श्‍वसनसंस्था – १४

पिछले लेख में हमने देखा कि हमारी श्‍वसन क्रिया किस तरह चलती है। हमने देखा कि प्रत्येक श्‍वासोच्छ्वास में हम कुछ मात्रा में हवा अंदर लेते हैं और कुछ मात्रा में हवा बाहर निकालते हैं। यह मात्रा कितनी होती है? क्या यह प्रत्येक व्यक्ति में एक जैसी ही होती है? दो श्‍वासों के दरम्यान कितनी हवा फेफड़ों में शेष रह जाती है? सर्वसाधारण श्‍वास और दीर्घ श्‍वास (deep brithing) में कितना फर्क होता है? इत्यादि प्रश्‍नों के उत्तर अब हम देखेंगें।

श्‍वसन में हवा की मात्रा की जाँच की जा सकती है। इस जाँच को पलमनरी फंक्शन टेस्ट (P.F.T.) कहते हैं। विभिन्न कारखानों में काम करनेवालों को इसका अनुभव होता है। वहाँ पर साधारणत: प्रति वर्ष सभी लोगों की यह जाँच के जाती है।

इस जाँच के लिये स्पायरोमीटर नामक यंत्र का प्रयोग किया जाता है। इसी लिये इसे ‘स्पायरोमेट्री’ भी कहा जाता है। इस स्पायरोमीटर में हवा या प्राणवायु से भरा हुआ एक छोटा ड्रम अथवा पीपा होता है। यह छोटा ड्रम पानी से भरे हुए बर्तन में उल्टा रखा जाता है। इस ड्रम के निचले हिस्से में एक नली लगी हुयी होती है जिसका दूसरा सिर खुला होता है। इस पर माऊथ पीस लगाया हुआ होता है। इस माऊथपीस में से जाँच के लिए आया हुआ व्यक्ति ड्रम की हवा अंदर खींचता है और बाहर छोड़ता है। इस प्रत्येक क्रिया के दरम्यान यह ड्रम ऊपर-नीचे होता रहता है। इस ड्रम से एक दूसरा ड्रम जुड़ा रहता है। इस ड्रम पर रेकॉर्डिंग कागज चिपकाया रहता है। पहले ड्रम की ऊपर-नीचे होनेवाली गति का रेकॉर्ड ग्राफ अथवा आलेख के स्वरूप में दूसरे ड्रम पर रेकॉर्ड होता है। ऐसी यह साधारण जाँच होती है।

उपरोक्त जाँच में फेफड़ों के चार प्रकार के वॉल्युम्स और चार प्रकार की कॅपॅसिटिज अथवा क्षमता दर्शायी जाती हैं। इन्हीं के आधार पर तय किया जाता है कि फेफड़ों का कार्य सुचारु रूप से चल रहा है या नहीं। साथ ही साथ विभिन्न विकारों में फेफड़ों में होने वाले यानी कार्यों में होनेवाले बदलावों का जाँच की जा सकती है। अब हम इन सबकी सविस्तर जानकारी प्राप्त करेंगें।

फेफड़ों के वॉल्युम्स निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –
१) टाइडल वॉल्युम – हर एक सर्वसाधारण श्‍वास के साथ जितनी हवा अंदर ली जाती है और हर एक उच्छ्वास के साथ जितनी हवा बाहर निकाली जाती है, उस वॉल्युम को टाइडल वॉल्युम कहते हैं। श्‍वासोच्छ्वास में हम ५०० मि.ली. हवा अंदर लेते हैं और उतनी ही हवा बाहर निकालते हैं।

२) इन्स्पिरेटरी रिझर्व वॉल्युम – दीर्घ श्‍वास लेते समय टाइडल वॉल्युम की तुलना में जितनी हवा हम अंदर ले सकते हैं, उसे हम इन्स्पिरेटरी रिझर्व वॉल्युम कहते हैं। यहाँ पर हम टायडल वॉल्युम के अतिरिक्त और ३००० मिली हवा अंदर ले सकते हैं।

३) एक्स्पायरेटरी रिझर्व वॉल्युम – नॉर्मल उच्छ्वास के बाद और भी जितनी ज्यादा हवा हम कोशिश करके बाहर निकाल सकते हैं, उसे एक्स्पायरेटरी रिझर्व वॉल्युम कहते हैं। साधारणत: ११०० मि.ली. हवा हम इस प्रकार से बाहर निकाल सकते हैं।

