प्रतिकार का इतिहास

Rashtriya Swayamsevak Sangha

बाबर इस देश में मुगलों का शासन लेकर आया। उसके बाद हूमायूँ के और फिर अकबर के समय में मुगलों का शासन स्थिर होता गया, उसका विस्तार भी हुआ। अकबर कम उम्र में ही बादशाह बन गया। अकबर राजपूतों के शौर्य से अच्छी तरह परिचित था। उनका उपयोग, अपने शासन को स्थिर करने के लिए और साम्राज्यविस्तार के लिए करने की चालाक़ योजना अकबर ने बनायी। उसमें वह बहुत ही सफल भी हुआ। एक-एक करके राजस्थान के सभी राजाओं को उसने अपने साथ कर लिया। मेवाड़ का राज्य इसमें अपवाद (एक्सेप्शन) था। इस राज्य ने अकबर की योजना को पहचान लिया था, इसीलिये उसका हमेशा विरोध किया। महाराणा उदयसिंग जी अकबर के विरोध में ड़ँटकर खड़े हो गये। उनके पश्चात् उनके पुत्र महाराणा प्रताप ने आजीवन अकबर से संघर्ष किया।

अकबर की राजनीति शूरवीर राजपूतों की समझ में नहीं आयी। उन्होंने अकबर के द्वारा दिये गए आश्‍वासनों को सच मानकर उन पर विश्‍वास किया। अकबर ने सहिष्णु और उदार राजा की प्रतिमा निर्माण की। विभिन्न तरक़ीबों का इस्तेमाल करके उसने अपनी यह प्रतिमा राजपूतों के मन पर अंकित की। आज भी देश में अकबर की यही प्रतिमा कायम है। लेकिन अकबर की राजनीति जिन लोगों की समझ में आ गयी, वे उसकी इस प्रतिमा के बजाय उसकी राजकीय चालाक़ी की तारीफ़ करते हैं। इसी चालाक़ी के बल पर अकबर अन्य राजपूत राजाओं को अपनी ओर मोड़ने में सफल हुआ। मेवाड के राजा ने अकबर की इस राजनीति को पहचानकर उसके विरुद्ध संघर्ष किया। महाराणा प्रताप का सारा जीवन अकबर से लड़ते हुए ही बीता।

हम अकबर का इतिहास पढ़ते हैं और महाराणा प्रताप का एक अध्याय भी इतिहास में जोड़ा जाता है। इन दोनों के बीच में संघर्ष किसलिए हुआ, यह इतिहास हमें स्पष्ट रूप से नहीं बताता। उसे समझ लेना पड़ता है। महाराणा प्रताप की प्रखर राष्ट्रनिष्ठा अकबर से सहन नहीं हुई, इसलिए उनके राज्य को समाप्त करने के लिए अकबर ने अपनी सारी ताकत लगा दी। यह हासिल करने के लिये बादशाह अकबर उस स्तर तक गया, जहाँ उसे जाना नहीं चाहिए था। मग़र फिर भी महाराणा प्रताप को वह परास्त नहीं कर सका। कई बार युद्ध छेड़ने के बाद भी अकबर को लगातार असफ़लता ही मिली। उस क्षेत्र के वनवासी, जिन्हें भिल्ल कहते हैं, वे भी देशभक्त थे। इसीलिये प्राणों की बाज़ी लगाकर उन्होंने महाराणा प्रताप का साथ दिया। इतना ही नहीं, बल्कि मेवाड़ के बहुत सारे देशभक्त मुसलमान भी महाराणा प्रताप की ओर से अकबर के विरुद्ध लड़े। इस युद्ध में उनका भी ख़ून बहा था, यह बताना भी आवश्यक है।

