श्‍वसनसंस्था – १६

फेफडों में वायु के आवागमन की जानकारी हमने प्राप्त की। श्‍वसनसंस्था का मुख्य कार्य वायु का आदान-प्रदान करना है। इस कार्य में संपूर्ण श्‍वसनसंस्था मदद करती है। वायु का आदान-प्रदान अलविओल्स में होता है। अलविओल्स की बाहरी सतह पर फेफड़ों की छोटी-छोटी केशवाहनियाँ होती हैं। इन रक्त-वाहनियों में जो रक्त होता है उसमें कर्बद्विप्राणिल (कार्बन डायॉक्साइड) वायु की मात्रा ज्यादा होती है। यह कर्बद्विप्राणिल वायु अलविओल्स में जाती है और अलविओल्स में स्थित प्राणवायु रक्त में प्रवेश करती है। यही है वो प्राणवायु का आदान-प्रदान। इसको ही gaseous exchange कहते हैं।

वातावरण की प्राणवायु को फेफड़ों के माध्यम से रक्त में लेना और रक्त में जमा कर्बद्विप्राणिल वायु को फेफड़ों के माध्यम से ही वातावरण में छोड़ने की क्रिया शरीर कोशिकाओं के कार्यों के लिए संजीवनी ही होती है। वातावरण की हवा का अलविओल्स में पहुँचने और अलविओल्स की हवा को पुन: वातावरण में छोड़ने की क्रिया का निरंतर होते रहना आवश्यक होता है। इसके लिये नाक से लेकर अलविओल्स तक हवा निर्विरोध प्रवास होना आवश्यक होता है। यह कार्य श्‍वसननलिका और उसकी शाखा-उपशाखा (Trachea, Bronchi एवं bronchioles) करती हैं। नाक, गर्दन, स्वरयंत्र का भी इस कार्य में सहभाग होता है।

नाक से लेकर अलविओल्स तक का हवा का महामार्ग हमेशा खुला रहना चाहिये। हवा के प्रवास में किसी भी प्रकार की बाधा न आये, महामार्ग अवरुद्ध न हो जाये, इस बात की सर्तकता श्‍वसन मार्ग के सभी अवयव रखते हैं। परंतु श्‍वसनमार्ग में किसी प्रकार की बीमारी हो जाने पर यह मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। इसे श्‍वसन-मार्ग या छाती का कंजेशन (Congestion) कहते हैं। इसकी जानकारी हम अगले लेखों में प्राप्त करेंगे। अब हम यह देखेंगें कि हवा के महामार्ग को खुला रखने के लिये श्‍वसनमार्ग का प्रत्येक भाग किस प्रकार से सहायता करता है।

ट्रॅकिआ की दीवार में कुर्चा (cartilage) रिंग्ज होती हैं। इन रिंग्ज के द्वारा ट्रॅकिआ को कठोरता प्राप्त होती है जिससे ट्रॅकिआ कोलॅप्स नहीं होती।

ब्रोंकाय की दीवार में कूर्चा की पट्टियाँ होती हैं। ये पट्टियाँ क्रोकाय को काफी मजबूती प्रदान करती हैं और साथ ही साथ फेफड़ों के आकुंचन-प्रसरण का विरोध भी नहीं करतीं। ब्रोक्रस की शाखा-उपशाखा जैसे-जैसे फैलती जाती हैं, वैसे-वैसे कूर्चा की पट्टियाँ गायब हो जाती हैं। ब्रोकिओल्स अत्यंत सूक्ष्म उपशाखायें होती हैं, इनका व्यास १.५ मि. मीटर से भी कम होता है। इसकी दीवारें पूर्णत: स्मूथ स्नायुओं की बनी होती हैं। इनमें कठिनता बिलकुल नहीं होती। ये शीघ्र ही कोलॅप्स हो जाती हैं। फिर इन्हें मुक्त कौन रखता है? फेफड़ों का ट्रान्सपलमनरी दाब इन्हें सिकुड़ने से बचाता है। अलविओल्स के साथ ही इनका आकुंचन-प्रसरण होता है।

