भारतीय मज़दूर संघ

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ३३

 pg12_Dattopant Thengadiश्रीगुरुजी ने ज्येष्ठ स्वयंसेवकों के साथ चर्चा कर, ‘मज़दूर संगठन का अर्थ ‘उद्योगों के साथ झगड़ा करनेवाला संगठन’ ऐसा नहीं होना चाहिए’ यह बात जतायी। ‘मज़दूरों पर अन्याय न हों, इसलिए मज़दूर संगठन अवश्य काम करें, लेकिन उद्योग के विकास में ही मज़दूर का वास्तविक हित समाया है, इस बात को मज़दूर संगठन कभी भी न भूलें’ ऐसा गुरुजी का आग्रह था। गुरुजी के इन विचारों का पुरस्कार करनेवाला ‘भारतीय मज़दूर संघ’ यह संगठन सन १९५५ के २३  जुलाई को भोपाल में स्थापन हुआ। श्री. दत्तोपंतजी ठेंगडी ये भारतीय मज़दूर संघ के पहले महासचिव थे।

आज़ादी मिलने के बाद देश में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। औद्योगिकीकरण यह देश की ज़रूरत थी ही। लेकिन उसपर ध्यान केंद्रित करते समय, भारतीयों का परंपरागत व्यवसाय रहनेवाली ख़ेती को अनदेखा करने का कोई कारण ही नहीं था। लेकिन आज़ादी के बाद बहुत समय तक राज्यकर्ताओं ने ख़ेती को नज़रअन्दाज़ कर दिया, यह वास्तव है। औद्योगिकीकरण के विकास के साथ साथ, कामगारों के अधिकार का प्रश्‍न प्रस्तुत करने के लिए कामगार संगठन उदयित होने लगे। इन संगठनों पर साम्यवादी विचारधारा का बहुत बड़ा प्रभाव एवं वर्चस्व था। इन संगठनों की आक्रामक नीतियों के कारण उद्योगों का भला तो हो ही नहीं रही था, साथ ही, कामगारों का भी हित नहीं हो रहा था। क्योंकि इन ‘लड़ाकू’ कामगार संगठनों के सामने विदेश का ‘मॉडेल’ था। विदेश में भी इस प्रकार के संगठनों को कोई ख़ास सफलता मिल रही थी ऐसी बात नहीं थी।

इसी दौरान श्रीगुरुजी ने ज्येष्ठ स्वयंसेवकों के साथ चर्चा कर, ‘मज़दूर संगठन का अर्थ ‘उद्योगों के साथ झगड़ा करनेवाला संगठन’ ऐसा नहीं होना चाहिए’ यह बात जतायी। ‘मज़दूरों पर अन्याय न हों, इसलिए मज़दूर संगठन अवश्य काम करें, लेकिन उद्योग के विकास में ही मज़दूर का वास्तविक हित समाया है, इस बात को मज़दूर संगठन कभी भी न भूलें’ ऐसा गुरुजी का आग्रह था। गुरुजी के इन विचारों का पुरस्कार करनेवाला ‘भारतीय मज़दूर संघ’ यह संगठन सन १९५५ के २३  जुलाई को भोपाल में स्थापन हुआ। श्री. दत्तोपंतजी ठेंगडी ये भारतीय मज़दूर संघ के पहले महासचिव थे।

pg12-Mazdoor-sanghदत्तोपंतजी ठेंगडी ये महान चिंतक और संघटक थे। उनका जन्म  १० नवम्बर १९२० को वर्धा स्थित आरवी गाँव में हुआ। बहुत ही तेज़ बुद्धिमत्ता रहनेवाले दत्तोपंतजी ५० सालों तक संघ के प्रचारक रहे। जीवन के आख़िरी पलों तक वे संघ के लिए कार्यरत थे। उन्होंने ‘भारतीय मजदूर संघ’ की स्थापना तो की ही; साथ ही, ‘भारतीय किसान संघ’, ‘सामाजिक समरसता मंच’, ‘स्वदेशी जागरण मंच’, ‘सर्वेपंथ समादार मंच’ और ‘पर्यावरण मंच’ इनकी भी स्थापना की।

‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ और ‘सहकार भारती’ इन संगठनों के संस्थापकों में भी दत्तोपंतजी का नाम था। प्रचंड व्यासंग रहनेवाले दत्तोपंतजी द्वारा मराठी, हिंदी और इंग्लिश में लिखीं गयी कई क़िताबें हैं। उन क़िताबों में से उनकी विद्वत्ता और दूरंदेशी इनका एहसास होता है। उनके ‘नॅशनलिस्ट पर्स्यू अँड अवर नॅशनल रेनेसाँ’ इस ग्रंथ को काफ़ी सराहा गया था। संघ को प्राप्त कुछ अनमोल रत्नों में दत्तोपंतजी का नाम लिया जाता है।

