हिंदुस्थान समाचार

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ३२

Rameshbhai Mehataइतिहास जेता लिखते हैं। इतिहास पर प्रभाव डालना जेताओं के लिए ज़रूरी प्रतीत होता है। ‘हमारे देश के इतिहास’ के तहत जो कुछ भी बताया गया है, उसपर जेताओं का बहुत बड़ा प्रभाव रहता है। इसी कारण ‘इतिहास’ के नाम पर जो कुछ भी कहा जाता है, उसमें से हमें वास्तविक इतिहास ढूँढ़ निकालना पड़ता है, उसपर संशोधन करना पड़ता है। इस देश में मुघलों का शासन स्थापित हुआ। ‘अपना शासन किस तरह सहिष्णु एवं उदार है’ यह दिखा देने के लिए मुघलों ने ज़ोरदार प्रचार किया। उस दौर में तो मुघलों को उसका लाभ मिला ही; लेकिन मुघलों का शासन समाप्त हो जाने के बाद भी इतिहास में – ‘मुघल बहुत ही अच्छे थे’ यही बात दर्ज़ हो गयी। यह दर्ज़ हुई बात ही आज हमारे सामने ‘इतिहास’ के रूप में खड़ी हो चुकी है। ज़ाहिर है, ऐसी दर्ज़ हुईं बातें यह सत्य नहीं है, बल्कि वह मुघलों ने अपनी सल्तनत के उदात्तीकरण हेतु किया हुआ प्रचार था, यह समझ लेना चाहिए। ख़ैर! मुघलों के बाद अँग्रेज़ इस देश में आये और शासक बने। वे तो अपने शासन का उदात्तीकरण करने में मुघलों से भी बढ़कर थे। उनकी चालाक़ी तो बेजोड़ है।

‘अँग्रेज़ों का शासन यदि हमारे देश पर नहीं होता, तो हमारे देश की तरक्की न हुई होती’ ऐसा माननेवाला बहुत बड़ा वर्ग आज भी इस देश में है। अँग्रेज़ों ने भारत पर किये हुए ‘उपकारों’ का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करनेवाले ये लोग यह भूल जाते हैं कि अँग्रेज़ों ने भारत को किस तरह भारी मात्रा में लूट लिया। उससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अँग्रेज़ों ने भारतीयों के मन में चरमसीमा का हीनगंड निर्माण किया। ‘भारतीय यानी ‘तीसरे दर्ज़े’ के लोग हैं; भारत की संस्कृति, इतिहास इनमें गौरवशाली ऐसा कुछ भी नहीं है’ यह बात अँग्रेज़ों ने इस देश के गले उतारने की कोशिश की। ‘अँग्रेज़ी भाषा के सामने भारतीय भाषाएँ पिछड़ी हुई हैं, उन भाषाओं में संवाद करना हलकेपन की निशानी है’ यह एहसास अँग्रेज़ों ने भारतीय समाज के मन पर अंकित किया। उसके दुष्परिणाम हमें आज भी दिखायी देते हैं। ‘अँग्रेज़ों की महानता भारतीयों के सामने हमेशा बनी रहें और वे कभी भी आत्मविश्‍वास के साथ हमारे सामने खड़े ही न रह पायें’ इसी हेतु से अँग्रेज़ों ने माध्यमों का ज़बरदस्त इस्तेमाल किया।

‘अँग्रेज़ों का श्रेष्ठत्व मान्य करनेवाला और ‘अँग्रेज़’ बनना चाहनेवाला’ एक वर्ग ही अँग्रेज़ों ने इस देश में तैयार किया था। ‘हम यदि इस देश से चले भी गये, तो भी हमारा प्रभाव इस देश पर क़ायम रहें’ इसके लिए अँग्रेज़ों ने बहुत ही चालाक़ी से यह योजना बनायी थी। उसमें उन्हें सफलता मिली, क्योंकि अँग्रेज़ों ने, इस देश को जानकारी की आपूर्ति करनेवाले माध्यमों को ही अपने कब्ज़े में रखा था। अँग्रेज़ों के शासन के दौरान, भारत में जो ‘न्यूज़ एजन्सीज़’ थीं, उनमें पाँडेचरी की फ्रेंच न्यूज एजन्सी और गोवा की पर्तुगाली न्यूज एजन्सी थी। ये वृत्तसंस्थाएँ अपने अपने देश की प्रशंसा करके, ‘सबकुछ कैसे बढ़िया चल रहा है’ यह दर्शाने की कोशिशें करती थीं। पाँडेचरी में फ्रेंचो का और गोवा में पुर्तगालियों का शासन था, यह अलग से बताने की ज़रूरत ही नहीं है। फिर अँग्रेज़ भी अपने शासन का समर्थन करनेवालीं और अपने हितसंबंधों की रक्षा करनेवालीं वृत्तसंस्थाएँ भारत ले आएँ।

