तीसरे सरसंघचालक- बाळासाहब

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ४८

बाळासाहब ने सन १९६० से अपने आपको पुनः संघकार्य में समर्पित कर दिया। उस दौरान गुरुजी का देशभर में प्रवास शुरू था। ऐसे समय बाळासाहब नागपुर में रहकर संघ के कार्य का सूत्रसंचालन करते थे। ‘सरकार्यवाह’ पद की ज़िम्मेदारी सँभाल रहे भैयाजी दाणी का स्वास्थ्य बढ़ती उम्र के साथ बिग़ड़ने लगा। इस कारण बाळासाहब के ‘सहसरकार्यवाह’ नियुक्त किया गया। इससे भैयाजी दाणी के कन्धों पर का काम का बोझ हलका हो गया। आगे चलकर बाळासाहब पर ‘सरकार्यवाह’ पद की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी।

sakshibhaav-balasaheb-deoras- बाळासाहबबाळासाहब की कार्यशैली बहुत ही अनोखी थी। समाज को यदि एक करना है, संघटित बनाना है, तो उसके लिए हमें अनुशासन का पालन करना ही होगा, ऐसे विचार प्रस्तुत करनेवाले बाळासाहब चरमसीमा के अनुशासनप्रिय थे। ‘अनुशासन कड़ा होना ही चाहिए, लेकिन उसके पीछे प्रेम रहने चाहिए। अन्यथा महज़ अनुशासन कोई काम का नहीं’ यह भी बाळासाहब आग्रहपूर्वक कहते थे। ‘गुट-समूह, उच्चनीच इन भेदभावों से हमारे समाज को खोख़ला बना दिया है। यदि सशक्त समाज का निर्माण करना हो, तो इन सारे भेदभावों को गाड़ देना चाहिए। उसके लिए हमें आग्रही रहना चाहिए’ ऐसा बाळासाहब का मानना था। इसके लिए बाळासाहब हमेशा ही विशेष रूप से प्रयास करते थे।

आज के ज़माने में ‘प्रेमविवाह’ यह कोई बड़ी बात नहीं रही। लेकिन उस ज़माने में प्रेमविवाह को समाज में डटकर विरोध किया जाता था। लेकिन बाळासाहब प्रेमविवाह का हमेशा समर्थन करते थे। ‘हमारे ही समाज की अलग अलग पाश्‍वभूमियों के युवक-युवतियाँ यदि विवाह करते हैं, तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए। इससे हमारा समाज और दृढ़तापूर्वक जोड़ा जायेगा’ ऐसा बाळासाहब कहते थे।

बाळासाहब की दृष्टि बहुत ही व्यवहारी थी। जाति-पाति और गुट-समूहों की दीवारें तोड़े बग़ैर समाज एक नहीं होगा, इसपर बाळासाहब का प्रगाढ विश्‍वास था। अपने संपर्क में आनेवाले संतमहंतों से भी वे विनम्रतापूर्वक, समाज में एकता बढ़ाने का कार्य करने का आवाहन करते थे। उनके इस कार्य का समाज को बहुत बड़ा लाभ मिलेगा, ऐसा बाळासाहब का कहना था।

संघ की स्थापना होने के शुरुआती दौर में ‘संघ शिक्षा वर्ग’ में कुछ लोग अन्य जाति के स्वयंसेवकों के साथ भोजनव्यवहार करना टालते थे। डॉक्टर हेडगेवारजी को इस प्रकार का भेदभाव कतई मान्य नहीं था। लेकिन उन्होंने इन लोगो का विरोध नहीं किया। कुछ समय बाद, इन लोगों ने अपनी ग़लती को मान लिया। क्षमायाचना कर वे सभी स्वयंसेवकों के साथ भोजनव्यवहार करने लगे।

ऐसे प्रकार के हृदयपरिवर्तन का परिणाम शाश्‍वत रहता है। भेदभाव का पालन करनेवालों का ठेंठ विरोध न करते हुए डॉक्टरसाहब ने इस तरह उनका हृदयपरिवर्तन करा दिया। उसका प्रभाव बाळासाहब पर भी पड़ा था।

बाळासाहब के बौद्धिकों में समाज की एकता पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया जाता था। उनका वाचन प्रचंड था। योगी अरविंदजी से लेकर कार्ल मार्क्स तक सबकुछ बाळासाहब ने पढ़ा था। देश के इतिहास को समझ लिया था। उसपर गहराई से चिंतन किया था। यह सबकुछ उनके बौद्धिकों में से निरन्तर महसूस होता था।

