विश्‍व हिन्दु परिषद

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ३७

VishwaHinduParishad

सन १९६४  की जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर स्थापन हुई ‘विश्‍व हिन्दु परिषद’ ने स्थापना के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। पूरी दुनिया में इस संगठन का विस्तार हुआ। आज ‘विश्‍व हिन्दु परिषद’ सही मायने में ‘विश्‍वव्यापी’ बनी दिखायी दे रही है। पचास देशों में इस संगठन का कार्य जोरों-शोरों से शुरू है। विश्‍व हिन्दु परिषद के माध्यम से हमारे देश में हज़ारों सेवाकार्य चल रहे हैं।  वनवासी क्षेत्र में पाठशाला, वसतिगृह और वनवासियों के कलाहुनर को उपयोग में लाकर उन्हें आर्थिकदृष्टि से आत्मनिर्भर बनाने के लिए विश्‍व हिन्दु परिषद बहुत बड़ा कार्य कर रही है। वनवासी क्षेत्र में रहनेवालीं व्यसनाधीनता, अनिष्ट बातें दूर करने के लिए परिषद ने विशेष कार्यक्रम हाथ में लिये हैं। राष्ट्रहित की दृष्टि से सक्षम, संगठित और समर्पित समाज का निर्माण करने के लिए विश्‍व हिन्दु परिषद वचनबद्ध है।

स्वतन्त्र भारत के सामने कई चुनौतियाँ थीं। देश की राजनीतिक व्यवस्था पूर्ण रूप से स्थिर नहीं हुई थी। सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ आकार धारण कर रही थीं। एक तरफ़ स्वतन्त्र भारत के सुगठन के प्रयास चल रहे थे; वहीं, दूसरी ओर भारतीय समाज में धर्मान्तर कराने की साज़िश पर भी योजनाबद्ध रूप में काम शुरू हुआ था। स्वतन्त्र भारत में इतने बड़े पैमाने पर धर्मान्तर शुरू हुआ था, जितना कि अँग्रेज़ों के शासनकाल में भी नहीं हुआ होगा। अविकसित, अज्ञानी और भोली-भाली जनता को लक्ष्य बनाकर उनका धर्मान्तर करने की इस साज़िश की ओर, शुरू शुरू में भारतीयों का ध्यान नहीं गया। लेकिन इस सन्दर्भ में रहनेवाली जानकारी उजागर होने के बाद सारा देश जड़ से हिल गया। अपने आपको धर्मनिरपेक्ष बतानेवालों को भी, सामने आयी इस जानकारी से बहुत बड़ा सदमा पहुँचा था।

वनवासी क्षेत्र की भोली-भाली जनता को फुसलाकर, आमिष दिखाकर और उनके जीवन में बदलाव लाने का लालच देकर यह धर्मान्तर कराया जा रहा था। भारत में नयी सभ्यता का निर्माण करने की यह सुनियोजित तैयारी थी। धर्मान्तर के लिए उस समय करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे थे। सन १९५१ में, देश में धर्मान्तर के लिए हज़ारों लोग काम कर रहे थे। महज़ चार वर्षों में यह संख्या बड़ी तादात में बढ़ गयी। इसकी ओर अन्य किसी का ध्यान शायद न भी गया हो, मग़र सबसे पहले संघ के ध्यान में यह बात आ गयी। क्योंकि समाज के हर एक क्षेत्र में संघ का विधायक कार्य शुरू था और संघ के स्वयंसेवक समाजहित के लिए जागृत पहरा दे रहे थे। इस कारण, इन चिन्ताजनक गतिविधियों पर सबसे पहले संघ द्वारा चेतावनी दी गयी। संघ के ज्येष्ठ प्रचारक श्री. दादासाहब आपटे ने टिळकजी के ‘केसरी’ में एक लेख लिखा।

