सर्वधर्मसद्भाव – ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ३८

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद

‘विश्‍व हिन्दु परिषद’ की स्थापना यह ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था। संघ की स्थापना सन १९२५  में हुई और ‘विश्‍व हिन्दु परिषद’ की स्थापना का वर्ष था, सन १९६४। इस तक़रीबन चार दशकों की कालावधि में संघ का कार्य अलग अलग क्षेत्रों में फैल रहा था। श्रीगुरुजी के मार्गदर्शन में विभिन्न संगठनों की स्थापना हो चुकी थी और ये संगठन किस तरह अलग अलग मार्गों से समाज की सेवा कर रहे थे, समाज को संगठित कर रहे थे, इसकी जानकारी हम ले ही चुके हैं। लेकिन ‘विश्‍व हिन्दु परिषद’ की स्थापना के पीछे का विचार एवं प्रेरणा अलग थी।

धार्मिक शक्ति के साथ साथ राष्ट्रशक्ति को भी एकत्रित आना होगा, ऐसा गुरुजी का आग्रह था। उसके लिए हर एक को अपने अहंकार का त्याग करना अनिवार्य है, ऐसा गुरुजी का कहना था। ‘मेरे ‘मैं’ को बाजू में हटाकर ‘हम’ का पुरस्कार करने से एकता बढ़ती है, हमारी ताकत बढ़ती है और संगठन आगे बढ़ता है’ ऐसा गुरुजी का विश्‍वास था। ‘मतभेद के कारण हज़ार वर्ष हमें काफ़ी कुछ सहना पड़ा। देश का विभाजन भी इसी कारणवश हुआ। लेकिन इसके आगे ऐसा कुछ होने नहीं देंगे’ ऐसा वज्रनिर्धार करने का आवाहन श्रीगुरुजी ने धर्मशक्ति से किया।

यह विचार इतना तेजस्वी एवं प्रभावी था कि ‘विश्‍व हिन्दु परिषद’ को भारी प्रतिसाद मिला और आज भी मिल रहा है। हमारे देश का जनतन्त्र पर विश्‍वास है। इस कारण, हमारे धर्म के हित के लिए जनतन्त्रवादी मार्ग से कार्य करने में कुछ भी बुराई नहीं है। संवैधानिक मार्ग से राजनीतिक गतिविधियों पर प्रभाव डालने का कार्य करना, यह केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं, बल्कि सभी के हित का साबित होता है। लेकिन इस कार्य को करते हुए, आज तक ग़लत धारणाएँ, अनिष्ट प्रथाएँ, रितिरिवाज़ इनके कारण हमने ही कभी धर्म से दूर किये लोगों को पास लेने का कार्य हिंदुधर्मियों को करना होगा। इसे मुमक़िन बनाने के लिए संकुचित स्वार्थी विचारों को बाजू में हटाकर हमें हमारी दृष्टि को व्यापक बनाना होगा। उस दिशा में ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ निरंतर कार्य कर रही है।

‘विश्‍व हिंदु परिषद’ के पहले अध्यक्ष स्वामी चिन्मयानंदजी और पहले महामंत्री दादासाहब आपटे ने इस संगठन के कार्य को बहुत आगे बढ़ाया। लेकिन भारत जैसे विशाल देश के बारे में और दुनियाभर में वास्तव्य कर रहे हिंदु समाज के बारे में विचार किया, तो यह कार्य पर्याप्त नहीं था। इसमें इससे भी व्यापक कार्य की ज़रूरत महसूस हो रही थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ की ज़िम्मेदारी कुछ ज्येष्ठ स्वयंसेवकों पर सौंप दी। आगे चलकर माननीय श्री. अशोक सिंघलजी, आचार्य गिरीराज किशोरजी इनके साथ, अन्य कुछ ज्येष्ठ प्रचारकों ने, उनपर सौंपी गयी ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ की ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभायी। ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ ने ही सन १९६९ में भारत में पहला ‘विश्‍व हिंदु सम्मेलन’ आयोजित किया था। दुनियाभर के हिंदु धर्म के प्रमुख संतमहंत, आचार्य इसमें सम्मिलित हुए थे। सन १९७४ में भी प्रयाग में ‘विश्‍व हिंदु सम्मेलन’ का आयोजन किया गया।

सन १९९५  में दक्षिण अफ्रीका  में ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ के मार्गदर्शन में ‘आंतर्राष्ट्रीय हिंदु संमेलन’ का आयोजन किया गया था। इसकी विशेषता यह थी कि इस सम्मेलन में दक्षिण अफ्रीका  के राष्ट्राध्यक्ष रहनेवाले नेल्सन मंडेला ‘मुख्य अतिथि’ के रूप में उपस्थित थे। उन्होंने इस सम्मेलन के लिए चालीस मिनटों की अवधि दी थी।

लेकिन असल में वे यहाँ ढ़ाई घण्टें ठहरे। अपने भाषण में उन्होंने हिंदु समाज की मुक्तकंठ से प्रशंसा की।

