हैद्राबाद और जुनागढ़

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग २१

pg12-Sri Guruji(1)सन १९४८ में कश्मीर जीत लेना भारतीय सेना के लिए बहुत ही आसान था। भारत के साथ युद्ध छेड़नेवाले पाक़िस्तान की सेना यहाँ से दूम दबाकर भागी थी। आगे जाकर पूरे कश्मीर पर कब्ज़ा करने के लिए भारतीय सेना को कुछ ख़ास करने की आवश्यकता नहीं थी। लेकिन प्रधानमन्त्री नेहरू कश्मीर का मसला संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये और राष्ट्रसंघ ने शस्त्रसंधी के निर्देश दिये। इसका पालन करने का बन्धन भारत ने स्वयं पर लाद दिया और लगभग हाथ में आ चुका कश्मीर का भूभाग भारत ने पाक़िस्तान के लिए छोड़ दिया। आज कश्मीर के प्रश्‍न को लेकर भारत पर परमाणु बम फेंकने की धमकियाँ पाक़िस्तान दे रहा है। ऐसी बचकानीं धमकियों का जवाब देने की भारत को आवश्यकता नहीं है। वक़्त आने पर भारत का जवाब पाक़िस्तान को मिल ही जायेगा। ‘कश्मीर का पाकिस्तान के कब्ज़े में रहनेवाला भूभाग यह हमारा ही है और एक ना एक दिन वह हमें पुनः हासिल करना ही है’ यह हर एक भारतीय के मन पर दृढ़तापूर्वक अंकित होना ही चाहिए।

कश्मीर तो क्या, वैसे देखा जाये, तो आज पाक़िस्तान जिस भूभाग पर बसा है, वह सारा भूभाग हमारा ही है। पाक़िस्तान के कुछ बुद्धिमान् लोग ‘हमारा और भारत का इतिहास एवं सभ्यता एक ही है’ इस बात का खुलेआम स्वीकार करते हैं। लेकिन ऐसे लोग पाक़िस्तान में अल्पसंख्या में हैं और उनपर देशद्रोह के आरोप थोंपे जाते हैं, इसे अन्य किसी का नहीं, बल्कि पाक़िस्तान का ही दुर्भाग्य कहा जा सकता है। इस विषय का ज़िक्र हुआ इसलिए एक बात याद आ गयी। मैं और मेरा भाई महेश जोधपुर से अहमदाबाद ट्रेन से निकले थे। हम गुजराती में बात कर रहे थे और हमारे पड़ोस में बैठा एक श़ख्स हमारे साथ गुजराती में बात करने लगा। उसने उसके पास की मिठाई हमें ऑफर की। मैंने उनकी पूछताछ की। ये श़ख्स मूलतः गुजरात के ही, लेकिन बाद में उन्होंने कराची में बसेरा किया था।

कराची से भारत देखने के लिए वे आये थे और बिना पूछे ही उन्होंने उनके देश के बारे में बोलना शुरू किया। ये श़ख्स सुवर्णकार थे, जिनका कराची में गहनों का  सर्राफा था। जब तक कराची में हिंदुओं की बहुसंख्या थी, तब तक उनके तथा औरों के भी व्यवसाय में काफी बरकत थी। लेकिन बँटवारे के बाद यहाँ के हिंदु भारत लौट गये और इस परिवार को अपना व्यवसाय ही बदलना पड़ा, इतने बुरे हालात आए। अन्य कई परिवार भी इस कारण बरबाद हो गये, ऐसा यह आदमी बता रहा था। उनके देश में नेक़ी से व्यवसाय कर ही नहीं सकते, उलटा आप जितने ग़ैरक़ानूनी धंधे करते हैं, उतने ही प्रमाण में आपको सुरक्षा मिलती है, ऐसा उसका दावा था।

