गुरुजी का महानिर्वाण

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ४३

Gurujiसन १९६५  में हुआ युद्ध और सन १९७१ में हुआ युद्ध, इनमें एक मूलभूत फर्क था। सन १९७१ में भारत का सेनादल युद्ध के लिए पूरी तरह सिद्ध था। चीन ने जब सन १९६२ में आक्रमण किया, उस समय भारत सतर्क नहीं था। उस समय के राजनीतिक नेतृत्व का चीन पर अँधा विश्‍वास था। इस कारण चीन के लिए कई बातें आसान हो गयी थीं। लेकिन सन १९६५ के हालात अलग थे। चीन द्वारा किये गये विश्‍वासघात का अनुभव भारत को बहुत कुछ सिखा गया था। इसी कारण भारतीय सेना पाक़िस्तान  हमले का मुँहतोड़ जवाब दे सकी। सन १९७१ में भारतीय सेना सुसज्जित थी और सतर्क रहनेवाले राजनीतिक नेतृत्व की रणनीति भी तैयार थी।

बांग्लादेश को पाक़िस्तान से मुक्त कराने का निर्णय भारत ने लिया था। यहाँ की प्रजा पाक़िस्तान के अत्याचारों के कारण संतप्त हो गयी थी। ‘हम भले ही एक धर्म के हों, मग़र फिर  भी हमारी बांग्ला संस्कृति पाक़िस्तान की संस्कृति से पूरी तरह अलग है। वह पाक़िस्तान से कभी भी जुड़ नहीं सकती’ ऐसा यहाँ की जनता बोलने लगी?थी। अर्थात् जिस द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ था, वह सिद्धांत ही इससे ख़ारिज हो गया था। धर्म के नाम पर पाक़िस्तान का निर्माण किया तो सही, लेकिन उसी आधार पर देश चलाना मुमक़िन नहीं है, इसका एहसास पाक़िस्तान को हो चुका था। आज भी पाकिस्तान एक नहीं हो सका है और इसके बाद भी यह देश कभी एकसंघ नहीं हो सकता। ख़ैर! पूर्व पाक़िस्तान की जनता ने पाकिस्तान से अलग हो जाने के लिए हथियार उठाया।

भारत की सहायता से बांग्लादेश का निर्माण हुआ। इस युद्ध में भारत ने बांग्लादेश की सहायता की, इसका मतलब यह नहीं की भारत ने दूसरे देश में हस्तक्षेप किया। क्योंकि पाकिस्तान के अत्याचारों के कारण एक करोड़ शरणार्थी भारत में दाख़िल हुए थे। इस कारण, पाक़िस्तान जिसे ‘अपनी अंतर्गत समस्या’ बता रहा था, वह भारत की समस्या बन गयी थी। ऐसे हालातों में भारत केवल दर्शक बनकर नहीं रह सकता था। सन १९७१ के युद्ध में ही भारतीय लष्कर ने जम्मू-कश्मीर के ‘कारगिल’ पर कब्ज़ा किया। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना थी। पाक़िस्तान ने सन १९९९  में कारगिल पर कब्ज़ा करने की कोशिश की थी, क्योंकि सारे कश्मीर पर नियंत्रण रखने के लिए, कारगिल यह स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण साबित होता है।

सन १९७१ के युद्ध में श्रीगुरुजी ने, सरकार की पूरी सहायता करने के आदेश स्वयंसेवकों को दिये थे। इसीके साथ गुरुजी ने इंदिरा गांधीजी को एक पत्र लिख भेजा। ‘‘मूलतः देश का बँटवारा कर पाक़िस्तान का किया हुआ निर्माण, यही सबसे बड़ी ग़लती थी। इस ग़लती को सुधारने का अवसर हमें हर युद्ध में मिलते रहता है। लेकिन हम यह?अवसर गँवाते रहते हैं। पूर्व बंगाल के चितगांव की जनता बौद्धधर्मिय है। उन्हें भारत के साथ जोड़ लेना आवश्यक है। साथ ही, यहाँ का ‘कॉक्सबाझार’ बंदरगाह हमारे आसाम को मिल सकता है। उससे हमारी कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। आप इस बात को सर्वोच्च महत्त्व देकर देश के हित का विचार कीजिए। वैसे ही, पूर्व बंगाल में से आनेवाले हिंदु बांधवों को ‘शरणार्थी’ न कहा जाये। उन्हें ‘भारतीय’ बुलाकर ही उनका स्वागत हो। भारतीय नागरिकों को रहनेवाले सारे अधिकार उन्हें मिलने चाहिए। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है’’ ऐसी उम्मीद गुरुजी ने इस पत्र के द्वारा व्यक्त की थी।