ये वृत्तसंस्थाएँ भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करती थीं। इस कारण, हमारे देश के गाँवो-देहातों की ख़बरें प्रकाशित होती ही नहीं थीं। अँग्रेज़ों को अनुकूल रहनेवालीं ख़बरें ही प्रकाशित की जाती थीं। ज़ाहिर है, ‘अँग्रेज़’ बनना चाहनेवाले वर्ग का निर्माण इन वृत्तसंस्थाओं ने ही किया, ऐसा कहना ग़लत नहीं होगा। ‘भारत के स्वतंत्रतासंग्राम की आलोचना करते रहना और अँग्रेज़ों की प्रशंसा करते रहना’ इसके लिए इन वृत्तसंस्थाओं ने अपने आपको समर्पित कर दिया था। ‘भारत जैसे पिछड़े देश पर अँग्रेज़ों ने पीढ़ी दर पीढ़ी शासन करना चाहिए और यहाँ पर आनेवाले समय में भी अँग्रेज़ों की हु़कूमत क़ायम रहेगी’ ऐसी सोच इन विदेशी वृत्तसंस्थाओं ने फैलाई थी। इस अपप्रचार को प्रत्युत्तर देने की ज़रूरत थी। इसीलिए स्वतंत्रतासंग्राम में उतरे हुए हर एक नेता ने अपना खुद का अख़बार शुरू किया था।

टिळकजी के ‘केसरी’ अख़बार में दादासाहब आपटे का एक लेख प्रकाशित हुआ था। ‘भारतीयों की अपनी ख़ुद की वृत्तसंस्था शुरू होनी चाहिए, जिससे कि जनता के सामने देश के कोने कोने से ख़बरें पहुँच पायेंगी। वैसा हुआ, तो ही जनता ‘देश में क्या चल रहा है’ इसके प्रति जागरूक हो जायेगी’ ऐसा इस लेख में दादासाहब आपटे ने कहा था। इस संदर्भ में दादासाहब ने सन १९४२  में स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी से मुलाक़ात की थी। इस तरह की वृत्तसंस्था शुरू करने के लिए स्वातंत्र्यवीर ने दादासाहब को प्रेरणा दी। जीवन भर देशहित का विचार करनेवाले स्वातंत्र्यवीर, देश की ख़बरें स्वतंत्र रूप में देनेवालीं वृत्तसंस्थाओं की अहमियत को पूरी तरह समझ चुके थे। उन्होंने दादासाहब को चार साल अपने घर में रखा था। इस दौरान उन दोनों में इस विषय पर बहुत बड़ा विचारविनिमय हुआ।

इसके कुछ साल बाद भारत को आज़ादी मिली, अँग्रेज़ चले गये। गाँधीजी की दुर्भागपूर्ण हत्या हुई और उसके लिए संघ को ज़िम्मेदार ठहराया गया। उस समय संघ पर थोंपी गयी पाबन्दी ने भी संघ को बहुत कुछ सिखाया। पूरी तरह निर्दोष रहते हुए भी, संघ के समर्थन में देश की संसद में बात करनेवाला कोई भी नहीं था, समाज के सामने संघ का पक्ष रखने की तैयारी कोई नहीं दर्शा रहा था। इस कारण विरोधकों को संघ के विरोध में जनमत तैयार करना आसान हो गया। लेकिन यदि जनता तक सच को पहुँचाना है, अपनी भूमिका प्रस्तुत करनी है, तो फिर निष्पक्ष और सच का पुरस्कार करनेवाली वृत्तसंस्था का होना आवश्यक है, यह संघ की समझ में आ गया था। हालाँकि संघ के साथ जुड़े हुए ‘विवेक’, ‘साधना’, ‘स्वदेश’, ‘युगधर्म’, ‘राष्ट्रधर्म’, ‘पांचजन्य’, ‘ऑर्गनायझर’ साप्ताहिक शुरू हो चुके थे; मग़र फिर भी वृत्तसंस्था की ज़रूरत महसूस हो ही रही थी। इसी दौरान, संघ की एक बैठक में पूजनीय बाळासाहब देवरस ने वृत्तसंस्था की स्थापना का निर्णय घोषित किया। इस वृत्तसंस्था के लिए ‘हिंदुस्थान समाचार’ यह नाम सुझाया गया। इस सन्दर्भ में, बाळासाहब ने पूजनीय गुरुजी के साथ विचारविनिमय किया और ‘हिंदुस्थान समाचार’ की ज़िम्मेदारी मुंबई के विद्वान लेखक, विख्यात वक़ील शिवराम शंकर उपाख्य दादासाहब आपटे पर ही सौंपी गयी। स्वतन्त्रता के बाद चन्द कुछ महीनों में ही ‘हिंदुस्थान समाचार’ यह देवनागरी में ख़बरें देनेवाली देश की पहली वृत्तसंस्था शुरू हुई।

