कोटि-कोटि प्रणाम!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – भाग १४

pg14_RSSउनका स्वास्थ्य हालाँकि बिगड़ता ही जा रहा था, मगर फ़िर भी डॉक्टरसाहब की दिनचर्या पर इसका कोई भी असर नहीं हो रहा था। डॉक्टरसाहब पैदल चलकर, साईकिल पर अथवा बस या रेलवे के द्वारा यात्रा करके विभिन्न स्थानों पर विचरण करते थे। लोगों से संवाद बढ़ाकर, संघ के बारे में ज़ानकारी समाज तक पहुँचा रहे थे। समाज के बुज़ुर्ग लोग ‘संघचालक’ की ज़िम्मेदारी का स्वीकार करें, ऐसा आग्रह डॉक्टरसाहब किया करते थे। ‘संघचालक’ इस पद का निर्माण एक विशिष्ट उद्देश्य से किया गया था। शाखा में आनेवाले स्वयंसेवक ज़्यादातर युवा और बाल वर्ग के रहते थे। उन्हें मार्गदर्शन करने और एक तरह से उनके पालकत्व का स्वीकार करने की ज़िम्मेदारी उठाना किसी ना किसी के लिए तो आवश्यक बन गया था। इस युवा वर्ग को समाज से जोड़ने का काम संघचालक द्वारा किया जाता है। इस काम की ज़िम्मेदारी का स्वीकार यदि समाज के वरिष्ठ एवं श्रेष्ठ व्यक्ति करते हैं, तो स्वयंसेवकों को समुचित मार्गदर्शन तो अवश्य मिलेगा ही; साथ ही, इससे संघ और समाज का संबंध अधिक ही दृढ़ होगा, ऐसा डॉक्टरसाहब का विश्‍वास था। इसीलिये, ‘मुझे संघ के बारे में जानकारी नहीं है’ ऐसा कहकर जो लोग, डॉक्टरसाहब उन्हें सौंपना चाहनेवाले ज़िम्मेदारी को विनम्रतापूर्वक नकारते थे, उन्हें भी डॉक्टरसाहब उसके पीछे की भूमिका समझाकर बताया करते थे। उनके कहने से कई बड़ी बड़ी हस्तियाँ भी संघ से जुड़ गयीं।

यह सारा कार्य करते समय, यात्राएँ करते समय, स्वयं डॉक्टर होने के बावज़ूद भी सरसंघचालक अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं करते थे। इसका असर उनके शरीर पर हुआ। उन्हें बार बार बुखार आने लगा। अपने स्वास्थ्य में हुए इन बदलावों के कारण डॉक्टरसाहब को इस बात का एहसास होने लगा था कि उनके पास अब ज़्यादा समय नहीं बचा है। परन्तु का़फ़ी कार्य बाकी था। अत: उन्होंने कार्य की गति और भी बढ़ा दी। इसका भी असर उनके शरीर पर पड़ा और अविरत परिश्रमों के कारण वे का़फ़ी बीमार पड़ गये। प्रतिवर्ष की तरह सन् १९४० में नागपुर में ‘संघशिक्षावर्ग’ शुरू हो चुका था। परन्तु इस बार डॉक्टरसाहब मौजूद नहीं थे। ऐसा पहली बार ही हुआ था। स्वयंसेवकों से मिलने के लिए डॉक्टरसाहब का मन तड़प रहा था। उनकी ऐसी हालत और तीव्र भावनाओं को देखते हुए, इलाज करनेवाले डॉक्टरों को आखिर सरसंघचालक को वहाँ पर जाने की अनुमति देनी ही पड़ी।

९ जून १९४० की सुबह, डॉक्टरसाहब ने कुर्सी पर बै़ठे बै़ठे ही सभी स्वयंसेवकों को ग़ौर से देखा। कमज़ोर बन चुका डॉक्टरसाहब का शरीर बुख़ार और ग्लानि से ग्रसित था। लेकिन उनका मन अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उछल रहा था। ऐसी हालत में भी डॉक्टरसाहब बोलने लगे, ‘‘प्रिय स्वयंसेवक भाइयों, यह परम सौभाग्य का समय है। मैं यहाँ पर संपूर्ण हिन्दुराष्ट्र की छबि देख रहा हूँ। क्षमा कीजिए, मैं आपसे मिल नहीं सका, आपकी सेवा नहीं कर सका। परन्तु आज आपको जी भरकर देखने के बाद, आपसे दो-चार बातें करने की इच्छा है। आपमें और मुझमें इतना प्रेम और अपनापन क्यों है? कई फ़र्क़ होने के बावजूद भी हमारा मन किस रिश्ते के कारण एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है? यही तो संघ का जादू है। संघ इसी तरह का बंधुभाव (भाईचारा) उत्पन्न करता है।