बेईमानी, अपप्रचार की हद पाकिस्तान ने पार कर दी। सन १९६५ और १९७१ के युद्ध में पाकिस्तान की सरकार जनता को उल्लू बना रही थी। सन १९६५ में पाक़िस्तानी सरकार का प्रचार शुरू था, ‘पहले हमारी सेना अमृतसर को अपने कब्ज़े में कर लेगी और उसके बाद दिल्ली जीतेंगे। पाक़िस्तानी सेना का रात का खाना दिल्ली में ही होगा।’ पाक़िस्तानी जनता ने उसपर विश्‍वास भी किया। चन्द कुछ दिनों में ही पाक़िस्तानी जनता को ज़ोरदार झटका लगा, क्योंकि भारतीय सेना लाहोर तक झपटी थी, यह सबकुछ उस कराची से आये श़ख्स ने बताया। उसी समय, ‘भारत में प्रवास कर बहुत ही अच्छा लगा, भारत ने कितना विकास कर लिया है, पाक़िस्तान कब इतना विकास कर सकेगा’, ऐसा यह श़ख्स बोल रहा था। ‘अब यहीं पर रहूँ ऐसा मुझे लगने लगा है, लेकिन अब वह मुमकिन नहीं है’ ऐसा खेद उस आदमी ने ज़ाहिर किया।

यह सन १९७८ की घटना है। आज भारत और पाक़िस्तान के बीच की खाई और भी बढ़ गयी है। ख़ैर! कश्मीर भारत में विलीन हो गया, मग़र फिर भी जुनागढ़ तथा हैद्राबाद ये रियासतें भारत में विलीन होने के लिए तैयार नहीं थीं। उसके लिए सरदार वल्लभभाई पटेल ने क्या किया, इसे हमें जान लेना ही चाहिए। ‘यह सारा देश का इतिहास है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ इसका क्या ताल्लुक है?’ ऐसा सवाल मन में उठ सकता है। लेकिन जब इस इतिहास को ठीक से समझ लें, तो यह सवाल मन में उठेगा ही नहीं।

हैद्राबाद यह भारत की बड़ी रियासत थी। इस समृद्ध रियासत की अपनी सेना तो थी ही; लेकिन जिस तरह जर्मनी की सेना के साथ हिटलर का ‘गेस्टापो’ यह विशेष पथक काम करता था, उसी तरह का काम करनेवाले निज़ाम के ‘रझाकार’ थे। इन रझाकारों ने राज्य की हिंदु प्रजा पर बेतहाशा अत्याचार किये। बेटी-महिलाओं के लिए तो शाम के वक़्त घर से बाहर निकलना तक मुश्किल हो गया था। निज़ाम के खुशामदी पिट्ठू नयी दिल्ली पर धावा बोलने की बातें कर रहे थे। भारत से घिरा हुआ होकर भी पूर्वी बंगाल यदि पाक़िस्तान का हिस्सा बन सकता है, तो हैद्राबाद रियासत पाक़िस्तान में क्यों नहीं रह सकती, ऐसा निज़ाम का सवाल था। इसी कारण हैद्राबाद रियासत की समस्या भारत की सुरक्षा को चुनौती साबित होने लगी थी।

हैद्राबाद रियासत में संघ का कार्य शुरू था। रझाकारों की पीड़ा सहते हुए भी यहाँ पर संघ की शाखाएँ चलायी जा रही थीं। यहाँ के हिंदु समाज के लिए यह आशा की किरण थी। हैद्राबाद के हालातों की जानकारी संघ ने गृहमंत्री पटेल तक पहुँचायी। यहाँ के समाज की सुरक्षा के लिए तेज़ी से कदम उठाना आवश्यक है, वरना हालात हाथ से निकल जायेंगे, यह संघ का सन्देश सरदार पटेल तक सुव्यवस्थित रूप में पहुँचाया गया।