धर्मान्तर की इस साज़िश की सारी जानकारी दादासाहब ने इस लेख में प्रस्तुत की। श्रीगुरुजी को देश के सामने खड़े हुए इस संकट का एहसास हो ही चुका था। लेकिन विदेश में वास्तव्य करनेवाले हिन्दु समाज की दूसरी पीढ़ी देश से एवं धर्म से दूर चली जा रही थी, यह भी गुरुजी के निरीक्षण में आ रहा था। इस कारण गुरुजी ने दादासाहब को विभिन्न देशों का प्रवास कर वहाँ के हिन्दु समाज का अवलोकन करने की सूचना की। इस प्रवास में दादासाहब को यह महसूस हुआ कि ‘कॅरेबियन द्वीपदेशों’ में हिन्दु समाज की परिस्थिति अधिक भयंकर है। यहाँ के हिन्दु समाज की दूसरी पीढ़ी पश्‍चिमी समाजों के प्रभाव में आ रही थी। कुल मिलाकर देश में और देश के बाहर भी हिन्दु समाज के सामने बहुत बड़ी चुनौतियाँ खड़ी हुईं थीं। ठीक उसी दौरान, चीन ने तिबेट (तिब्बत) पर आक्रमण करके उस देश पर कब्ज़ा कर लिया। इस कारण दलाई लामाजी को अपना धर्म बचाने के लिए भारत में पनाह लेनी पड़ी। कॅरेबियन द्वीपदेश रहनेवाले ‘त्रिनिदाद’ की संसद के सदस्य डॉ. शंभुनाथ कपिलदेव वहाँ के हिन्दु समाज पर चल रहे सांस्कृतिक आक्रमण को लेकर बहुत ही चिन्तित हुए थे। उन्होंने वहाँ के हिन्दु समाज को बचाने के लिए, उस समय की भारत सरकार से सहायता की विनति की। भारत से हिन्दु धर्म के विद्वान और शिक्षाविशेषज्ञ त्रिनिदाद एवं पड़ोसी देशों में भेजें, ऐसी माँग डॉ. कपिलदेव ने की। लेकिन सरकार ने इस मामले में बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं दिखायी। आख़िरकार डॉ. शंभुनाथ कपिलदेव संघ के संपर्क में आये और उनकी पूजनीय गुरुजी से मुलाक़ात हुई। गुरुजी ने वहाँ के हालातों को जान लिया और उन्हें सहायता का आश्‍वासन दिया।

इसी दौरान हिन्दु महासभा के महासचिव ‘व्ही. जी. देशपांडे’ ने एक लेख लिखकर, ‘दुनियाभर के हिन्दुओं की समस्याओं को सुलझाने के लिए एक होकर प्रयास करने चाहिए’ ऐसा प्रस्ताव सादर किया। ये प्रयास करने के लिए राजनीति से ताल्लुक न रहनेवाले संगठन की आवश्यकता होने का मत देशपांडेजी ने इस लेख में व्यक्त किया था। इस सन्दर्भ में उन्होंने गुरुजी से मुलाक़ात की थी। ‘सांदिपनी आश्रम’ के प्रमुख ‘स्वामी चिन्मयानंदजी’ के कई शिष्य दुनियाभर में फैले हुए थे। स्वामी चिन्मयानंदजी विदेश में भी निरन्तर हिन्दु धर्म के तत्त्वज्ञान का प्रचार कर रहे थे। हिन्दुओं के विश्‍वव्यापी संगठन की आवश्यकता है, यह बात स्वामी चिन्मयानंदजी ने भी मान ली थी। उन्होंने भी इस मामले में गुरुजी को पत्र लिखकर अपने विचार प्रस्तुत किये।

इन सारी बातों पर गुरुजी की दादासाहब आपटे के साथ चर्चा हुई। उस समय दादासाहब को यह याद आया कि उन्होंने ‘केसरी’ में लिखे लेख में भी यही विचार प्रस्तुत किया था। उसके बाद देशभर के हिन्दु धर्म के सभी संप्रदायों के सन्तमहन्तों, धर्माचार्यों और मठाधीशों तथा सामाजिक क्षेत्र में कार्य करनेवालों से भी पत्रव्यवहार करने का निर्णय गुरुजी ने किया। इसकी ज़िम्मेदारी दादासाहब आपटे पर सौंपी गयी। दादासाहब ने इन सबको पत्र लिखकर, हिन्दु समाज को एक छत के तले लाने के लिए आंतर्राष्ट्रीय संगठन का निर्माण करने की आवश्यकता कथन की। उसे बहुत ही अच्छा प्रतिसाद मिला। वास्तव में ऐसे आंतर्राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता है, यह सभी ने मान लिया। उसी के साथ, हिन्दु समाज में प्रविष्ट हुए जाति-पाति, उच्चनीच भेदभाव आदी दुर्गुणों को मात देने की आवश्यकता भी सबने कुबूल की थी। इस प्रस्ताव के कारण हिन्दु धर्म के लिए कार्यरत रहनेवाले सन्तमहन्तों, धर्माचार्यों में उत्साह बढ़ गया। यह कार्य मुश्किल ज़रूर था, मग़र असंभव नहीं था।

