श्‍वसनसंस्था – १५

श्‍वसन कार्य, प्रत्येक साँस के साथ अंदर-बाहर करनेवाली हवा की मात्रा और उसका महत्त्व हमने देखा। श्‍वसन मार्ग से फेफड़ों में आनेवाली और बाहर जानेवाली हवा का महत्त्व क्या है? फेफड़ों में जहाँ वायु का आदान-प्रदान होता है और जहाँ पर फेफड़ों की पेशियों के बिलकुल नज़दीक फेफड़ों की रक्तवाहनियाँ होती हैं, वहाँ तक लगातार नयी एवं ताजी हवा का पहुँचाना ही श्‍वसन का महत्त्वपूर्ण कार्य है, उद्देश्य है। वायु का आदान-प्रदान सिर्फ अलविओलाय, अलविओलर सॅक्स (थैली) अलविओलर डक्ट और ब्रोंकिओल्स में ही होता है। प्रत्येक मिनट में जितनी नयी हवा यहाँ पर पहुँचती है, उसे अलविओलर वेंटिलेशन कहते हैं।

श्‍वसन क्रिया की सबसे मजेदार बात अब हम देखनेवाले हैं। नॉर्मल धीमी श्‍वसन में हम जितनी हवा अंदर लेते हैं (टाइडल वॉल्युम) उसमें से ज्यादातर हवा श्‍वसनमार्ग के भरने में ही लग जाती है। यह हवा ज्यादा से ज्यादा छोटी ब्रोंकिओल तक ही पहुँचती है। बिलकुल थोड़ी से हवा अलविलोय तक पहुँचती है। अब प्रश्‍न उठता है कि वायु का आदान-प्रदान कैसे होता है? अलविलोय में नयी ताजी हवा कैसे पहुँचती है? इसका सरल उत्तर है डिफ्युजन के कारण। किनारे के ब्रोंकिओेल्स से लेकर अलविलोस तक का अंतर काफी कम होता है। साथ ही साथ श्‍वास के द्वारा अंदर आयी हुयी हवा में उपस्थित वायु के अणु अत्यंत तेज़ी से गति करते हैं। फलस्वरूप यह छोटासा अंतर वायु के अणु आसानी से पार कर लेते हैं और अलविओलस तक पहुँच जाते हैं। इस संपूर्ण क्रिया में काफी कम समय लगता है। कम यानी एक सेकेंड़ से कम समय में यह क्रिया पूर्ण हो जाती है।

श्‍वसन मार्ग, वायु का आदान-प्रदान, ब्रोंकिओल्स, फेफडे, श्‍वसन क्रिया, शरीर, रेस्पिरेटरी वॉल्युमहमने देखा कि प्रत्येक श्‍वास के साथ अंदर ली गयी हवा में से ज्यादा तर हवा श्‍वसन मार्ग में ही रहती है। वायु के आदान-प्रदान में यानि अलविलोर वेंटिलेशन में इस हवा का सहभाग नहीं होता है। श्‍वसन मार्ग के जितने भाग में यह हवा रहती है उसे डेड स्पेस (मृत अवकाश) कहते हैं और उसमें उपस्थित हवा को डेड स्पेस एअर कहते हैं। प्रत्येक श्‍वास के साथ हम लगभग १५० मीली हवा यह डेड स्पेस हवा होती है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक श्‍वास में सिर्फ ३५० हवा में वायु का आदान-प्रदान होता है। उच्छ्वास के दरम्यान यह डेड स्पेस एअर बाहर निकलती है और उसके उपरान्त फेफड़ों की हवा बाहर निकलती है। डेड स्पेस एअर की मात्रा उम्र के अनुसार बढ़ती रहती है।

अ‍ॅनाटोमिक डेड स्पेस :

श्‍वसन के दरम्यान श्‍वसन संस्था के जिन-जिन भागों में वायु का आदान-प्रदान नहीं होता है, उन भागों को अ‍ॅनाटोमिक डेड स्पेस अथवा श्‍वसन संस्था की रचना का मृत अवकाश कहते हैं।

फिजिऑलॉजिक डेड स्पेस : 

कभी-कभी हवा के अलविओलस में पहुँचने के बावजूद भी वायु का आदान-प्रदान नहीं होता है। अलविओलस का आकार, अलविओलस में से होनेवाले रक्तप्रवाह के पूरी तरह रुक जाना अथवा अत्यंत कम होना इत्यादि विभिन्न कारणों से ऐसा होता है। ऐसी निष्क्रिय अलविओलस और श्‍वसन मार्ग यानी अ‍ॅनाटोमिक डेड स्पेस मिलकर फिजिऑलॉजिक डेड स्पेस बनता है। नॉर्मल, तंदुरुस्त व्यक्ती में अ‍ॅनाटोमिक एवं फिजिऑलॉजिक डेड स्पेस समान होते हैं, क्योंकि ऐसे व्यक्ति के सभी अलविओलस कार्यरत रहते हैं। फेफड़ों के विकार के समय ये फिजिऑलॉजिकल डेड स्पेस दस गुना बढ़ जाता है। अर्थात फेफड़ों की कुल हवा में से ५ से २ लीटर हवा श्‍वसन कार्य में प्रत्यक्ष रूप से सहभागी नहीं होती।

पिछले लेख में हमने देखा कि मिनट रेस्पिरेटरी वॉल्युम कितना होता है। उसी प्रकार से अब हम देखेंगे कि अलविलोर वॉल्युम कितना होता है। टाइडल वॉल्युम ५०० मिली, डेडस्पेस वॉल्युम १५० मिली और श्‍वसन की रेट १२ मान लें तो मिनट अलविलोर वॉल्युम १२ X (५००-१५०) = ४२०० मिली / मिनिट होती है। इसे अलविलोर वेंटिलेशन रेट भी कहते हैं। किसी व्यक्ति का अलविलोर वेंटिलेशन रेट यानी उस व्यक्ति के लिए वायु के आदान-प्रादान के लिए प्रत्येक मिनट में उपलब्ध हवा होती हैं।

श्‍वसन का अहम उद्देश्य है, वायु का आदान-प्रदान और वायु का आदान-प्रादान अलविओलाय में ही होता है। इसी लिए यदि इस दृष्टि से विचार करें तो पता चलता है कि कुल श्‍वसन की तुलना में अलविओलर श्‍वसन ही महत्त्वपूर्ण है। इस बात का अध्ययन हम अगले लेख में करेंगे।

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