सुनकर लेनेवाले हैं? दुनिया हमें अपने हिसाब से मानकर चल रही होकर (टेकन फॉर ग्रान्टेड) भी, हम दुनिया को ऐसा करने की अनुमति देते हैं, क्या यह दुनिया की ग़लती है?

यह महज़ मध्यमवर्ग ही नहीं, बल्कि कुल मिलाकर भारतीय ग्राहक ही दरअसल कई बातें कर सकता है। ‘है’ को ‘नहीं है’ बना सकता है, है ना?

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