श्‍वसनसंस्था

‘श्‍वास-उच्छ्श्‍वास अवघा तुझा, तूचि चालवावे प्राणा।’ भक्तमाता की आरती लिखते समय कवि ने कितना अचूक वर्णन किया है ना! ‘श्‍वासोच्छ्श्‍वास अवघा तुझा’ यानी श्‍वास (साँस लेना) और उच्छ्श्‍वास (साँस छोड़ना) दोनों आपके ही हैं यानी आपकी वजह से ही चलते हैं और उस श्‍वास पर ही मेरे प्राण, मेरा जीव कार्यरत है। तात्पर्य यह है कि मेरे प्राण अथवा जीव, हे माता, आप ही चला रही हो! उपरोक्त वाक्य का हम बिलकुल सादा, शब्दार्थ देख रहे हैं। यहाँ पर श्‍वास का विषय चल रहा है यानी आज से हम अपनी श्‍वसनसंस्था के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।

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श्‍वासोच्छ्वास यानी श्‍वास और उच्छ्श्‍वास नामक दो क्रियायें। हवा को अथवा वायु को ग्रहण करना (Inhale) और हवा को शरीर के बाहर निकालना (Exhale)। श्‍वास लेते समय हम शुद्ध हवा अंदर लेते हैं और उच्छ्श्‍वास के दौरान हम अशुद्ध हवा शरीर के बाहर निकालते हैं। माँ के गर्भ से बाहरी संसार में आ जाते ही अर्भक रोने की आवाज के साथ पहला श्‍वास लेता है। तदुपरांत श्‍वासोच्छ्श्‍वास से संबंधित दो समान सूत्र पाये जाते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक का श्‍वास सतत, अविरोध चलता रहता है। उसके लिए हमें कुछ प्रयास भी नहीं करना पड़ता। अपने दैनंदिन जीवन में हमें इस बात का ध्यान भी नहीं रहता कि हम श्‍वास ले रहे हैं। यह पहला सूत्र। दूसरा सूत्र यह कि निरंतर चलनेवाली श्‍वासप्रक्रिया पर हमारा नियंत्रण कहीं पर भी नहीं होता।

उपरोक्त दोनों सूत्रों के बारे में सविस्तर जानकारी लेते हैं। श्‍वास पर हमारा कंट्रोल अथवा नियंत्रण नहीं होता है। इस पर कोई कह सकता है कि यह सत्य नहीं हैं। एक मिनट में कितनी बार श्‍वास लेना है, कितनी देर तक श्‍वास रोककर रखना है, ऐसा मैं तय करके कर सकता हूँ। सत्य है। एक मिनट में किती बार श्‍वास लेना है यह मैं तय करके कर सकता हूँ। परन्तु उसके लिए मुझे प्रयास करना पड़ेगा, कष्ट उ़ठाना पड़ेगा। मेरा जो श्‍वास बिना प्रयास के, सहजतापूर्वक चल रहा है, उसे मुझे प्रयत्नपूर्वक बदलना पड़ता है। भला क्या ऐसा प्रयास हमेशा के लिए उपयोगी होता है? क्या मैं मेरी श्‍वास मेरी इच्छा के अनुसार हमेशा मेरे नियंत्रण में रख सकता हूँ? हम एक उदाहरण देखते हैं। मान लो कि एक व्यक्ति ने तय किया कि आज से मैं एक मिनट में सिर्फ़ २० बार ही श्‍वास लूँगा और उसी के अनुसार उसने गिनकर श्‍वास लेना शुरु कर दिया। तय सीमा में श्‍वास लेने के लिए उसे अपना सारा ध्यान श्‍वास पर ही केन्द्रित करना पड़ेगा। अन्य सभी कार्यों को छोड़कर प्रतिमिनट श्‍वास की गिनती करने का काम ही उसके लिये शेष रहेगा, यह तो उसकी जागृति अवस्था की बात है। सोते समय वो क्या करेगा? सोते समय उसका यह प्रयास रुक जायेगा। यानी उस व्यक्ति के लिये नींद लेना भी असंभव हो जायेगा। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि जो क्रिया बिना प्रयास के, अव्याहत चल रही हैं, उसे ‘मेरे’ नियंत्रण में लाने के लिये मुझे प्रयास करना पड़ता है। परन्तु मेरा यह प्रयास अंतत: हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण साबित होता है।