दक्षिण अफ्रीका  के स्वतन्त्रतासंग्राम में हिंदुधर्मियों ने भारी योगदान दिया है, इसका मंडेला ने इस समय कृतज्ञतापूर्वक स्मरण किया। इस समय ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ के ‘विश्‍व विभाग’ की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गयी थी। इसके अलावा ‘अफ्रीका  खंड के समन्वयक’ के तौर पर भी मुझे काम देखना था। इस कारण मैं भी वहाँ पर उपस्थित था। मंडेलाजी का भाषण बहुत ही भावपूर्ण था। उसे सुनते हुए मेरी भी आँखों में आँसू आये थे। लेकिन मेरे पड़ोस में साड़ी पहनी हुई एक महिला बैठी थीं, उनकी आँखों से भी आँसू बह रहे थे। यह महिला दक्षिण अफ्रीका स्थित हिंदु समाज से थी, यह बिना कहे ही समझ में आ रहा था। मैंने उन्हे, ‘आप इतनी भावुक क्यों हुईं’ ऐसा पूछा। उसपर उन्होंने दिया हुआ जवाब मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ। ‘दक्षिण अफ्रीका  की स्वतंत्रता के लिए मैंने अपने युवा बेटे को खोया है। वह अँग्रेज़ों के विरोध में लड़ा। उसे गिरफ़्तार किया गया और अँग्रेज़ उसे कहाँ ले गये, इसका आज तक पता नहीं चल सका है’ यह कहते हुए वह माता अपने बेटे के लिए आँसू बहा रही थी। उसके बेटे की तरह ही कई हिंदुओं ने दक्षिण अफ्रिका को आज़ाद करने के लिए अँग्रेज़ों के विरोध में बलिदान दिया है।

‘भारत प्यारा देश हमारा है…’ यह ‘रोज़ा’ नामक सिनेमा का गाना इस समय प्रस्तुत किया गया। स्कूली छात्रों ने हाथ में ‘तिरंगा’ लेकर इस गाने पर सुंदर नृत्य किया। नेल्सन मंडेलाजी ने इन बच्चों का ख़ास तौर पर कौतुक किया। दक्षिण अफ्रीका  के डर्बन में हुए इस सम्मेलन में, ‘ह्युमन हार्मनी थ्रू रामायण’ इस विषय पर मेरा व्याख्यान आयोजित किया गया था। उस समय मैंने रामायण के बारे में जो कुछ भी कहा, उसे सुनकर कई लोग मुझसे मिलने आये। दक्षिण अफ्रीका  में लगभग दो सौ सालों से हिंदु समाज वास्तव्य कर रहा है। उनकी कई पीढ़ियाँ दक्षिण अफ्रीका  में पलीं-बढ़ीं। इस कारण, ‘हिंदु धर्म से हम बहुत दूर आ चुके हैं’ ऐसी उनकी भावना हो चुकी थी। लेकिन ‘आपका व्याख्यान सुनने के बाद हम सर्वप्रथम भारत की यात्रा करेंगे’ ऐसा इन लोगों ने मुझसे कहा। ‘चाहे जो भी हों, भारतीय लोग हमें बीच मँझधार न छोड़ें’ ऐसा भावपूर्ण आवाहन इन हिंदु बांधवों ने इस समय किया। यह कहते हुए गर्व महसूस होता है कि यहाँ का हिंदु समाज धर्म के साथ एवं भारत के साथ दृढ़तापूर्वक जोड़ा गया है।

ऐसा ही अनुभव मुझे इंडोनेशिया के ‘बाली’ में आया था। सालोंसाल यहाँ पर वास्तव्य करनेवाले हिंदु समाज के कुछ लोगों से मिलने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। उन्होंने भी दक्षिण अफ्रीका  के हिंदुओं की तरह ही आवाहन किया। ‘आप यहाँ पर आते रहिए, आपके आने से हम हमारे धर्म के साथ अधिक अच्छी तरह से जुड़ गये हैं। हमारी उपेक्षा मत कीजिए। कन्या को ससुराल भेजने के बाद क्या मायके के लोगों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं रहती?’ यह सुनकर मैं आश्‍चर्यचकित हो गया था। बाली में ही गणेशजी का एक मंदिर है। मैं वहाँ पर दर्शन करने गया था। ‘हे गणराया, यहाँ के हिंदु समुदाय की रक्षा करना और हिंदुओं को एकसंघ बनाना’ ऐसी प्रार्थना मैंने की। वह सुनकर मेरे साथ रहनेवाले हमारे गाईड गद्गद हो उठे। उनके मुँह से एक लफ़्ज़ तक निकल नहीं रहा था। वे रोमांचित हो उठे। ‘आप हमारी इतनी चिन्ता करते हैं, यह देखकर ‘हमारा कोई तो है’ यह विश्‍वास दृढ़ होने लगा है’ ऐसा इस गाईड ने मुझे बताया।