इस संसार में सगे भाई भी एक-दूसरे से झगड़ा करते रहते हैं, परन्तु हम एक-दूसरे से लड़ाई नहीं करते। यहाँ पर हमने जो कार्य सीखा, उसकी पूर्ति करने के लिए ही हम अपने अपने स्थान पर जा रहे हैं, यह कभी भी नहीं भूलना। ‘जब तक शरीर में प्राण हैं, तब तक मैं संघ को नहीं भूलूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा कीजिए। हर रात आप स्वयं से पूछना कि ‘आज पूरे दिन में मैंने संघ का कितना कार्य किया है?’ ‘मैं कभी स्वयंसेवक था’ ऐसा कहने की नौबत अपने आप पर कभी भी मत आने देना। हमें देश भर के हिन्दु बान्धवों को संघटित करना है। जब भारत संघमय बन जायेगा, उस समय दुनिया का कोई भी देश भारत की ओर बुरी नज़र से देख ही नहीं सकेगा। तब ही सभी समस्याएँ समाप्त हो जायेंगी।’’

डॉक्टरसाहब का यह संक्षिप्त भाषण का़फ़ी प्रभावशाली था। वहाँ पर उपस्थित कोई भी व्यक्ति उनके इस अंतिम संदेश को नहीं भूला। शरीर में जितनी थी, उतनी पूरी की पूरी ताकत लगाकर दिये गये इस भाषण के बाद डॉक्टरसाहब बेहोश हो गये। उसके बाद उनकी तबियत अधिक से अधिक बिगड़ती ही चली गयी। नागपुर के नामचीन डॉक्टरों ने उपचारों की बेहद कोशिशें की। स्वयंसेवक रात-दिन सरसंघचालक की सेवा में लगे थे। अंतत: उन्हें मेयो अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। यहाँ से उन्हें नागपुर नगर के संघचालक घटाटेजी के बंगले पर ले जाया गया। डॉक्टरसाहब कभी-कभी होश में आया करते थे। इस दौरान डॉक्टरसाहब के द्वारा उठायी जा रहीं संघ की सारी ज़िम्मेदारियाँ, ‘माधव सदाशिव गोळवलकर’ को अर्थात ‘गुरुजी’ को सौंप दी गयी थीं। डॉक्टरसाहब ने जो सैंकड़ों निष्ठावान, त्यागी और कार्यकुशल कार्यकर्ता तैयार किये, उनमें गुरुजी अग्रसर थे।

एक बार दोपहर के समय जब डॉक्टरसाहब बेहोशी की अवस्था में थे, तब गुरुजी उनके बगल में बैठे हुए थे। तभी अचानक नेताजी सुभाषचंद्र बोस का वहाँ पर आगमन हुआ। डॉक्टरसाहब की यह दशा देखकर उन्हें बड़ा धक्का लगा और उन्हें बहुत दुख हुआ। नेताजी ने गुरुजी से डॉक्टरसाहब की सेहत के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की। नेताजी सुभाषचंद्र बोस डॉक्टरसाहब से पहले मिल चुके थे और ‘संघ केवल हिन्दुओं को ही संघटित क्यों कर रहा है’ ऐसा प्रश्‍न भी नेताजी ने किया था। ‘‘सर्वप्रथम हिन्दुओं को संघटित करने का काम मैंने हाथ में लिया है। एक बार यदि यह कार्य पूरा हो जायेगा, तो देश की समस्या दूर हो जायेगी। फ़िर अन्य लोगों को भी संघटित करने का विचार किया जा सकेगा’’ ऐसा उत्तर डॉक्टरसाहब ने उस समय दिया था।