राम और कृष्ण को हम ईश्‍वर के रूप में देखते हैं। लेकिन उन्होंने सारे समाज को एक करके कार्य किया, इसकी मिसाल बाळासाहब देते थे। समाज को संघटित करना यानी भीड़ इकट्ठा करना नहीं या मोरचे निकालना नहीं; बल्कि समाज को भावनात्मक दृष्टि से एक करना यानी समाज को संघटित करना है। ‘हम एक ही मातृभूमि की सन्तानें हैं। हम हज़ारों वर्षों से यहाँ पर रह रहे हैं। इस देश का निर्माण हम ही ने किया हुआ है और हमने ही इसे बिगाड़ा है’ इसका प्रखर एहसास समाज में विकसित होना चाहिए। इससे समाज एकसंघ होगा। यदि समाज एक हुआ, तो भूतकाल में हुईं ग़लतियों को सुधारा जा सकता है और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण किया जा सकता है। हमारी अवनति के लिए परधर्मियों को दोष देकर हम हमारे दोषों की ज़िम्मेदारी को टाल नहीं सकते, ऐसा बाळासाहब कहते थे।

दक़ियानुसी विचार, कालबाह्य रूढ़ियाँ आदि बातें हमें बदलनी ही होंगी, समय के अनुसार होनेवाले नये बदलावों का हमें स्वीकार करना ही होगा, यह बाळासाहब सीधे-सादे उदाहरण देकर समझाते थे। हमारे घर में एक कुआँ है। उस कुएँ का पानी नमक़ीन है। हमारे पुरखों ने इस पानी का इस्तेमाल किया। लेकिन क्या हमें शुद्ध पानी का प्रबन्ध नहीं करना चाहिए? ऐसा कहते हुए रूढ़ियाँ और परंपराओं में रहनेवालीं अनिष्ट एवं ग़लत बातों से दूर रहने का सन्देश बाळासाहब देते थे।

‘सरकार्यवाह’ के तौर पर बाळासाहब सारे देशभर में प्रवास करने लगे। दूसरी ओर गुरुजी का भी प्रवास सारे देश में जारी था। उसी समय कॅन्सर के कारण गुरुजी का स्वास्थ्य ढह रहा था। फिर भी गुरुजी किसी की भी न सुनते हुए प्रवास कर ही रहे थे। एक बार तो स्वास्थ्य बिगड़ा हुआ होने के बावजूद भी प्रवास को निकले गुरुजी को बाळासाहेब ने ‘सरकार्यवाह’ के तौर पर रोक लिया था। मुस्कुराते हुए गुरुजी ने भी उनका कहा मान लिया था।

गुरुजी का जब निधन हुआ, तब बाळासाहब आंध्रप्रदेश में ‘संघ शिक्षा वर्ग’ में थे। यह समाचार मिलते ही बाळासाहब फ़ौरन नागपुर आये। गुरुजी के निजी सचिव आबाजी थत्ते बाळासाहब की प्रतीक्षा कर रहे थे। बाळासाहब वहाँ पर पहुँचते ही आबाजी उन्हें गले लगाकर रोने लगे। दोनों से भी भावनाएँ रोकी नहीं जा रही थीं। लेकिन अपने उपर रहनेवाली ज़िम्मेदारी का एहसास रखते हुए इन दोनों ने भी दुख को समेत लिया और गुरुजी के अंतिम संस्कारों की तैयारी शुरू की।

गुरुजी ने मृत्यु से पहले लिखे पत्र में ‘सरसंघचालक’ के रूप में बाळासाहब का चयन किया, यह जानने पर बाळासाहब को अचरज हुआ। लेकिन उन्होंने, डॉक्टर हेडगेवार ने ‘सरसंघचालक’ पद की ज़िम्मेदारी गुरुजी पर सौंपने पर, गुरुजी द्वारा ही कहे गये उद्गारों की मिसाल इस समय प्रस्तुत की।

‘सरसंघचालक का पद यह विक्रमादित्य का सिंहासन है। इसी कारण मेरे जैसा आम मनुष्य भी आप सबके सहयोग से संघ का कार्य आगे ले जायेगा’ ऐसा गुरुजी ने कहा था। उसकी याद बाळासाहब ने दिलायी। ‘श्रीगुरुजी अद्भुत व्यक्तित्त्व था। डॉक्टरसाहब की धरोहर गुरुजी आगे ले गये और उन्होंने संघ के कार्य को देशविदेश में पहुँचाया। गुरुजी की प्रेरणा से विभिन्न क्षेत्रों में निर्माण हुए संगठन अपना कार्य जोश के साथ कर रहे हैं। यह मेरे लिए सबसे बड़ी प्रेरणा है। यह कार्य मुझे आप सबके सहयोग से और आगे ले जाना है। उसके लिए आपका सहयोग मुझे प्राप्त होगा, ऐसा मुझे भरोसा है’ यह कहते हुए बाळासाहब ने इस ज़िम्मेदारी का स्वीकार किया था।

गुरुजी के अंतिम संस्कारों के बाद रेशमबाग में संघ की शाखा का आयोजन किया गया और स्वयंसेवकों ने ‘सरसंघचालक’ के रूप में बाळासाहब को प्रणाम किया।

(क्रमशः)

Leave a Reply

Your email address will not be published.