दादासाहब आपटे, बॅरिस्टर कन्हय्यालाल मुन्शीजी के असिस्टंट के रूप में काम करते थे। ‘हिंदुस्थान समाचार’ की ज़िम्मेदारी सौंपी जाने के बाद, दादासाहब ने कई देशों में प्रवास किया और उनका, विदेश में वास्तव्य करनेवाले हिन्दु समाज का अध्ययन शुरू हुआ। गत कई वर्षों से भारत से बाहर रहने के कारण इस हिन्दु समाज की जीवनशैली, परंपरा धीरे धीरे बदलती जा रही थी। क्योंकि उनकी अगली पीढ़ी का भारत के साथ कुछ भी रिश्ता नहीं बचा था। यह सारा अनुभव उन्होंने श्रीगुरुजी को कथन किया। गुरुजी ने उसपर चिन्तन शुरू किया। आगे चलकर ‘हिंदुस्थान समाचार’ के काम के लिए दादासाहब आपटे ने बापूराव लेलेजी की सहायता ली। उसके बाद भारतीय पत्रकारिता का नया अध्याय शुरू हुआ। इस ‘न्यूज एजन्सी’ के कारण, विदेश में वास्तव्य करनेवाले हिन्दु समाज की ख़बरें भी भारतीयों को समझने लगीं। एक वर्ष के भीतर ही ‘हिंदुस्थान समाचार’ के कार्यालय दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, नागपूर, पटणा इन शहरों में शुरू हुए। हिंदी, बंगाली और अँग्रेज़ी अख़बारों में भी ‘हिंदुस्थान समाचार’ की ख़बरें प्रकाशित होने लगीं।

सन १९६१  में ‘हिंदुस्थान समाचार’ के प्रतिनिधि के रूप में दादासाहब आपटे ने इटली, फ्रांस, स्वित्झर्लंड, ब्रिटन, अमरीका, इजिप्त और संयुक्त अरब अमिरात का प्रवास किया। इन देशों के पत्रकारों के साथ और सरकारों के प्रतिनिधियों के साथ भी दादासाहब का अच्छा संवाद हुआ। सन १९६३ में दादासाहब को पाक़िस्तान सरकार से निमंत्रण मिला था। उसका स्वीकार कर दादासाहब पाकिस्तान में गये। पाक़िस्तान के प्रवास के दौरान आये अनुभव और वहाँ की ख़बरें दादासाहब ने निष्पक्ष रूप में भारतीय जनता के सामने अख़बार के ज़रिये प्रस्तुत कीं। दादासाहब ने निर्भयता, पारदर्शकता, सच्चाई और धैर्य दिखाकर जनता के सामने प्रस्तुत की हुईं ख़बरों के कारण कई बार उन्हें सरकार की नाराज़गी झेलनी पड़ी। ‘पत्रकारिता यह धर्म है, व्यवसाय नहीं’ ऐसी दादासाहब की धारणा थी। ‘चाहे जो भी हो, मैं सच के साथ समझौता नहीं करूँगा’ इस बात पर दादासाहब अटल थे।

‘हिंदुस्थान समाचार’ की सबसे बड़ी सम्पत्ति यानी बिना किसी भी अपेक्षा के इस वृत्तसंस्था को ख़बरें भेजते रहनेवाले हज़ारों स्वयंसेवक। ये स्वयंसेवक, राष्ट्रहित के लिए शुरू किये गए पत्रकारिता के यज्ञ में समिधा अर्पण करने के लिए उत्सुक थे। दादरा-नगर-हवेली का मुक्ति आंदोलन, गोवा मुक्ति आंदोलन और श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने किया हुआ काश्मीर मुक्ति आंदोलन और उसके लिए श्यामाप्रसादजी का बलिदान, ये सारी ख़बरें ‘हिंदुस्थान  समाचार’ ने निर्भयतापूर्वक दुनिया के सामने प्रस्तुत कीं। सन १९६४ में ‘हिंदुस्थान समाचार’ के १५ साल पूरे हो गये। सारे देश में, सत्य का पुरस्कार करनेवाली विश्‍वसनीय वृत्तसंस्था के रूप में ‘हिंदुस्थान समाचार’ का विस्तार हो गया। सन १९७५ में ‘ईमर्जन्सी’ के दौरान ‘हिंदुस्थान समाचार’ पर पहली बार पाबंदी लगायी गयी।

