परमहंस-२५

राणी राशमणि द्वारा निर्माण किये गये मंदिरसंकुल के किसी भी मंदिर में गदाधर पुजारी का काम सँभालें इसके लिए रामकुमार द्वारा किये गये प्रयास निष्फल साबित हुए थे। जीवन मे पैसे को केंद्रस्थान में लानेवाली, इसलिए कोई भी नौकरी गदाधर को नापसन्द थी। इस कारण, इस व्यवहारी दुनिया में यह अव्यवहारी इन्सान कैसे निबाह पायेगा, ऐसी चिन्ता रामकुमार को खाये जा रही थी कि तभी दक्षिणेश्‍वर में उनके एक भाँजे का – हृदय का आगमन हुआ था।

अपने गदाधरमामा के प्रति मन में अत्यधिक प्रेम, मानो भक्ति ही होनेवाले हृदय मामा को बहुत चाहता था। उसे व्यवहार भी ठीक तरह से समझता था और वह नौकरी की तलाश में ही वहाँ पर आया था। इसलिए राणी राशमणि से कहकर राधाकृष्ण के मंदिर का पुजारीपद रामकुमार ने हृदय को दिलवाया। लेकिन मुख्य मंदिर स्थित कालीमाता की मूर्ति को हररोज़ स्नान करवाकर, उसकी दैनंदिन सजावट करने का काम गदाधर के पास था और वह उसे अत्यधिक प्यार से और भावुक होकर करता था। ख़ासकर कालीमाता की मूर्ति की सजावट करते समय कई बार गदाधर इतना भावुक हो जाता था कि माता को देखते देखते उसकी टकटकी ही लग जाती थी….इतनी कि सजावट करते करते कभी कभी तो घण्टों निकल जाते थे और यह बात राणी राशमणि की इस्टेट का कारोबार देखनेवाले उसके जमाई – मथुरबाबू की तीक्ष्ण नज़र से छिपी नहीं थी।

मंदिर‘मैं भला, मेरा काम भला’ ऐसा स्वभाव होने के कारण किसी के झंझट में न पड़नेवाले गदाधर की ओर, मथुरबाबू का बारिक़ी से ध्यान था। एक बार गदाधर द्वारा स्वयं गढ़ायी गयी शिवजी की एक सुंदर मूर्ति पर उनकी नज़र पड़ी और उसकी सुन्दरता ने, ख़ासकर उस मूर्ति पर रहनेवाले सजीव प्रतीत होनेवाले भावों ने उनके मन को आकर्षित किया। इतनी सुन्दर मूर्ति का निर्माणकर्ता गदाधर है, यह जान जाने के बाद तो उनका गदाधर के बारे में कुतूहल और भी बढ़ गया था और उन्हें भी ‘यह रहस्यमय असामी कोई विशेष ही है’ ऐसा रहरहकर प्रतीत होने लगा था।

मंदिर के पुजारीपद का स्वीकार करने के लिए गदाधर को मनाने के प्रयासों में रामकुमार के साथ मथुरबाबू भी सहभागी थे; लेकिन गदाधर ने स्पष्ट रूप में इन्कार करने के बाद हालाँकि उन्होंने उसे इस विषय में अधिक तंग नहीं किया था, लेकिन गदाधर ने उनका ध्यान आकृष्ट कर लिया था यह सच है! यह ख़बर और गदाधर के बारे में अन्य भी कुछ बातें मथुरबाबू द्वारा राशमणि तक पहुँचायी जाने के कारण उसके भी मन में गदाधर के प्रति कुतूहल एवं भक्तिभाव निर्माण हुआ था और रामकुमार की तरह ही यह सात्त्विक व्यक्तित्त्व भी यदि मंदिरसंकुल से हमेशा के लिए संबंधित रहा, तो कितना अच्छा होगा, ऐसी बात दोनों के बीच हुई होने के कारण, गदाधर को किसी न किसी रूप में मंदिर के साथ निगडित रखने की मथुरबाबू ने ठान ही ली थी। वह घड़ी जल्द ही आनेवाली थी!

गदाधर का मनस्वी स्वभाव प्रदर्शित करनेवालीं और भी कई बातें उस समय हो रही थीं। उन्हीं में से एक कथा ऐसी बतायी जाती है – एक बार राधाकृष्ण मंदिर स्थित कृष्ण की मूर्ति, उसे हररोज़ की तरह उठानेवाले के हाथ से, गलती से फिसलकर नीचे गिर गयी और उस मूर्ति का पैर टूटा। वहाँ के अन्य पुरोहितवृंद को यह अपशकुन प्रतीत हुआ और उन्होंने, जल्द से जल्द इस मूर्ति का विसर्जन कर, उसकी जगह नयी मूर्ति स्थापित करने का मशवरा राणी राशमणि को दिया। मंदिर के देवताओं से अत्यधिक प्रेम करनेवाली राशमणि को यह मशवरा कुछ ख़ास पसन्द नहीं आया। लेकिन इस मामले में अधिकारी माने जानेवाले व्यक्तियों द्वारा किये गये निर्णय पर वक्तव्य करना उचित नहीं होगा, ऐसा सोचकर राशमणि ने मजबूरन उनका मशवरा मानने का निर्णय लिया।

लेकिन मथुरबाबू ने गदाधर से उसकी राय पूछी। उसे पुरोहितवृंद का मशवरा रास नहीं आया और उसने राशमणि को स्पष्ट शब्दों में खरी खरी सुनायी – ‘कल तक बहुत ही प्यारी मानी गयी और अत्यधिक पवित्र मानकर पूजी गयी यह मूर्ति आपके लिए तो मानो साक्षात् कृष्ण ही थी, फिर आज केवल उसका पैर टूट गया इसलिए उसे बदला कैसे जा सकता है? आपके जमाई के – मथुरबाबू के साथ यदि ऐसा कुछ हुआ होता, तो क्या आप उन्हें इस कारण से घर से निकाल बाहर कर, नये जमाई की खोज करतीं? या फिर उनका ईलाज करके उन्हें पूर्ववत् ठीक कराने की कोशिश करतीं?’

इतने सरल और सुन्दर शब्दों में गदाधर ने अपना मुद्दा तहे दिल से प्रस्तुत किया था कि उसे सभी ने मान लिया। राशमणि गदाधर की स्पष्टोक्ति पर गुस्सा न होते हुए उल्टा उसे कौतुक से देखने लगी। मुख्यतः उसे भी पुरोहितवृंद का वह मशवरा रास नहीं आया था। गदाधर ने भी केवल उसे खरी खरी न सुनाते हुए उस मूर्ति को पुनः पूर्ववत् करने की ज़िम्मेदारी का भी स्वीकार किया और उसने उस टूटे हुए पैर को कुछ इस कदर ख़ूबी से जोड़ा की वह पहले टूटा हुआ था, यह बात बिलकुल नज़दीक से, बारिक़ी से देखने पर भी समझ में नहीं आ रही थी।

गदाधर इस मंदिर के साथ अधिक से अधिक अच्छी तरह से जुड़ जाना चाहिए, यह राशमणि और मथुरबाबू का मत अधिक ही पक्का हो चुका था!

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