संघ का विदेश प्रवास

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ३५

Gurujiसन १९४६  का सितम्बर महीना शुरू था। ‘एस. एस. वसना’ नामक एक जहाज़, मुंबई के ‘बेलार्ड पिअर’ से केनिया के ‘मुंबासा’ के लिए रवाना हुआ था। इस जहाज़ में कई भारतीय अपना नसीब आज़माने के लिए अ़फ्रीका जा रहे थे। एक शाम को, जहाज़ के डेक पर ‘जगदीशचंद्र शास्त्री’ नामक युवक ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूम्यै’ यह संघ की प्रार्थना कर रहा था। डेक की दूसरी ओर रहनेवाले ‘माणेकलाल रुगानी’ इस युवक ने वह देखा और वह जगदीशचंद्र शास्त्री के पास आया। ‘क्या आप संघ की प्रार्थना कर रहे थे? मैं अभी यही प्रार्थना कर रहा था।’ यह उस जहाज़ की यात्रा का छठा दिन था। छः दिन तक दो स्वयंसेवक एक ही जहाज़ पर अलग अलग जगहों पर संघ की प्रार्थना कर रहे थे। लेकिन उनकी मुलाक़ात एवं परिचय आज हुआ।

जगदीशचंद्रजी दिल्ली से आये थे; वहीं, माणेकभाई जामनगर से। दूसरे दिन से इन दो स्वयंसेवकों ने एकसाथ प्रार्थना शुरू की। इन दोनों की मानो ‘एस. एस. वसना’ जहाज़ पर छोटी-सी शाखा ही शुरू हुई थी। वह देखकर, और भी १७ लोग उनके साथ प्रार्थना करने लगे। ये १७ लोग स्वयंसेवक नहीं थे। लेकिन बाद में वे स्वयंसेवक बने। इस प्रकार पहली ही बार, भारतभूमि के बाहर, नीले सागर को साक्षी मानकर, खुले आकाश के तले, एक जहाज़ पर संघ की शाखा शुरू हुई। मेरे खयाल से यह बहुत ही बड़ी बात है।

यह जहाज़ १६ दिन बाद मुंबासा पहुँचा। शुरू शुरू में माणेकभाई केनिया के ‘न्येरी’ नामक गाँव में रहे; वहीं, जगदीशचंद्रजी नैरोबी गए और वहाँ की ‘सनातन धर्म कन्याशाला’ में अध्यापक के तौर पर काम करने लगे। कुछ ही दिनों में माणेकभाई भी इसी स्कूल में अध्यापक बनकर काम करने लगे। १४ जनवरी १९४७   को ‘मकर संक्रांति’ के शुभमुहूर्त पर नैरोबी स्थित एक मैदान में संघ की शाखा शुरू हो गयी।

‘एस. एस. वसना’ जहाज़ पर संघ की प्रार्थना में सहभागी हुए वे १७ लोग इस शाखा में उपस्थित थे। ‘हमें यहाँ पर साप्ताहिक शाखा शुरू करनी चाहिए’ ऐसा निर्णय उन सबने कर लिया। इस शाखा में हिंदु, सीख और पारसी भी थे। धीरे धीरे इस शाखा ने संघ की भारतीय शाखाओं जैसा ही स्वरूप धारण कर लिया। उस ज़माने में भी केनिया में बड़े पैमाने पर हिंदु समाज बसा था। केनिया ही नहीं, बल्कि सारे अ़फ्रीका खंड में ही बड़ी तादात में भारतीय आकर बसे थे। कुछ लोग तो दो सौ सालों से अ़फ्रीका में हैं। मग़र फिर भी उन्होंने अपने भारतीयत्व को बनाये रखा था। लेकिन उसे संगठित स्वरूप प्राप्त नहीं हुआ था।

अ़फ्रीका के ये भारतीय अपने अपने समुदाय के दायरे में रह रहे थे। सबको एकसाथ, एक छत्र के तले लानेवाला संगठन नहीं था। यहाँ पर उसकी बहुत बड़ी आवश्यकता थी। हिंदु समाज को एक छत्र के तले लाने का काम यहाँ पर शुरू हुई संघ की शाखा ने किया।

कुछ साल बाद केनिया में ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ इस संगठन का अधिकृत रूप में पंजीकरण किया गया। आगे चलकर पूरी दुनिया में ‘हिंदु स्वयंसेवक संघ’ कार्यरत हुआ। इसका प्रेरणास्त्रोत स्वाभाविक रूप में ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ ही था। केनिया स्थित हिंदु समुदाय को ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ के रूप में बहुत बड़ा व्यासपीठ मिला। केनिया में संघ का कार्य बढ़ने लगा। केनिया से सटा हुआ ‘युगांडा’; साथ ही, आज जिसे ‘टांझानिया’ का नाम से जाना जाता है, वह ‘टांगानिका’ और ‘झांजीबार’ इन देशों में जगदीशचंद्र शास्त्रीजी ने प्रवास किया। वहाँ के हिंदु समुदाय को संघकार्य की प्रेरणा दी। यहाँ पर भारी मात्रा में हिंदु थे। इस कारण जगदीशचंद्र शास्त्रीजी के आवाहन को बहुत ही अच्छा प्रतिसाद मिला।