इंदिराजी को लिखे इसी पत्र में गुरुजी ने, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की ओर राजनीतिक दृष्टिकोण से न देखें, ऐसा आवाहन किया था। संघ किसी राजनीतिक पार्टी के अधीन रहकर कार्य नहीं करता। संघ का वास्तविक कार्य ‘राष्ट्र का सांस्कृतिक जीवन उन्नत करना’ यही है। दुनिया भर के हिंदु बांधवों के सुखदुख का और उनकी सुरक्षा का विचार करना यह संघ का ध्येय है, ऐसा भी गुरुजी ने इस पत्र में स्पष्ट किया था। संघ के तत्त्वज्ञान और ध्येय-नीतियों को ऐसे गिनेचुने शब्दों में गुरुजी ने इस पत्र में प्रस्तुत किया है, उसका जवाब नहीं।

सन १९७१ का युद्ध भारत ने जीता। यह भारतीय सेना के पराक्रम का एवं इंदिराजी के दृढ़निश्‍चय का नतीजा था। यदि देश को मज़बूत राजनीतिक नेतृत्व मिला, तो भारत क्या कुछ नहीं कर सकता, इसका उत्तम उदाहरण इसके ज़रिये दुनिया के सामने आ गया। इस युद्ध के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सरकार एवं सेना को संपूर्ण सहयोग दिया था। गुरुजी ने इसी कालावधि में कुछ स्थानों का प्रवास करके, स्वयंसेवक अपना कर्तव्य सुचारु रूप से निभा रहे हैं या नहीं, इसका मुआयना किया था।

गुरुजी को कॅन्सर हुआ था। अब अपने पास बहुत समय बाक़ी नहीं रहा, इसका स्पष्ट एहसास गुरुजी को हुआ था। लेकिन ऐसी परिस्थिति में आराम करते बैठना गुरुजी को मंज़ूर नहीं था। इसलिए गुरुजी पहले से भी अधिक तेज़ी से काम में जुट गये। इसके लिए वे अपनी सारी ताकत दाँव पर लगा रहे थे। और भी बड़ा कार्य करने के लिए उनका मन मचल रहा था। लेकिन गुरुजी का शरीर साथ नहीं दे रहा था। ऐसी परिस्थिति में, भारतीय परंपरा के अनुसार गुरुजी ने संघ के सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं की आख़िरी ‘अखिल भारतीय बैठक’ बुलाने का निर्णय लिया। ठाणेस्थित पूजनीय पांडुरंगशास्त्री आठवलेजी के ‘तत्त्वज्ञान विद्यापीठ’ में इस बैठक का आयोजन किया गया था।

इस पूरी बैठक में श्रीगुरुजी उपस्थित थे। संघ की अगली मार्गक्रमणा पर इस समय विचारमंथन हुआ और कुछ लोगों ने इस बारे में अपने विचार श्रीगुरुजी के सामने प्रस्तुत किये। ‘हिंदु समाज को संघटित करना’ यह संघ का सुस्पष्ट ध्येय है। लेकिन इससे संघ पर जातीयवाद का आरोप किया जाता है। इस कारण ‘हिंदुओं की एकता के लिए संघ कार्य कर रहा है’ ऐसा न कहते हुए ‘सारे भारतीयों को एक करने के लिए संघ कार्य कर रहा है’ ऐसा क्यों न कहा जाये? ऐसा विचार एक व्यक्ति ने इस समय प्रस्तुत किया। उसे गुरुजी ने समर्पक उत्तर दिया।
‘हिंदु’ यानी क्या, इसका भावात्मक विश्‍लेषण इस समय गुरुजी ने किया। इतिहास में से उदाहरण देते हुए गुरुजी ने तर्कशुद्ध प्रस्तुतीकरण द्वारा इस मामले में रहनेवाली संघ की व्यापक भूमिका स्पष्ट की। ‘मानवजाति के कल्याण के लिए और मानव को शाश्‍वत सुख की प्राप्ति करा देने के लिए हिंदु तत्त्वज्ञान समर्थ है, इसपर संघ का अड़िग विश्‍वास है। इसीलिए किसी के आक्षेपों तथा आरोपों का विचार न करते हुए हमें ‘हिंदु विचारधारा’ का गर्व से पुरस्कार करना चाहिए’ ऐसा इस समय गुरुजी ने कहा।