४) रेसिड्युअल वॉल्युम – ज्यादा से ज्यादा ताकत लगाकर हवा बाहर निकालने के बाद भी जो हवा फेफड़ों में शेष रह जाती है, उसे रेसिड्युअल वॉल्युम कहते हैं। यह शेष हवा साधारणत: १२०० मिली होती है।

फेफड़ों की कॅपॅसिटीज अथवा क्षमता – उपरोक्त बताये गये दो अथवा दो से ज्यादा वॉल्युम एकत्र करने के बाद जो संख्या मिलती है, उसे कॅपॅसिटीज कहते हैं। ये इस प्रकार से हैं –

१) इन्स्पिरेटरी कॅपॅसिटी – टायडल वॉल्युम और इन्स्पिरेटरी रिझर्व वॉल्युम को एकत्र करने के बाद यह कॅपॅसिटी मिलती है। सर्वसाधारण उच्छ्वास पूर्ण होने के बाद हम छाती फुलाकर ज्यादा से ज्यादा कितनी हवा अंदर ले सकते हैं, यह भी यह कॅपॅसिटी बताती हैं। नॉर्मल प्रौढ़ व्यक्ती में यह मात्रा ३५०० मिली होती है।

२) फंक्शनल रेसिड्युअल कॅपॅसिटी – एक्सपायरेटरी रिझर्व वॉल्युम और रेसिड्युअल वॉल्युम को एकत्र करने से यह कॅपॅसिटी मिलती है। नॉर्मल उच्छ्वास के बाद जितनी हवा फेफड़ों में शेष रहती है, उसकी मात्रा इससे पता चलती है। यह मात्रा २३०० मिली होती है।

३) वाइटल कॅपॅसिटी – इन्स्पिरेटरी रिझर्व वॉल्युम, टायडल वॉल्युम और एक्स्पायरेटरी रिझर्व वॉल्युम तीनों का जोड़ यानी वाइटल कॅपॅसिटी (Vital Capacity) है। किसी व्यक्ति के द्वारा पूरी तरह छाती फुलाकर हवा अंदर लेने के बाद वही व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा कितनी हवा बाहर निकाल सकता है, इस आधार पर इसका पता चलता है। अर्थात किसी व्यक्ति के फेफड़ों के प्रसरण और आकुंचन की पूर्ण क्षमता इसी आधार पर आंकी जाती है। साधारणत: यह क्षमता ४६०० मिली होती है।

४) टोटल लंग कॅपॅसिटी – हमारे फेफड़े एक समय पर ज्यादा से ज्यादा कितनी हवा अंदर ले सकते हैं वह यह क्षमता है। वाइटल कॅपॅसिटी में रेसिड्युअल वॉल्युम जोड़ने पर यह संख्या प्राप्त होती है। साधारणत: यह ५८०० मिली होती है।

स्त्रियों में उपरोक्त सभी वॉल्युम और कॅपॅसिटीज पुरुषों की अपेक्षा २० से २५ प्रतिशत कम होती हैं। साथ ही साथ दुबले पतले व्यक्ति की अपेक्षा व्यायाम करनेवाले सुदृढ़ शरीर वाले व्यक्ति में यह ज्यादा होती है।

श्‍वसन मार्ग और फेफड़ों के विविध विकारों में उपरोक्त सभी वॉल्युम और कॅपॅसिटीज में बदलाव होता रहता है। उसके अध्ययन से विकारों की गंभीरता का पता चलता है और उसी के अनुसार उपचार पद्धति अपनायी जाती है।

उपरोक्त सभी वॉल्युम के अलावा एक और वॉल्युम महत्त्वपूर्ण होता है। इस वॉल्युम को ‘मिनिट रेस्पिरेटर वॉल्युम’ कहते हैं। इसे मापना बिलकुल आसान है। किसी व्यक्ति के टायडल वॉल्युम को उसकी प्रति मिनट श्‍वसन संख्या से गुना करने पर यह वॉल्युम प्राप्त होता है। टायडल वॉल्युम ५०० मिली और श्‍वसन की दर १२ श्‍वासोच्छवास प्रति मिनट हो तो उस व्यक्ति की प्रति मिनट टायडल वॉल्युम ६ लीटर/ मिनिट होता है। इसका तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति को प्रति मिनट 6 लीटर हवा की आवश्यकता है। आपातकालीन परिस्थिति में नॉर्मल व्यक्ति उसकी प्रति मिनिट रेस्पिरेटरी वॉल्युम के २५ प्रतिशत हवा मिलने पर भी कुछ मिनटों तक जीवित रह सकता है।(क्रमश:) 

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