छोटी ब्रोंकाय और ब्रोंकिओल्स की दीवारें बहुधा स्मूथ स्नायुओं से बनती हैं। श्‍वसन मार्ग के / श्‍वसन संस्था के विभिन्न रोग होते हैं। हवा के मार्ग में रुकावट होने पर जो बीमारियाँ होती हैं, उन्हें obstructive Diseases of the lung कहते हैं। उदा. दमा। इस बीमारी में ब्रोंकाय एवं ब्रोंकिओल्स के स्मूथ स्नायुओं का आंकुचन काफ़ी मात्रा में होता है। इस ज्यादा से ज्यादा तथा काफी समय तक रहनेवाले आकुंचन (Spasm) के कारण छोटी ब्रोंकिओल्स एवं ब्रोंकाय संकरे हो जाते हैं।

नॉर्मल श्‍वसन में हवा के प्रवाह का श्‍वसनमार्ग द्वारा विरोध होता है, यह हमनें देखा। मुख्य श्‍वसन नलिका से (trachea) निकलनेवाली जो पहली चार-पाँच शाखायें होती हैं, उनके द्वारा ज्यादा से ज्यादा विरोध किया जाता है। क्रोकिओल्स के सिरों की शाखायें, जिन्हें टर्मिनल ब्रोंकिओल्स कहते हैं, यद्यपि हज़ारों की संख्या में (लगभग ६५,०००) होती हैं, फिर भी उनके द्वारा विरोध नहीं होता। इसका कारण यह है कि इनकी गहराई छोटी होती है और लम्बाई में भी ये काफ़ी छोटी होती हैं, जिससे कि हवा के द्वारा किया जानेवाला प्रवास भी कम होता है। बीमारी हो जाने पर ये ही ब्रोंकिओल्स कष्टकारी साबित होती हैं। बीमारी की अवस्था में इनके द्वारा ही हवा का ज्यादा विरोध होता है। इसके दो कारण हैं –

१) इनकी गहराई कम होने के कारण यहाँ पर अवरुद्धता जल्दी हो जाती है।
२) इनकी दीवारों में स्मूथ मसल्स ज्यादा मात्रा में होने के कारण इनका आकुंचन शीघ्रता से होता है। अब हम देखेंगे कि इन स्मूथ मसल्स का आकुंचन-प्रसरण किस प्रकार से होता है।

ब्रोंकिओल्स की स्मूथ स्नायुओं का आंकुचन एवं प्रसरण, चेतासंस्था तथा स्थानिक स्रावों के कार्य पर निर्भर होता है।

१) चेतासंस्था के द्वारा होनेवाले नियंत्रण:
अपने शरीर के स्नायुओं की जानकारी होते समय उनके आंकुचन-प्रसरण की क्रिया का हमने अध्ययन किया है। ऑटोनोमिक चेतासंस्था, इन स्नायुओं के कार्यों को नियंत्रित करती है, यह भी हमने देखा था। ऑटोनोमिक चेतासंस्था के सिंपथेटीक चेतातंतु, उनके नॉरएपिनेफ्रिन एवं एपिनेफ्रिन स्त्रावों द्वारा, इन स्नायुओं को प्रसरित करते हैं। स्मूथ मसल्स को आकुंचन के लिये पॅरासिंपथेटिक चेतातंतु सहायता करते हैं। दमा की बीमारी में बीमार के ब्रोकिओल्स स्मूथ मसल्स पहले ही आकुंचित हो जाते हैं। इसी लिए पॅरासिंपथेटिक चेतातंतु के कार्यरत हो जाने पर इस रोगी की हालत और भी बिगड़ जाती है।

२) स्थानिक स्त्राव : हिस्टॅमिन जैसे स्थानिक द्राव स्मूथ स्नायुओं को आकुंचित करते हैं। अ‍ॅलर्जिक प्रतिक्रिया में शरीर में हिस्टमिन ज्यादा मात्रा में स्रवित होता हैं। इसीलिए किसी भी अ‍ॅलर्जिक रिअ‍ॅक्शन में ब्रोंकिओल्स आकुंचित होने के कारण श्‍वास का विरोध हो सकता है। परागकण, हवा में उपस्थित सल्फरडाय ऑक्साईड जैसी अनेक चीजें अ‍ॅलर्जिक रिअ‍ॅक्शन का निर्माण करती हैं।

चाहे अ‍ॅलर्जिक रिअ‍ॅक्शन हो, या दमा जैसे रोग हो, इनमें ब्रोंकिओल्स की स्मूथ मसल्स को प्रसारित करनेवाली दवाईयों का इस्तेमाल किया जाता है। अ‍ॅड्रिनॅलिन, सालब्युटामॉल, टरब्युटालिन इत्यादि दवाइयाँ स्मूथ स्नायुओं का प्रसरण कराती हैं।(क्रमश:)

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