मैं, मेरा श्‍वास जब मैं चाहूँ और जितनी देर तक मैं चाहूँ रोककर रख सकता हूँ। यह दूसरी गलतफ़हमी है। श्‍वास मैं जब चाहूँ तब रोककर रख सकता हूँ, यह आधा भाग ही सत्य है। परन्तु उसके लिये भी मुझे प्रयास करना पड़ता है। मैं जितनी देर तक चाहूँ श्‍वास रोककर रख सकता हूँ, यह सही नहीं है। श्‍वास रोकने की मेरी क्षमता मैं कई चरणों में, प्रयत्नपूर्वक बढ़ा सकता हूँ। परन्तु इसकी भी एक सीमा है। उस सीमा से ज्यादा देर तक मैं श्‍वास नहीं रोक सकता। कुछ छोटे बच्चे भी रोते समय अपना श्‍वास रोक लिया करते हैं। परन्तु उस अवस्था में कुछ समय (आधा से एक मिनट) रहने के बाद बच्चे का श्‍वास फ़िर से शुरु हो जाता है। इसका कारण यह है कि श्‍वास रोककर रखने पर उसका नियंत्रण समाप्त हो जाता है। ऐसा क्यों होता है?

जब हम श्‍वास रोककर रखते है तो उतने समय के लिए प्राणवायु की आपूर्ति बंद हो जाती है। मस्तिष्क में प्राणवायु की मात्रा कम हो जाती है और कार्बनडाय ऑक्साईड की मात्रा बढ़ जाती है। हमारे मष्तिष्क में श्‍वसन पर नियंत्रण रखनेवाला केन्द्र होता है। इस केन्द्र की पेशियों में प्राणवायु की मात्रा कम होने पर (इसे वैद्यकीय परिभाषा में Hypoxia कहते हैं) ये पेशियाँ कार्यरत हो जाती हैं और उनसे मिलनेवाले संदेश श्‍वसन पुन: शुरू कर देते हैं। यानी मेरे द्वारा रोककर रखी गयी साँस पर से मेरा नियंत्रण समाप्त हो जाता है और अनायास ही ‘उस’ शक्ति के नियंत्रण में कब कब चला जाता है, इसका पता मुझे भी नहीं चलता। श्‍वास को रोककर मैं अपने ही प्राणों के लिये खतरा निर्माण करता हूँ। परन्तु ‘वो’ जगन्माता ऐसा नहीं होने देती। वो सँभाल लेती हैं। इसीलिए कवि कहता है, ‘तूचि चालवावे प्राणां।’

मेरा श्‍वास अविरोध चलता रहता है, इसी लिए मुझे इसका पता तक नहीं चलता। यदि किसी विकार के कारण मेरी श्‍वसन क्रिया में विरोध निर्माण होता है, मेरे श्‍वास में बाधा उत्पन्न होती है, तभी मुझे मेरे श्‍वासोच्छ्श्‍वास का अहसास होता है।

सीमित मात्रा में मेरे नियंत्रण में रहनेवाली मेरी श्‍वास भला चलती कैसे है? कौन-कौन से अवयव इसमें मेरी सहायता करते हैं? मेरे जीवन को शुरु रखने का कार्य क्या श्‍वाच्छोश्‍वास करनेवाले अवयवों का अथवा श्‍वसनसंस्था का है? क्या इसके अलावा भी कोई कार्य हमारी श्‍वसनसंस्था करती है? इन सभी प्रश्‍नों के उत्तर हमें अगले लेख में मिलनेवाले हैं।
(क्रमश:-)

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