दोनों की इस मुलाकात को कई साल बीत चुके थे। उसके बाद फ़िर नेताजी डॉक्टरसाहब से मिलने आये थे, क्योंकि डॉक्टरसाहब के द्वारा तैयार किये गये युवकों का देशकार्य के लिए प्रभावी रूप से उपयोग किया जा सकता है, ऐसा नेताजी को लगने लगा था। अपनी इस भावना को नेताजी ने इस अवसर पर व्यक्त किया। उसके बाद डॉक्टरसाहब के पलंग के पीछे की खिड़की के पास खड़े होकर नेताजी, सामने के मैदान में चल रहे स्वयंसेवकों का लयबद्ध संचलन देखने लगे। ‘‘जीवन की किसी भी अवस्था में, मेरे कानों में संघ का कार्य पड़ता रहें, ऐसी व्यवस्था करना। यदि मेरे कानों में संघकार्य की यह ध्वनि पड़ेगी, तो किसी भी अवस्था में वह मेरे हृदय तक अवश्य पहुँचेगी’’ ऐसा डॉक्टरसाहब ने पहले ही बताकर रखा था। इसीलिए जब ‘संघशिक्षावर्ग’ शुरू था, तब उन्हें ऐसे कमरे में रखा गया था, जहाँ से उसकी सभी गतिविधियों की ध्वनि डॉक्टरसाहब के कानों तक पहुँचेगी। इस कमरे की खिड़की से स्वयंसेवकों का संचलन दिखायी देता था।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस उसी खिड़की से यह संचलन देख रहे थे। ‘‘मुझे ऐसे ही युवक चाहिये। इन युवकों में मुझे हमारे देश का भविष्य दिखायी दे रहा है। ये युवक देश को स्वतंत्र और समृद्ध करेंगे’’ ऐसा विश्‍वास नेताजी ने इस अवसर पर गुरुजी के पास व्यक्त किया। उस समय डॉक्टरसाहब बेहोशी की अवस्था में थे। का़फ़ी समय तक होश में न आने के कारण नेताजी की चर्चा डॉक्टरसाहब से नहीं हो सकी। अंतत: दिल पर पत्थर रखकर, गुरुजी से विदा लेकर नेताजी वहाँ से चले गये।

‘यदि इस दौरान नेताजी से डॉक्टरसाहब की चर्चा हो गयी होती, तो शायद इस देश का इतिहास बदल चुका होता अथवा नेताजी ने गुरुजी से इस विषय पर चर्चा की होती, तो भी इस देश का भाग्य बदल सकता था’ यह विचार मुझ जैसे स्वयंसेवक के मन में आते रहता है।

डॉक्टरसाहब की तबियत में सुधार नहीं हो रहा था। सभी की आशाएँ धूमिल होती जा रही थीं। अंतत: शुक्रवार २१ जून १९४० को सुबह ९ बजकर २७ मिनट पर डॉक्टरसाहब का शरीर शांत हो गया। जन्म और मृत्यु तो शरीर की होती है, विचारों की मृत्यु हो ही नहीं सकती और डॉक्टरसाहब ने समाज को जो विचार दिया, जो अतुलनीय कार्य किया, वह आज भी अजर-अमर है। डॉक्टरसाहब के द्वारा स्थापित किया गया, ‘राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ’ आज राष्ट्रभक्तों का सर्वश्रेष्ठ संघटन बनकर सारी दुनिया के सामने खड़ा है।

खुद मुझे डॉक्टरसाहब के दर्शन नहीं हुए। परन्तु उनके द्वारा तैयार किये गये स्वयंसेवक मैंने देखे हैं। उनकी श्रवणभक्ति करके डॉक्टरसाहब के व्यक्तित्व को उनसे समझने का प्रयास किया है। समाज और देश के लिए सारा जीवन समर्पित करनेवाले प्रचारक जिन्होंने तैयार किए, वे डॉक्टरसाहब कितने गगनस्पर्शी व्यक्तित्व के धनी थे, इसकी कल्पना इन स्वयंसेवकों को देखकर आ सकती है। डॉक्टरसाहब के जीवन का अध्ययन करते समय, आज भी कई बार आँखें भर आती हैं। जीवनभर राष्ट्र और धर्म के लिए ही प्रतिपल कष्ट सहनेवाले इस महामानव को कोटि-कोटि प्रणाम!
(क्रमश:……………….)

-रमेशभाई मेहता

 

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