स्थापना के पूरे बारह वर्षों के बाद ‘भारतीय मज़दूर संघ’ की अखिल भारतीय परिषद सन १९६७ में दिल्ली में आयोजित की गयी। ५४१ कामगार संगठनों ने ‘भारतीय मज़दूर संघ’ में सहभागी होने का निर्णय लिया। अब ‘भारतीय मज़दूर संघ – बीएमएस’ के सदस्यों की संख्या २ लाख ४६  हज़ार से भी ऊपर पहुँच चुकी थी।

‘दुनिया को कामगारों, एक हो जाओ और दुनिया जीतो’ ऐसा साम्यवादी तत्त्वज्ञान का संदेश था। वहीं, ‘उद्योग एवं कामगार एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं’ इस बात पर दृढ़ विश्‍वास रहनेवाले ‘बीएमएस’ के विचार बहुत ही अलग थे। ‘कामगारशक्ति एकसाथ होकर इस विश्‍व को अधिक सुन्दर बना सकती है’ इस विधायक विचार पर ‘बीएमएस’ का काम शुरू हुआ। कामगार और उद्योगक्षेत्र के लोगों पर इन विचारों का प्रभाव बहुत ही बढ़ने लगा। इस कारण ‘बीएमएस’ का विस्तार होता गया। ‘यह देश हमारा है और देश के विकास के लिए उद्योग का विकास होना अत्यधिक आवश्यक है। वहीं, कामगारों का अहित कर कोई भी उद्योग बढ़ नहीं सकता’ यह विधायकता देश के कामगारविश्‍व को नया संदेश देनेवाली साबित हुई।

‘विधायक, संवैधानिक मार्ग से कामगारों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी जा सकती है, उनकी माँगों को प्रस्तुत किया जा सकता है’ यह ‘बीएमएस’ ने कई बार दिखा दिया। इसका एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण देता हूँ। देश के सुविख्यात उद्योजक श्री. घनश्यामदासजी बिर्ला एक बार अपने कई उद्योगों में से एक कारख़ाने में गये। वे बिना किसी पूर्वसूचना के, अचानक कारख़ानों में जाया करते थे। इस कारख़ाने में उन्हें अलग ही अनुभव प्राप्त हुआ। कामगारों के खाने की छुट्टी हुई। यह छुट्टी एक घंटे की थी, मग़र कामगारों ने चन्द आधे घंटे में ही खाना खा लिया और वे पुनः काम पर लग गये। हर एक कामगार के हाथ पर काली रिबन बाँधी हुई थी। उसे देखकर घनश्यामदासजी को अचरज हुआ। उन्होंने पूछताछ की।

तब उन्हें पता चला कि ये सारे कामगार हड़ताल पर थे। कामक़ाज़ बन्द करके, व्यवस्थापन के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी करते हुए यह हड़ताल शुरू नहीं थी; बल्कि उत्पादन बढ़ाकर, उत्पादन का दर्जा क़ायम रखकर कामगार बहुत ही विधायकता से अपना निषेध दर्ज़ कर रहे थे। यह देखकर घनश्यामदासजी हैरान हो गये। उन्होंने ‘कामगारों की क्या माँगें हैं’ यह अपने व्यवस्थापन से जान लिया। वे माँगें बिलकुल जायज़ हैं, यह ध्यान में आ जाते ही, उन्होंने उन सब माँगों को मंज़ूर करने की सूचना अपने व्यवस्थापन से की।

देखिए, हड़ताल करके, ज़ोरोंशोरों से नारेबाज़ी करके शायद ये माँगें पूरी हो भी जातीं। लेकिन उससे व्यवस्थापन और कामगार इनके बीच कटुता उत्पन्न हो जाती। साथ ही, इस संघर्ष के मार्ग पर चलकर माँगे मंज़ूर हुई ही होतीं, इसका यक़ीन दिलाया नहीं जा सकता था। उसकी अपेक्षा, ‘उत्पादन को बढ़ाकर अपना अधिकार माँगने का’ यह मार्ग अधिक असरदार साबित हुआ। इसमें नुकसान किसी का भी नहीं हुआ।
यह ‘बीएमएस’ की हड़ताल थी। ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का प्रभाव रहने के कारण, ‘उद्योग का नुकसान यानी देश का नुकसान’ यह विचार ‘बीएमएस’ में पूर्णतः अंकुरित हो चुका है। इन सकारात्मक विचारों से प्रभावित होकर उद्योगक्षेत्र के कई लोग ‘हमारे यहाँ ‘बीएमएस’ की युनियन चाहिए’ ऐसी माँग करने लगे। ‘बीएमएस’ से जुड़ जाने के लिए और भी कई कामगार संगठन आगे आये।

(क्रमश:)

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