इसके बाद भी, क्षीण होता हुआ देह लेकर गुरुजी प्रवास करते थे। स्वयंसेवकों से मिलते थे, उन्हें मार्गदर्शन करते थे। सन १९७३ की ४  फरवरी को विद्यमान बंगळुरु में आयोजित एक सार्वजनिक समारोह में गुरुजी ने अपनी धाराप्रवाह अँग्रेज़ी भाषा में अपने ओजस्वी विचार प्रस्तुत किये। उसे सुनकर श्रोता स्तिमित हो गये। लेकिन उनका यह भाषण सुनते समय, ‘गुरुजी अब ज़्यादा समय तक हमारे बीच रहनेवाले नहीं’ इसका दुखदायी एहसास स्वयंसेवकों को हुआ। उसके बाद नागपुर में २५  मार्च को ‘अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा’ में गुरुजी का अंतिम भाषण हुआ। अपने शरीर में बचीकुची सारी ताकत एक करके गुरुजी ने स्वयंसेवकों को संबोधित किया। अन्यथा गुरुजी का भाषण, कानों में प्राण एक करके सुननेवाले स्वयंसेवकों को इस समय ऐसा तहे दिल से लग रहा था कि गुरुजी अधिक ना बोलें। क्योंकि उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा वे अपनी आँखों से देख रहे थे। फिर  भी गुरुजी इस समय ४०  मिनिटों तक बात करते रहे।

‘‘हमारे विभिन्न प्रकार के कार्यों का एक ही समान उद्देश है और वह है, हमारे राष्ट्र को उन्नत और विश्‍वमान्य बनाना। ‘वातावरण कैसा भी रहने दो, लेकिन ‘हिंदु’ इसी शब्द को विश्‍वभर में मान्यता प्राप्त होगी’ इसपर विश्‍वास रखकर हमें आगे बढ़ना है। इसी से हमें विजय ही विजय की प्राप्ति होगी’’ ये गुरुजी के अंतिम भाषण के उद्गार थे।

इसके बाद मई महीने में नागपुर में तृतीय वर्ष के ‘संघ शिक्षा वर्ग’ की शुरुआत हुई। प्रबल इच्छा रहते हुए भी गुरुजी  यहाँ पर उपस्थित न रह सके। गुरुजी यहाँ पर न आयें, ऐसी स्वयंसेवकों की ही इच्छा थी। इससे अच्छा, हम ही गुरुजी से मिलने आते हैं, ऐसा विभिन्न प्रांतों के स्वयंसेवकों ने कहा। ३ जून को ‘राष्ट्र सेविका समिती’ की संचालिका वंदनीय मावशी (मौंसी) केळकरजी गुरुजी से मिलने आयीं। हँसते हुए गुरुजी ने इस समय कहा, ‘मैं अब पूर्ण रूप से तैयार हूँ।’ अर्थात् गुरुजी ने अपने महाप्रयाण की सिद्धता की थी।