ऐसे चुनौती पैदा करनेवाले हालातों में सरदार पटेल के मज़बूत नेतृत्व के दर्शन सारी दुनिया को हो गये। सरदार पटेल ने निज़ाम के साथ चर्चा करने के लिए कन्हैयालाल मुन्शीजी को हैद्राबाद भेजा। मुन्शीजी ने चर्चा में निज़ाम को उलझा रखा। इस दौरान हैद्राबाद रियासत को अपने कब्ज़े में करने की कड़ी तैयारी सरदार पटेल कर रहे थे। इस रियासत को तीनों तरफ से घेरने की योजना सरदार पटेल ने बनायी। भारतीय सेना के अधिकारी चौधरी पर यह ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी। लेकिन निज़ाम को किसी भी प्रकार का शक़ नहीं होगा, इस पद्धति से यह सारा काम शुरू था, जिसकी अन्य किसी को भी भनक तक नहीं थी। एक रात में भारतीय सेना ने हैद्राबाद पर कब्ज़ा कर लिया। इसके लिए एक गोली भी चलानी नहीं पड़ी।

चाणक्य का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण विधान है। शस्त्र धारण करने की एक विशेष कला रहती है। यदि वह साध्य हुई, तो शस्त्र चलाने की भी आवश्यकता नहीं रहती, दुश्मन शस्त्रधारी के धाक से ही शरण आ जाता है। निज़ाम का भी वैसा ही हुआ। भारतीय सेना का धैर्य एवं तैयारी देखकर ही निज़ाम बहुत डर गया और उसने विलीनीकरण के कागज़ातों पर हस्ताक्षर किये। इस बात का पता, दूसरे दिन अख़बारों में छपकर आने के बाद ही प्रधानमंत्री नेहरू को चला। इससे यह समझ में आ जाता है कि सरदार पटेल ने कितनी गोपनीयता का पालन किया था। इसलिए नेहरू काफी  हैरान हो गये। यह कार्रवाई की किसने, यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था। वे सरदार पटेल के घर गए और नाराज़गी प्रदर्शित कर हैद्राबाद के बारे में पूछने लगे। ‘जो हुआ, सो अच्छा ही हुआ’, ऐसा सरदार पटेल ने साफ़ साफ़ कहकर बात को वहीं पर ख़त्म कर दिया।

जुनागढ़ रियासत के विलीनीकरण की कथा इससे काफी  अलग है। जुनागढ़ के नवाब अपनी रियासत पाक़िस्तान में विलीन करने के चक्कर में थे। उस समय महात्मा गांधीजी के रिश्तेदार रहनेवाले शामलदास गांधी सरदार पटेल के साथ संपर्क में थे। उन्होंने दिल्ली जाकर जुनागढ़ के सारे हालात सरदार पटेल को बयाँ किये। जुनागढ़ में कुछ सैनिकों को सशस्त्र नागरी भेस में भेजने की आवश्यकता थी। उसके लिए अधिकृत मार्ग से शस्त्र तथा सेना भेजकर यह कार्रवाई करना मुनासिब साबित नहीं होता। इसीलिए सरदार ने अलग ही विकल्प का अवलंब किया। राजकोट रियासत जुनागढ़ से काफी  नज़दीक थी और इस रियासत के शस्त्रागार को सरदार पटेल ने ही सील किया था।
शामलदास गांधी राजकोट के इस शस्त्रागार की ज़िम्मेदारी रहनेवाले अधिकारी के पास गए। उन्होंने इस अधिकारी का सरदार पटेल के साथ दूरभाष से संपर्क करवाया। सरदार और इस शस्त्रागार के अधिकारी का क्या संवाद हुआ, यह हालाँकि इतिहास को ज्ञात नहीं हों, मग़र फिर भी दूसरे दिन अख़बार में ‘ये शस्त्र चोरी हुए हैं और इस बात की तहकिक़ात जारी है’ यह ख़बर छपकर आयी।