केवल दक्षिण अफ्रीका  में ही नहीं, बल्कि इंग्लैंड़, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया ऐसे देशों में भी आंतर्राष्ट्रीय हिंदु सम्मेलन आयोजित किये जा चुके हैं। इन देशों की सरकारों ने भी हिंदु सम्मेलन की प्रशंसा की। क्योंकि ये सम्मेलन उन देशों की सरकारों को मुश्किल में डालने के लिए या किसी चीज़ की माँग करने के लिए आयोजित नहीं किये गए थे। उन देशों की सुरक्षा, संस्कृति और अखंडता को इन हिंदु सम्मेलनों से किसी भी प्रकार का ख़तरा नहीं था, उल्टा यदि हुआ तो लाभ ही होनेवाला था। ‘हमारा मूल भारत में है’ इस बात को न भूलते हुए; जहाँ पर वे वास्तव्य करते हैं, उस देश के साथ निष्ठा बनाये रखने का काम हिंदुधर्मिय प्रामाणिकता से करते आये हैं, यह ये देश जानते हैं। इसीलिए इन देशों से हिंदु सम्मेलनों को सहयोग मिलता रहा।

हमारे देश में हिंदुओं की बहुसंख्या रहने के कारण एकता का महत्त्व हमारी समझ में नहीं आता। लेकिन विदेश में विचरण करते हुए, ‘एकता कितनी आवश्यक है’, यह हमारी समझ में आ जाता है। मॉरिशस में हिंदु समाज बहुसंख्या में है, इसीलिए वहाँ का हिंदु समाज विभिन्न गुटों में विभाजित हुआ है और इस कारण कई बार राजनीतिक लाभ से भी वंचित रहने की नौबत इस समाज पर आती है। ऐसे में, यहाँ के हिंदु समाज के मन पर एकता का महत्त्व अंकित करने का काम मुझपर सौंपा गया था। यहाँ के कई हिंदु संगठनों को सर्वप्रथम एक छत्र के तले लाया गया। ‘हिंदुओं के हित में बाधा डालेगा, ऐसा कुछ भी हम नहीं करेंगे और भारत के साथ निरन्तर उत्तम संबंध रखेंगे’ ऐसी प्रतिज्ञा ही इन संगठनों ने की। अब इस एकता के बहुत बड़े लाभ मॉरिशस को मिल रहे हैं।

‘विश्‍व हिंदु परिषद’ यह कोई धर्मांध संगठन नहीं है। उलटा ‘विश्‍वकल्याण के लिए प्रार्थना करनेवाली’ संस्कृति में से जन्मा यह संगठन, किसी का भी विद्वेष नहीं करता। ‘सर्वधर्मसद्भाव’ पर विश्‍व हिंदु परिषद का पूरा विश्‍वास है। इसीलिए इस संगठन को दुनियाभर से भारी प्रतिसाद मिला। जैसा कि आरोप किया जाता है, वैसे यह संगठन यदि धर्मांध होता, तो क्या दुनियाभर के हिंदु जनसमुदाय से ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ को इस तरह का प्रतिसाद मिल सकता? यक़ीनन ही नहीं। ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ ने हज़ारों सेवा प्रकल्प हाथ में लिये हैं। आनेवाले समय में इससे भी अधिक सेवा प्रकल्प शुरू करके देश की सेवा एवं धर्म के लिए कार्य करने की ‘विश्‍व हिंदु परिषद’ की आकांक्षा है। इस देश की मूल संस्कृति को क़ायम रख, अखंड समाज का निर्माण और उसके ज़रिये देश की सांस्कृतिक सुरक्षा एवं सेवा करने का ध्येय ‘विश्‍व हिंदु  परिषद’ के सामने है।

इस देश में कइयों का धर्मांतरण हुआ है। आज उसके इतिहास में जाने की आवश्यकता नहीं। लेकिन अन्य धर्मों का स्वीकार किये हुए लोगों की मूल संस्कृति, जीवनपद्धति, परंपरा ये संपूर्णतः बदल नहीं सकते। उनसे वे पूरी तरह अलग हो नहीं सकते। हम सभी के पूर्वज एक ही थे, इसे भला कैसे भुला सकते हैं? इसे भूलना नहीं चाहिए और अन्य धर्मों का स्वीकार किये हुए हमारे बांधवों को भी इसकी विनम्रतापूर्वक याद दिलानी चाहिए। उससे भी हमारे समाज की कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। लेकिन यह सबकुछ हमारे देश में दरारें पैदा करने के लिए या तनाव पैदा करने के लिए नहीं, बल्कि तनाव को कम करने एवं समाज में पैदा हुईं खाइयों को मिटाने के लिए करना है। यह देश हम सबका है। अपने ही घर में अपना ही नुकसान करने के पागलपन को संघ में स्थान नहीं है।

हिंदु धर्म महासागर की तरह है। महासागर में कई नदियाँ-नालियाँ विलीन हो जाती हैं। महासागर में पवित्रतम गंगामाता का भी पानी आता है और किसी नाली का भी। महासागर इन सभी का बाहें फैलाकर स्वागत करता है, लेकिन अपनी विशेषताओं का त्याग नहीं करता। हिंदु धर्म और भारतीय समाज को ‘महासागर’ की उपमा दी जाती है, उसके पीछे यही कारण होगा।
(क्रमश:)

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