नेपाल की व्यथा

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग २२

नेपाल की व्यथासन १९६२ के युद्ध में भारत को चीन से परास्त होना पड़ा। ‘इस युद्ध के लिए भारत सिद्ध नहीं था’, ‘चीन ने विश्‍वासघात कर भारत का भूभाग अपने कब्ज़े में कर लिया’ आदि स्पष्टीकरण हम दे सकते हैं; लेकिन भारत की इस पराजय के कितने गहरे परिणाम हुए, इसका हमें अभी तक ठीक से अन्दाज़ा नहीं हुआ है। चीन ने भारत का पराभव किया और पूरा का पूरा तिबेट निगल लिया। तिबेट से सटा हुआ नेपाल इस कारण भयभीत हो चुका था। दरअसल, भारत जैसे समर्थक देश के रहते हुए, नेपाल को चीन के विस्तारवाद का भय प्रतीत होने का कोई कारण ही नहीं था। लेकिन जहाँ भारत अपना खुद का भूभाग चीन से बचा नहीं सका, तिबेट की रक्षा नहीं कर सका, वह भारत इसके आगे हमें भला क्या सहायता करेगा, ऐसी असुरक्षितता की भावना नेपाल के राजा महेंद्र के मन में निर्माण हुई थी।

इस कारण, ‘हमें चीन का अनुपालन करना ही पड़ेगा, चीन के वर्चस्व को मान्य करना पड़ेगा’ यह मानकर नेपाल के राजा महेंद्र उस दिशा में मजबूरन् मार्गक्रमणा करने लगे थे। यदि ऐसा हुआ होता, तो भारत अधिक ही असुरक्षित बन जाता। लेकिन नेपाल चीन की दिशा में आगे न जायें, यह देश भारत के साथ जुड़ा रहें, इसके लिए श्रीगुरुजी ने विशेष प्रयास किये। यह इतिहास ज़्यादा किसी को ज्ञात नहीं है। नेपाल के सामरिक, सांस्कृतिक महत्त्व को पहचानकर भारत सरकार के द्वारा नेपाल को अपनी नीति में विशेष स्थान दिया जाना अपेक्षित था। लेकिन भारत सरकार हमें नज़रअन्दाज़ कर देती है, ऐसी नेपाल की शिक़ायत थी। नेपाल के राजा इस कारण निराश हुए थे, यह जानकारी श्रीगुरुजी तक पहुँची। अन्य किसी की समझ में नेपाल का महत्त्व आयें या न आयें, देशहित को लेकर हमेशा दक्ष रहनेवाले गुरुजी ने हालात की गंभीरता को पहचान लिया।

२६ जनवरी १९६३ को शिवरात्रि के शुभदिन को श्रीगुरुजी भगवान पशुपतिनाथ के दर्शन करने नेपाल गये। नेपाल के राजा महेंद्र ने गुरुजी का तहे दिल से स्वागत किया। इस समय नेपाल के प्रधानमन्त्री तुलसीगिरी भी उपस्थित थे। नेपाल की जनता का स्वाभाविक रूझान भारत की ओर ही था और आज भी है। लेकिन भारत को पराजित करनेवाले चीन से अपनी रक्षा हों, इसलिए नेपाल के नेतृत्व को चीन का प्रभाव मान्य करने की नीति अपनानी पड़ रही थी। यह अफ़सोस राजा महेंद्र ने गुरुजी के पास ज़ाहिर किया। ‘मैं नेपाल की सुरक्षा का अभिवचन भारत से चाहता हूँ’, ऐसा राजा महेंद्र ने कहा। नेपाल का तिबेट न हों, इसलिए राजा महेंद्र की यह सारी तड़प थी। गुरुजी ने उनकी इस तड़प को समझ लिया।

चीन पर अतिविश्‍वास दर्शानेवाले बेसावध भारत पर चीन ने आक्रमण किया था। इस युद्ध के लिए भारत सज्ज तो था ही नहीं। अभ्यास के लिए इस्तेमाल की जानेवालीं ३०३ रायफलें भारतीय सेना के पास थीं। मैंने स्वयं सैनिकी प्रशिक्षण लिया है। उस समय ३०३ रायफल चलायी है। ऐसे बहुत ही पुराने शस्त्रों से भारतीय सेना, चीन के अत्याधुनिक शस्त्र-अस्त्रों का मुक़ाबला कर रही थी। फिर  भी भारतीय सेना का पराक्रम देखिए, उन्हें मौत सामने दिखायी दे रही थी, मग़र फिर  भी उन्होंने बड़े धैर्य के साथ चीन की सेना का मुक़ाबला किया। हिमालय की ठण्ड़ से बचने के लिए ग़रम कपड़ें तक हमारे जवानों के पास नहीं थे। अन्य रसद और आवश्यक सामग्री की बात तो दूर ही रही।

चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाय ने भारत के राजनीतिक नेतृत्व को मित्रता के कैफ में डुबाकर रखा था। इसलिए हमारे लष्करी अधिकारियों द्वारा दी गयी चेतावनियों की ओर किसी का भी ध्यान नहीं गया। इसका जो परिणाम होना था, वह हो ही गया। लेकिन भारत की इस मानहानि के कारण नेपाल जैसे, भारत के स्वाभाविक मित्रदेश का विश्‍वास हमने गँवाया था, यह लक्षणीय बात है। यदि विदेशनीति में सावधानता नहीं बरती गयी, देश की सुरक्षा की अपेक्षा यदि अनचाही बातों को अवास्तव महत्त्व दिया गया, तो क्या होता है, इसका यह उत्तम उदाहरण साबित होगा।

गुरुजी ने, नेपाल नरेश के द्वारा महसूस की जा रही असुरक्षितता को समझ लिया और उन्हें आश्‍वस्त किया। चीन को पहचानने में भारत ने ग़लती की, तिबेट के बारे में भी भारत ने ग़लत ही नीति अपनायी, लेकिन आगे चलकर नेपाल के बारे में ऐसी ग़लती भारत नहीं करेगा, भारतीय जनता नेपाल के समर्थन में दृढ़तापूर्वक खड़ी होगी, ऐसा अभिवचन गुरुजी ने नेपाल नरेश को दिया। आगे चलकर नेपाल के बारे में भारत सरकार ऐसी ग़लती न करें इसलिए खुद प्रयास करते रहने का आश्‍वासन भी गुरुजी ने दिया। इसका बहुत बड़ा असर नेपाल के राजा पर हुआ। गुरुजी महज़ यह आश्‍वासन देकर चुपचाप नहीं बैठे। उन्होंने भारत लौटने पर फ़ौरन प्रधानमंत्री नेहरूजी को इस मामले में पत्र भेजा। इस पत्र की एक कॉपी लाल बहादूर शास्त्री को भी गुरुजी ने भेजी थी।

इस पत्र में, नेपाल में रहनेवाली असुरक्षितता की भावना को और इसके कारण निर्माण हो सकनेवाली समस्या को गुरुजी ने गिनेचुने शब्दों में व्यक्त किया था। विशेष बात यह थी कि चीन के द्वारा किये गये विश्‍वासघात के कारण पुनः सचेत हुए प्रधानमंत्री नेहरूजी ने, इस पत्र में गुरुजी ने प्रस्तुत किये विचारों के साथ सहमति व्यक्त की। यह सहमति महज़ ज़बानी नहीं थी, बल्कि वैसा स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करनेवाला पत्र प्रधानमंत्री नेहरूजी ने गुरुजी को भेजा था। ‘नेपाल के बारे में ग़लती नहीं होगी’ ऐसा इस पत्र में प्रधानमंत्री नेहरूजी ने दर्ज़ किया था। इसके कुछ महीने पश्‍चात् नेहरूजी का देहान्त हो गया। लेकिन देश के पहले प्रधानमंत्री, चीन के द्वारा किये गए विश्‍वासघात के सदमे से निराश हो चुके थे और उसी में उनका अन्त हो गया, यह बात लगभग सभी राजनीतिक निरीक्षक बताते हैं।

नेहरूजी के बाद लाल बहाद्दूर शास्त्रीजी प्रधानमंत्री बन गये। उन्होंने सर्वप्रथम देश की सुरक्षा के लिए तेज़ी से कदम उठाये। उन्होंने नेपाल का दौरा करने का तय किया। उससे पहले उनकी अटल बिहारी वाजपेयीजी के साथ चर्चा हुई। नेपाल दौरे की सफलता  के लिए ७५ प्रतिशत काम गुरुजी ने ही किया है, ऐसा शास्त्रीजी ने उस समय कहा था। अभी बात निकली ही है, तो फिर  एक और याद बताये बिना रहा नहीं जाता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर साल छः उत्सव मनाता है। इनमें मकर संक्रांति का समावेश है। सन १९६५  में गुरुजी ने, उस वर्ष के मकर संक्रांति उत्सव में उपस्थित रहने का निमंत्रण नेपाल नरेश को दिया था। नेपाल नरेश ने उसका सहर्ष स्वीकार किया था। नागपुर में होनेवाले इस उत्सव में वे उपस्थित रहनेवाले थे। लेकिन वैसा हुआ नहीं।