इसके अलावा अकबर की राजनीतियों को मात देनेवाली चतुराई महाराणा प्रताप ने दिखायी थी। अपने छोटे भाई शक्तिसिंग को स्वयं महाराणा प्रताप ने ही अकबर के आश्रय में जाने के लिये मजबूर किया था। इतिहास ऐसा कहता है कि महाराणा प्रताप को राज्य मिलने के बाद ईर्ष्यावश शक्तिसिंह अकबर से जा मिला था। परन्तु यह सब महाराणा प्रताप ने ही करवाया था, यह इतिहास में नहीं लिखा है। इसके कारण महाराणा प्रताप को अकबर की सारी योजनाओं के बारे में पहले से ही पता चल जाता था और युद्ध में वे हमेशा एक कदम आगे रहते थे। इसलिए प्रचंड साधनसामग्री होने के बावजूद भी मुगलों की सेना महाराणा प्रताप को परास्त नहीं कर सकी। हल्दीघाटी का युद्ध, यह अकबर के द्वारा, राणा प्रताप को परास्त करने का आखिरी प्रयास था।

‘हल्दी घाटी’ के युद्ध के प्रभाव की ओर कोई ठीक से ध्यान नहीं देता, मग़र इसी युद्ध के बाद अकबर समझ गया की वह महाराणा प्रताप को पराजित नहीं कर सकता। इस लड़ाई में बुरी तरह हार जाने के बाद फिर कभी अकबर ने मेवाड़ की ओर मुड़कर नहीं देखा। अन्य सारी बातों का असर युद्ध पर तो होता ही है, परन्तु जिनके पास नैतिकता का अधिष्ठान होता है, वे योद्धा कितने भी बड़े शत्रु के सामने युद्ध में पराभूत नहीं होते। अमरीका जैसी महासत्ता को व्हिएतनाम जैसे छोटे से देश ने पराजय की धूल चटायी, उसका कारण व्हिएतनामी जनता की प्रखर राष्ट्रनिष्ठा यही था। हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप और उनकी सेना ने जो अतुलनीय पराक्रम दिखाया, उसका इतिहास में कोई मुकाबला नहीं हैं। परन्तु इस युद्ध के बारे में चिंतन करते समय एक विचार मन में खास तौर पर आता है।

यदि उस समय के अन्य राजपूत राजाओं ने महाराणा प्रताप का साथ दिया होता तो….

….तो शायद भारत का इतिहास बदल गया होता। परन्तु इतनी दूरदृष्टि इन राजाओं के पास नहीं थी।

‘बदायूँनी’ नाम का, घटनाओं को दर्ज़ कर रखनेवाला इतिहासकार अकबर की नौकरी में था। उसका काम था, हमेशा अकबर की तारीफ़ करते रहना। मग़र वह भी हल्दी घाटी के युद्ध का वर्णन अकबर के समर्थन में नहीं कर सका। इससे ज़्यादा कुछ कहने की आवश्यकता नहीं हैं।

अकबर के बाद मुगलों की सल्तनत जहाँगीर के हाथों में आयी। इस दौरान महाराणा प्रताप के सुपुत्र महाराणा अमरसिंग ने चित्तौड जीतकर दिखाया और अपने पिता के सपने को पूरा किया। जहाँगीर ने अपने पिता की असफलताओं से बहुत कुछ सीखा था। इसीलिये उसने महाराणा अमरसिंग से संघर्ष न करने की होशियारी दिखायी। जहाँगीर के बाद सत्ता की बाग़ड़ोर सँभाले हुए शाहजहाँ ने मेवाड़ की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा। पिता शाहजहाँ को कैद करके और अपने सभी भाइयों की क्रूरतापूर्वक हत्या करके औरंगजेब राजतख़्त पर बै़ठ गया। उसने लंबे अरसे तक शासन किया। उसके शासनकाल में मुगल सल्तनत का बहुत ही खूँख़ार और धर्मांध चेहरा दुनिया के सामने आया। उसने बड़े पैमाने पर हिन्दुओं का धर्मांतरण करवाया, मंदिर तोड़े। उसके राज्य में हिंदुओं को ज़िझिया जैसा कर देना पड़ता था।