५ जून १९७३ की सुबह कुछ स्वयंसेवक गुरुजी से मिलने आये। इनमें अटलबिहारी वाजपेयीजी भी थे। अदिलाबाद से आये डॉक्टर वझे भी, गुरुजी से मिलने आये लोगों में थे। स्वयंसेवकों ने गुरुजी के चरणों को स्पर्श करने की कोशिश की और नित्य आदत से गुरुजी ने अपने पैर पीछे कर लिए। इस समय गुरुजी ने उत्साह के साथ एक चुटकुला बताया। ‘‘एक बार एक मरीज़ डॉक्टर के पास गया। डॉक्टर ने पूछा, ‘क्या हुआ?’ उसपर वह मरीज़ भड़क गया। ‘अब डॉक्टर ही यह पूछेगा कि मुझे क्या हुआ है, तो वह भला मेरा इलाज कैसे कर पायेगा? मुझे क्या हुआ है, इसका निदान आप की को करना है, वह मैं भला कैसे बता सकता हूँ?’ उसकी बात सुनकर डॉक्टर चुप हो गये। थोड़ी देर में डॉक्टर ने उससे कहा, ‘तुम्हारे लिए अलग डॉक्टर लाना पड़ेगा, मैं उसे बुला लेता हूँ।’ थोड़ी देर बाद वहाँ पर दूसरे डॉक्टर आये। ये जानवरों के डॉक्टर थे। पेशंट को क्या हुआ है, यह बिना बताये ये ही डॉक्टर जान लेते हैं।’’ गुरुजी का यह चुटकुला सुनकर सभी हँस पड़े। उसपर गुरुजी ने और एक, उसके बाद और एक चुटकुला सुनाया। सभी हँस रहे थे और गुरुजी भी हँस रहे थे और हँसते हँसते गुरुजी के पेट में प्रचंड दर्द होने लगा। लेकिन गुरुजी ने माहौल को वैसे ही प्रसन्न बनाये रखा।

इतने में चाय आयी। हर एक को चाय मिली कि नहीं, इसकी पूछताछ गुरुजी कर रहे थे। कुछ लोग चाय नहीं पीते थे, उन्हें दूध मिला कि नहीं, यह गुरुजी पूछ रहे थे। सबने चाय पीने के बाद गुरुजी ने थोड़ी-सी चाय ली। दरअसल चाय के घुँट पीते हुए उन्हें काफी  दिक्कत हो रही थी। लेकिन औरों का साथ देने के लिए ही उन्होंने चाय पी। साँस लेते समय भी गुरुजी को बहुत परेशानी हो रही थी। लेकिन चेहरे पर उनकी वह प्रसन्न मुस्कुराहट क़ायम थी। इतने में शाखा का समय हो गया। जीवन भर में ऐसा समय कभी भी नहीं आया था कि गुरुजी ने शाखा और संघ की प्रार्थना टाली हो। लेकिन इस समय गुरुजी ने अपनी जगह पर बैठे ही प्रार्थना की। मृत्यु निकट आ रहा है, इसका सुस्पष्ट एहसास श्रीगुरुजी को हो चुका था। गुरुजी के शरीर का एक एक बंधन ढ़ीला पड़ रहा था और महामुक्ति का मंगलपर्व नज़दीक आ रहा था। गुरुजी मृत्यु को ‘अंत’ नहीं, बल्कि ‘मुक्ति’ के रूप में ही देख रहे थे। आख़िरकार ९ बजकर ५ मिनट पर गुरुजी ने इहलोक से बिदा ले ली।

६ जून को संघकार्यालय का वातावरण शोकाकुल बन चुका था। गुरुजी का पार्थिव अंतिम दर्शन के लिए कार्यालय में रखा गया था। आज गुरुजी किसी को भी चरणस्पर्श करने से नहीं रोकनेवाले थे। आज वे किसी के भी माथे पर प्रेम से हाथ फेरनेवाले नहीं थे। किसी की भी ओर देखकर प्रेम से मुस्कुरानेवाले नहीं थे। किसी की भी आत्मीयता से पूछताछ नहीं करनेवाले थे। गुरुजी अपनी अनंतयात्रा के लिए रवाना हो चुके थे। गुरुजी का गगनस्पर्शी व्यक्तित्त्व छोटीसी काया में भला कितने समय तक रहनेवाला था? जीवनभर कण कण से जलते हुए, लाखों लोगों का जीवन दीप्तिमान् करनेवाले गुरुजी भला और कितने समय तक इस देह के पिंजड़े में बंद होकर रहनेवाले थे?

गुरुजी चाहे देहरूप में न भी हों, मग़र फिर  भी श्रीगुरुजी हर एक स्वयंसेवक के हृदय में और कार्य में जीवित हैं ही। गुरुजी ने हर एक हृदय में जगायी हुई, राष्ट्रप्रेम की और प्रेम तथा निःस्वार्थ समाजसेवा की प्रेरणा की प्रखर ज्योति को, कोई भी और कभी भी बुझा नहीं सकता।

(क्रमश:)

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