दूसरी ओर भारत में, संघ के ज्येष्ठ प्रचारक लक्ष्मणरावजी भिडे एवं चमनलालजी ने संघ के ‘विश्‍व विभाग’ का कार्य शुरू किया। संघ के जो जो स्वयंसेवक देश से बाहर जाते थे, उनका विवरण चमनलालजी दर्ज़ कर रखते थे। अब चमनलालजी की बात निकली ही है, तो उनके बारे में कुछ बताये बग़ैर मुझसे रहा नहीं जाता। ये चमनलालजी एम.एस.सी गोल्ड मेडलिस्ट थे। रावलपिंडी के एक बहुत ही रईस ऐसे व्यापारी ख़ानदान में उनका जन्म हुआ। यहीं पर वे स्वयंसेवक बन गए और उन्होंने आजीवन अपने आपको संघकार्य के लिए समर्पित कर लिया। बँटवारे के बाद वे दिल्ली आये। ‘मेरा सारा जीवन मैं संघकार्य के लिए समर्पित करूँगा’ ऐसा चमनलालजी द्वारा बताये जानेपर, उनके माता-पिता बीच में रुकावट नहीं बने, उल्टे उन्होंने चमनलालजी को आशीर्वाद ही दिए। चमनलालजी संघ के प्रचारक बने। दिल्ली स्थित ‘केशवकुंज’ कार्यालय के बाहर फियाट गाड़ी खड़ी रहती थी। यह गाड़ी चमनलालजी को उनके पिताजी ने तोह़फे के रूप में दी थी।

‘यह गाड़ी मुझे नहीं, बल्कि संघ के लिए उपहार के रूप में दे दीजिए’ ऐसी विनति उन्होंने अपने पिताजी से की। पिताजी ने उसे मान लिया। चमनलालजी से मैं कई बार मिल चुका हूँ। कभी मुंबई आये, तो वे मेरे ही घर ठहरते थे। यह मेरा सौभाग्य है कि उनका स्नेह मुझे मिला। बहुत ही मृदुभाषी रहनेवाले चमनलालजी ने जीवन भर कपड़ों के दो ही संचों से काम चलाया। लेकिन उन्हें उस ज़माने में मिली उस फियाट का यदि किसीने ज़िक्र किया, तो वे नाराज़ हो जाते थे। उन्हें वह बात बिलकुल भी जँचती नहीं थी।

ऐसे ये चमनलालजी, दूसरे देश जानेवाले स्वयंसेवकों को मार्गदर्शन किया करते थे। ‘आप जहाँ जाओगे, वहाँ के हिंदुओं को संघटित कीजिए और उनके भारत से रहनेवाले संबंध और भी दृढ़ करने के प्रयास कीजिए’ ऐसा चमनलालजी उन्हें बताते थे। उनके माहिर मार्गदर्शन में स्वयंसेवकों ने इस तरह काम शुरू किया। उसके परिणाम भी दिखायी देने लगे। मेरा स्वयं का एक अनुभव बताता हूँ। अमरीका में वास्तव्य करनेवाली एक महिला भारत आयी थी। वह मेरे संपर्क में आयी। ‘मेरे सामने बहुत बड़ी समस्याएँ हैं। मुझे वक़ील की ज़रूरत है, लेकिन अमरिकी वक़ील की फ़ीज़ मेरी क्षमता के बाहर होने के कारण मैं नहीं दे पाऊँगी’ ऐसा इस भगिनी ने मुझे बताया। मैंने चमनलालजी को दिल्ली में फोन लगाया और इस भगिनी की समस्या से उन्हें अवगत कराया। उनसे फ़ोन पर संभाषण होने के दस मिनट के अंदर मुझे अमरीका से, वहाँ के स्वयंसेवक रहनेवाले एक वक़ील का फोन आया। ‘चमनलालजी ने इस भगिनी की समस्या के बारे में मुझे बता दिया है। उन्हें मेरा फ़ोन नंबर दीजिए और अमरीका आने पर मुझसे संपर्क करने के लिए उन्हें कहिए। उनका काम हो जायेगा’ ऐसा इस वक़ील ने मुझे बताया। कुछ समय बाद ‘मेरा काम हो गया है’ ऐसा इस भगिनी ने मुझे बताया। उसके लिए एक पैसा भी उसे खर्च करना नहीं पड़ा।

चमनलालजी का ज़िक्र हुआ और ये सारीं यादें ताज़ा हो गयीं। ख़ैर! जगदीशचंद्रजी और माणेकभाई ने पूर्व अ़फ्रीका में शुरू किया संघ का कार्य फैलता गया। ज्येष्ठ प्रचारक लक्ष्मणराव भिडेजी को सन १९५८ में केनिया भेजा गया। उससे पहले वे उत्तर प्रदेश में ‘प्रचारक’ के तौर पर काम कर रहे थे। यहीं पर श्री. भाऊराव देवरस ‘प्रांतप्रचारक’ और लक्ष्मणरावजी उनके सहयोगी थे। केनिया में जगदीशचंद्र शास्त्रीजी की उपस्थिति में केनिया के हिंदु संगठन, मंदिर और साधुसंतों से मुलाक़ात की। उन्हें संघ का तत्त्वज्ञान और कार्य इनकी विस्तृत जानकारी दी, उसकी अहमियत जता दी। केनिया के बाद युगांडा, टांझानिया और झांबिया इन देशों में स्थित हिंदु समाज के मान्यवरों से मुलाक़ात कर लक्ष्मणरावजी ने उन्हें संघ के साथ जोड़ लिया। इस कारण अ़फ्रीकी देशों में संघ का कार्य तेज़ी से आगे बढ़ता गया। केनिया यह इस कार्य का केंद्र बना। केनिया के ‘नैरोबी’ शहर में ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय’ की स्मृति में निर्माण किया गया ‘दीनदयाल भवन’ यह यहाँ का संघ का मुख्य कार्यालय है।

(क्रमश:)

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