शिवाजी महाराज, गुरुगोविंद सिंहजी ने औरंगजेब के साथ संघर्ष किया, यह हम सब जानते हैं। इस इतिहास को दोहराने की आवश्यकता नहीं हैं। परन्तु महाराणा अमरसिंग के परपोते महाराणा राजसिंग ने औरंगजेब को परास्त किया था, यह इतिहास हमें पता नहीं है। इसका कहीं पर उल्लेख नहीं किया जाता। महाराणा राजसिंग अपने कार्यकाल में एक भी युद्ध में पराजित नहीं हुये थे। अरवली के पर्वतों में महाराणा राजसिंग ने औरंगजेब को कुछ इस तरह घेर लिया था कि उससे निकलने के लिये औरंगजेब को सुलह करनी पड़ी थी। अपनी नाक मुठ्ठी में पकड़कर उसने जब मेवाड पर दोबारा आक्रमण ना करके का वचन दिया, तभी महाराणा राजसिंग ने उसे छोड़ा था।

हमें जो सिखाया जाता है, उस इतिहास में इन घटनाओं का जिक्र नहीं है। इसलिए ज़ाहिर है, हमारे सामने जो इतिहास रहता है, वह भारतीयों के द्वारा विदेशी आक्रमणकारियों के सामने घुटने टेके जाने का ही वर्णन करता है। यह बिलकुल भी सत्य नहीं है। यदि ऐसा हुआ होता, तो हज़ारों वर्षों में कई बार आक्रमण होने के बावजूद और कभी-कभी आक्रमणकारियों को अपना राज्य इस देश में स्थापित करने का मौक़ा मिलने के बाद भी भारतीय संस्कृति बरकरार नहीं रह सकती थी। कुछ देशों की संस्कृति को विदेशी आक्रमणकारियों के द्वारा महज़ डेढ़-दो दशकों में ही समाप्त कर दिये जाने के कई उदाहरण दुनिया के इतिहास में हैं ही। भारतीय संस्कृति इसका अपवाद (एक्सेप्शन) साबित हुई। इस बात का कारण विदेशी आक्रमणकारियों का औदार्य यह नहीं है, बल्कि प्रखर राष्ट्राभिमान एवं धर्माभिमान रहनेवाले भारतीयों के द्वारा विदेशी सत्ताओं का किया गया प्रतिकार इस देश की संस्कृति की रक्षा करता रहा।

मुगलों की सत्ता के रहते, युरोपीय देशों ने भारत में प्रवेश किया। अब भारतीयों का सामना बहुत ही कुटिल एवं चालबाज़ शत्रु से था। प्रारंभ में ये युरोपीय देश ऐसा दिखाते थे कि वे व्यापार करने के उद्देश्य से भारत आये हैं। व्यापार करते समय, वे इस देश की राजकीय, सामाजिक परिस्थिति का गहराई से अध्ययन कर रहे थे। ‘मुगलों की सत्ता अब समाप्त होने वाली है। भारत छोटे-छोटे राज्यों में बिखरा हुआ है। ऐसी परिस्थिति में चालाक़ी से इस देश पर कब्ज़ा किया जा सकता है’, यह बात उनके ध्यान में आयी। उस दिशा में उन्होंने सावधानीपूर्वक प्रयास शुरू किये। इतना ही नहीं, बल्कि इसके लिये युरोपीय देशों में सत्ता-प्रतियोगिता शुरू हो गयी और इस संघर्ष में बाज़ी मारी अंग्रेज़ों ने।

अंग्रेज़ यहाँ सिर्फ़ व्यापार करने नहीं आयें हैं, बल्कि उनका असली मक़सद कुछ और ही है, यह पहचाननेवाला एक दूरदर्शी राजा हमारे देश में पैदा हुआ, यह इस देश का सौभाग्य था। शिवाजी महाराज ने इन ‘गोरों’ पर नज़र रखने के लिये खांदेरी, उंदेरी और कुलाबा में किले बनवाये थे। अपनी खुद की नौसेना तैयार की थी। महाराज का राज्य मुगलों जितना बड़ा नहीं था। परन्तु बड़ा राज्य रहनेवाले मुगलों ने कभी नौदल बनाने का विचार नहीं किया था। उन्हें विदेश जाने के लिये विदेशी सत्ताओं से इजाज़त लेनी पड़ती थी। परन्तु महाराज ने अपना नौदल बनाने की दूरदृष्टि दिखायी थी। (क्रमश:)

– रमेशभाई मेहता 

One Response to "प्रतिकार का इतिहास"

  1. mohan raut   November 14, 2015 at 8:31 pm

    thanks for this write up..proud to be an indian

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