इस पाबन्दी के कारण ‘हिंदुस्थान समाचार’ का बहुत बड़ा नुकसान हुआ। कुछ साल तक इस वृत्तसंस्था का कामकाज़ रोकना पड़ा था। लेकिन संघ के ज्येष्ठ प्रचारक श्रीकांत जोशी ने इस वृत्तसंस्था की नये सिरे से शुरुआत की। श्रीकांत जोशी मुंबई के थे। उन्होंने पूरे २५     साल तक आसाम में ‘प्रांत प्रचारक’ के रूप में काम किया था। इस कारण उनका ईशान्य भारत का बहुत बड़ा अभ्यास  था। आनेवाले समय में श्रीकांतजी पर, सरसंघचालक पूजनीय बाळासाहब देवरस के निजी सचिवपद की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। बाळासाहब देवरस जब मुंबई आते थे, तब हमारे घर ठहरते थे। इसलिए उनके निजी सचिव रहनेवाले श्रीकांतजी का भी हमारे घर में कई बार वास्तव्य रहता था। सदा हसमुख रहनेवाले श्रीकांतजी प्रयोगशील कार्यकर्ता थे। संघजीवन में उन्होंने मुझे कई बार मार्गदर्शन किया है।

सन १९८५  के दौरान श्रीकांत जोशीजी ने, बंद पड़ चुकी यह ‘हिंदुस्थान समाचार’ वृत्तसंस्था नये सिरे से शुरू करने का प्रस्ताव सामने रखा। सरसंघचालक ने उसे अनुमति दे दी। लेकिन यह वृत्तसंस्था नये सिरे से शुरू करना यह आसान बात नहीं थी। उसके लिए श्रीकांतजी ने देशभर यात्रा की। देश के गाँवों-देहातों की ख़बरें बड़ी वृत्तसंस्थाओं द्वारा पूरी तरह नज़रअन्दाज़ की जा रही थीं। ‘हिंदुस्थान समाचार’ के पुराने पत्रकारों एवं कार्यकर्ताओं ने संपूर्ण सहयोग देने की तैयारी दर्शायी। उसके लिए आवश्यक रहनेवाली निधि संकलित करने के लिए स्वयंसेवकों एवं शुभेच्छुकों ने सहयोग दिया। उसके बाद ही यह वृत्तसंस्था नये सिरे से क्रियान्वित हुई।

आज ‘हिंदुस्थान समाचार’ देश के हर इला़के में क्रियान्वित है। सन २००५ में दादासाहब आपटे का निधन हो गया। श्रीकांत जोशीजी भी आज इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन उन्होंने शुरू की हुई यह वृत्तसंस्था आज भी पत्रकारिता के क्षेत्र में, देशहित के लिए निरन्तर अथक कार्य कर रही है। पत्रकारिता यह समाज और राष्ट्र के हित के लिए अथक परिश्रम करनेवाली होनी चाहिए। समाज में शान्ति और स्थिरता बनाये रखना यह पत्रकारिता का मर्म है। लेकिन वर्तमान दौर में इस बात को नज़रअन्दाज किया जा रहा है, ऐसा दिखायी देता है। ‘परिणामों की परवाह न करते हुए सनसनीखेज़ माहौल पैदा करना यह पत्रकारों का काम है’ यह गलत फहमी  अब प्रचलित हो चुकी है। समाज और देश स्थिर रहा, देश का विकास हुआ, तब ही हमारी पत्रकारिता का और पत्रकारों का विकास होगा, इस बात को किसी को भी नहीं भूलना चाहिए।
‘बात का बतंगड़ बनाना’ पत्रकारों के लिए बहुत ही आसान होता है; लेकिन उससे समाज एवं देश का कितना बड़ा नुकसान हो सकता है, इसका हर एक के द्वारा ही विचार किया जाना चाहिए। ‘राष्ट्रहित से बढ़कर और कोई भी बात हो नहीं सकती’ इतनी सीधी सी बात पर पत्रकार यदि ग़ौर करें, तो आज की पत्रकारिता अधिक ज़िम्मेदार बन सकती है, ऐसा मुझे लगता है। ‘पत्रकारिता यह व्यवसाय नहीं, बल्कि वह महान कर्तव्य है’ यह सकारात्मक एहसास यदि हमारे माध्यमों में अंकुरित हुआ, तो देश को उसका सर्वाधिक लाभ हुए बिना नहीं रहेगा।

(क्रमश:)

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