ये सारे शस्त्र जुनागढ़ में नागरी भेस में प्रविष्ट हो चुके भारतीय सैनिकों तक पहुँचे। ज़ाहिर है, जुनागढ़ के नवाब की एक न चली, उसने सीधे अपनी रियासत भारत में विलीन करने का निर्णय लिया और वह स्वयं पाकिस्तान में भाग गया। दुनिया के सामने यह चित्र खड़ा हुआ कि ‘जुनागढ़ की प्रजा ने ही बग़ावत कर शस्त्र हाथ में ले लिये और नवाब को रियासत भारत में विलीन करने पर मजबूर कर दिया।’ आज इस घटना को इतने वर्ष होने के बाद तो यह सत्य हमारे सामने आना चाहिए, इसलिए इस सारे घटनाक्रम के बारे में बताया। जुनागढ़ में दाख़िल हो चुके भारतीय सैनिकों को संघ के स्वयंसेवकों का संपूर्ण सहकार्य मिला था, इस बात पर ग़ौर करना चाहिए। सरदार पटेल ने जुनागढ़ में की हुई यह कार्रवाई ‘आरज़ी हुकूमत’-प्रजा की बग़ावत के नाम से जानी जाती है। इसमें मेरे बड़े भाई मधुसूदन मेहता भी सम्मिलित हुए थे।

कुछ रियासतों को विलीन कर लेने के लिए सरदार पटेल को ऐसे कठोर निर्णय लेने पड़े। वहीं, कुछ देशभक्त रियासतदार ख़ुद ही अपना राज्य भारत में विलीन करने के लिए तैयार हुए थे। सबसे पहले अपनी रियासत भारत में विलीन करने के लिए तैयार हुए, भावनगर के राजा ‘श्री कृष्णकुमार सिंह’ इनका स्मरण करना ही चाहिए। ये श्री कृष्णकुमारजी महान गोभक्त थे। ‘गीर’ जाति की गौओं का उन्होंने काफी  संशोधन किया था, उस विषय पर उन्होंने लेख लिखे थे। उनका एक लेख अँग्रेज़ी में से पोर्तुगीज़ भाषा में अनुवादित किया गया था। इस लेख को जब ब्राझिल के एक विकासशील क़िसान ने पढ़ा, तब वह इतना प्रभावित हुआ कि उसने कृष्णकुमारजी के साथ पत्रव्यवहार शुरू किया, उनसे मिलने की इच्छा प्रदर्शित की।

ब्राझिल के उस क़िसान ने भावनगर आकर कृष्णकुमारजी से मुलाक़ात की। उनकी गोशाला देखी और उनके अनुसन्धान के बारे में जानकारी भी ली। लौटते समय वह ‘गीर’ जाति की कुछ गौएँ और बैल ब्राझिल में ले गया। आज ब्राझिल में तक़रीबन तीस लाख गीर जाति की गौएँ हैं। इतना ही नहीं, बल्कि ब्राझिल में ‘गीर’ जाति की गौओं की हत्या पर प्रतिबंध लगाया गया है। इसीलिए उनकी संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। उसका ब्राझिल के डेअरी उद्योग को बहुत बड़ा लाभ मिल रहा है। ब्राझिल की राजधानी के एक मार्ग को ‘कृष्णकुमारजी’ का नाम दिया है। भारतीयों को इस बात पर गर्व होना ही चाहिए। भारत सरकार ने उस समय श्री कृष्णकुमार सिंह को ‘मद्रास प्रेसिडेन्सी’ के पहले गव्हर्नर के रूप में नियुक्त कर उनका सम्मान किया था।

बडोदा रियासत के राजा प्रतापसिंह गायकवाड यानी श्रीमान् सयाजीराव गायकवाड के सुपुत्र। सयाजीराव ने प्रजा के कल्याण एवं विकास हेतु हाथ में लीं कई योजनाएँ प्रतापसिंह ने जारी रखीं। ख़ासकर शिक्षा पर सयाजीराव गायकवाड ने दिया हुआ ज़ोर और विनामूल्य तथा अनिवार्य (कम्पल्सरी) शिक्षा की की हुई व्यवस्था, यह देश के सामने नया आदर्श रखनेवाली साबित हुई। भारत में ‘लायब्ररी’ यानी पुस्तकालय इस संकल्पना पर सबसे पहले सयाजीराव गायकवाड ने अमल किया था।

ऐसे कुछ रियासतदार ये देशभक्त और प्रजाहितदक्ष थे। यदि सारे ही रियासतदार ऐसे होते, तो शायद अँग्रेज़ों को बहुत पहले ही इस देश में से भगा देना मुमक़िन हुआ होता।

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