आख़िरकार विक्रम संवत् २०२१ की जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर, २९ अगस्त १९६४ को हिन्दु धर्म के ये सारे मान्यवर मुंबई के ‘सांदिपनी आश्रम’ में इकट्ठा हुए। स्वामी चिन्मयानंदजी और श्रीगुरुजी के साथ राष्ट्रसन्त तुकडोजी महाराज, जैन संप्रदाय के स्वामी सुशील मुनी, बौद्ध सन्त कुशग बकुला, आर्यसमाजी और भारत के भूतपूर्व सरन्यायाधीश बी. पी. सिन्हा इन्होंने इस अवसर पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। मुंबई के ख्यातनाम बॅरिस्टर और काँग्रेस के नेता ‘कन्हय्यालाल माणेकलाल मुन्शी’ ने इस मामले में बहुत ही उत्साह दिखाकर संपूर्ण रूप से सहयोग देने का यक़ीन दिलाया। इस बैठक के अन्त में उन्हीं का भाषण हुआ। काँग्रेस के ज्येष्ठ नेता ‘बाबू जगजीवन राम’ भी इस व़क्त उपस्थित थे। दुनियाभर के हिन्दु समाज के लिए एक विश्‍वव्यापी संगठन की आवश्यकता होने की बात बाबू जगजीवन राम ने भी इस समय मान ली। सुवर्णमंदिर के अकाली दल के भूतपूर्व अध्यक्ष माननीय ‘श्री. भूपेंद्रसिंहजी’ इस बैठक के लिए उपस्थित थे। उन्होंने भी इसके लिए पूरा सहयोग देने की तैयारी दर्शायी। शिख संप्रदाय के ‘मास्टर तारासिंग’ भी इस समय उपस्थित थे।

हमारे देश में कई भाषाएँ हैं और भाषाओं की दृष्टि से इतना वैभवशाली रहनेवाला अन्य कोई देश दुनिया में है ही नहीं। लेकिन जिस तरह इस भूमि की भाषाओं का उद्गम संस्कृत में से हुआ, ठीक उसी तरह इस भूमि में जन्में धर्मों और पन्थों का उद्गम मूल सनातन हिन्दु धर्म में ही है। इसीलिए इस मूल धर्म का एक व्यापक संगठन रहना यह समय की माँग थी। मतभेद, मनभेद, उच्चनीच भेदभाव, भाषाभेद, प्रान्तवाद, पन्थवाद इन सब बातों को दूर हटाकर, सनातन हिन्दु धर्म के एक छत के तले सबको लाने के लिए, सबको एक करने के महत्त्व को इन धर्माचार्यों द्वारा पहचाना जाना, यह ऐतिहासिक घटना थी।

हिन्दु समाज का कई गुटों में विभाजन होना, यह सबसे बड़ा दुर्भाग साबित हुआ। हिन्दु धर्म में उच्चनीचता, अस्पृश्यता इन सबको बिलकुल भी स्थान नहीं था। ये सभी, समय की धारा में हिन्दु धर्म में प्रविष्ट हुईं अपप्रवृत्तियाँ थीं। उनको दूर कर हिन्दुओं को एकसंघ करना, अर्थात् ‘हिन्दु सारा एक – ना कोई उच्च, ना कोई नीच’ इस भावना को पुनःस्थापित करके सक्षम हिन्दु समाज का निर्माण करना, यह ध्येय इस सभा में उपस्थित सभी ने अपने सामने रखा और….

…. विश्‍व हिन्दु परिषद की स्थापना हुई। स्वामी चिन्मयानंदजी को इस संगठन के अध्यक्ष के रूप में और दादासाहब आपटे को महामंत्री के रूप में नियुक्त किया गया। सन १९६४  की जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर स्थापन हुई ‘विश्‍व हिन्दु परिषद’ ने स्थापना के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। पूरी दुनिया में इस संगठन का विस्तार हुआ। आज विश्‍व हिन्दु परिषद सही मायने में ‘विश्‍वव्यापी’ बनी दिखायी दे रही है। पचास देशों में इस संगठन का कार्य जोरों-शोरों से शुरू है। विश्‍व हिन्दु परिषद के माध्यम से हमारे देश में हज़ारों सेवाकार्य चल रहे हैं।  वनवासी क्षेत्र में पाठशाला, वसतिगृह और वनवासियों के कलाहुनर को उपयोग में लाकर उन्हें आर्थिकदृष्टि से आत्मनिर्भर करने के लिए विश्‍व हिन्दु परिषद बहुत बड़ा कार्य कर रही है। वनवासी क्षेत्र में रहनेवालीं व्यसनाधीनता, अनिष्ट बातें दूर करने के लिए परिषद ने विशेष कार्यक्रम हाथ में लिये हैं। राष्ट्रहित की दृष्टि से सक्षम, संगठित और समर्पित समाज का निर्माण करने के लिए विश्‍व हिन्दु परिषद वचनबद्ध है।

(क्रमश:)

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