वे यदि इस उत्सव में उपस्थित रहें, तो उसमें से ग़लत संदेश जायेंगे, ऐसा भारत सरकार का कहना था। इससे नेपाल नरेश को बहुत बुरा लगा। लेकिन इस उत्सव के लिए नेपाल नरेश ने बहुत ही प्रेरक ऐसा संदेश भेजा। ‘भारत और नेपाल के संबंधों में सुधार आ रहा होते हुए, भारत सरकार ने बहुत ही ग़लत भूमिका अपनायी’ ऐसी आलोचना कुछ अख़बारों ने की थी। साथ ही, संघ ने नेपाल के संदर्भ में किये कार्य की अख़बारों ने सराहना भी की थी।

इस बात को अब पच्चास से भी अधिक वर्ष बीत चुके हैं और आज २०१६ साल शुरू है। नेपाल को भयानक भूकंप के धक्के का सामना करना पड़ा और उन धक्कों से यह देश लड़खड़ा गया। नेपाल की सहायता के लिए सबसे पहले भारत दौड़ा चला आया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भूकंपग्रस्त नेपाल की जनता के लिए दिनरात कार्य में जुट गये। नेपाल की जनता ने इस सेवाकार्य के लिए दिल से कृतज्ञता ज़ाहिर की। संघ के बारे में कुछ ख़ास जानकारी न रहनेवाले या संघ के बारे में अपप्रचार ही सुनते आये हुए लोगों को यह सेवाकार्य देखकर भूकंप जैसा ही धक्का लगा मुझे महसूस हो रहा था। उसके पीछे संघ के द्वारा बहुत पहले से नेपाल में शुरू किये गये कार्य की पार्श्‍वभूमि है, यह हमें समझ लेना चाहिए।

आज भी नेपाल के छोटे छोटे गाँवों में संघप्रणित ‘एकल विद्यालय’ बड़े पैमाने पर शुरू हैं। साध्वी ऋतंभरा ने नेपाल में प्रवास कर भूकंपग्रस्तों का मनोबल बढ़ाया। ख़ासकर महिलाओं को इस धक्के से बाहर निकालने का कार्य ऋतंभरा दिदी ने किया। नेपाल के नवनिर्माण के लिए विभिन्न क्षेत्रों में काम करनेवाले विशेषज्ञ संघ ने भारत से भेजे हैं। जाते जाते एक अलग ही बात बताता हूँ। इतना प्रलयंकारी भूकंप हुआ, मग़र फिर  भी नेपाल स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय ज्यों का त्यों खड़ा रहा। उसमें एक भी दरार नहीं आयी। संघ की विशेषता इसमें से स्पष्ट होती है।

‘भूकंप के कारण आत्मविश्‍वास खो बैठी नेपाल की जनता को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक स्पष्ट शब्दों में आश्‍वासन दे रहे थे – जितना भारत हमारा है, उतना ही नेपाल भी हमारा है।’ नेपाल की संकट की घड़ी में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा की गयी सहायता की वहाँ के माओवादी नेता ‘प्रचंड’ ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की। ‘प्रचंड’ ये भारतविरोध के लिए मशहूर रहनेवाले नेता माने जाते हैं। इस पार्श्‍वभूमि पर ‘प्रचंड’ ने की हुई प्रशंसा का महत्त्व समझ लेना चाहिए।

समय की धारा में दो देशों के बीच के संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहते ही हैं। भारत और नेपाल के संबंध उसके लिए अपवाद (एक्सेप्शन) नहीं हो सकते। लेकिन भारत के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने के बाद श्री. नरेंद्र मोदीजी ने सबसे पहले नेपाल का दौरा किया, यह इत्तेफाक नहीं था। उसका बहुत बड़ा ऐतिहासिक और सामरिक तथा सांस्कृतिक महत्त्व है, यह हमें कभी भी भूलना नहीं चाहिए।
(क्रमश:)

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