परमहंस-८४

कोलकाता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज में अँग्रेज़ी साहित्य की क्लास शुरू थी। नियत प्राध्यापक अनुपस्थित होने के कारण मुख्यअध्यापक विल्यम हॅस्टी उस क्लास को पढ़ा रहे थे। उस दिन सुविख्यात ब्रिटीश कवी वर्डस्वर्थ की ‘एक्स्कर्शन’ इस दीर्घकविता की पढ़ाई चल रही थी, जिसे समझना छात्रों के लिए कठिन साबित हो रहा था।

पढ़ाते पढ़ाते ‘ट्रान्स’ (भावसमाधी) शब्द पर विवेचन शुरू हुआ। हॅस्टी बात कर रहे थे – ‘मन की शुद्धभाव से यदि किसी बात पर मन एकाग्र किया, तो उस एकाग्रता में से उच्चकोटि का अनुभव सामने आ सकता है, जो वर्डस्वर्थ की कविताओं में हमें देखने को मिलता है। यहाँ कुदरत की सुन्दरता पर मन एकाग्र करते समय वर्डस्वर्थ यक़ीनन ही इस प्रकार के ‘ट्रान्स’ में गया होगा। तभी इस तरह की सुन्दर कविता का जन्म हो सकता है।

लेकिन यह स्पष्टीकरण क्लास के छात्रों को बार बार समझाने के बावजूद भी, ‘ट्रान्स’ यानी क्या, यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था। तब हॅस्टी ने छात्रों को सीधे सीधे कहा कि ‘ट्रान्स’ यानी क्या, यह जानना हो, तो कोलकाता के दक्षिणेश्‍वर में ‘रामकृष्ण परमहंस’ नामक आध्यात्मिक गुरु रहते हैं, उनके पास जाओ। मैंने स्वयं उन्हें कई बार ‘ट्रान्स’ में जाते हुए प्रत्यक्ष देखा है। उन्हें देखने के बाद ही तुम्हें ‘ट्रान्स’ क्या होता है, यह बात ठीक से समझ में आयेगी।’

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णइसवी १८७६ के बाद रामकृष्णजी की शोहरत सब जगह फैलकर, लोगों का जो ताँता दक्षिणेश्‍वर आने की शुरुआत हुई थी, उनमें कई युरोपियन्स भी थे – कुछ लोग ‘आध्यात्मिक मार्गदर्शन मिलने की’ उम्मीद से आये थे, तो कुछ केवल कौतुहल के कारण। इन युरोपियनों में से ही एक थे – उपरोल्लेखित विल्यम हॅस्टी, जो हालाँकि रामकृष्णजी के कट्टर शिष्य नहीं थें, लेकिन उनके सहवास में आने के बाद अच्छेखासे प्रभावित हो चुके थे। ईश्‍वर का विषय छिड़ जाते ही रामकृष्णजी का बार बार भावसमाधी में जाना हॅस्टी को बहुत प्रभावित कर गयी था और इसी कारणवश उन्होंने अपने छात्रों को – ‘ट्रान्स’ यानी क्या, यह जान लेने के लिए दक्षिणेश्‍वर में रामकृष्णजी के पास जाने का मशवरा दिया था।

इन्हीं छात्रों में से एक था – नरेंद्रनाथ दत्त; जिसे आगे चलकर दुनिया ‘स्वामी विवेकानंद’ के नाम से जानने लगी। यहाँ पहली ही बार नरेंद्र को रामकृष्णजी के बारे में पता चला।

कोलकाता के बहुत ही धनवान ‘दत्त’ परिवार में नरेंद्र का जन्म हुआ था। कोलकाता उच्च न्यायालय में सुविख्यात अ‍ॅटर्नी होनेवाले पिताजी पुरोगामी एवं तर्कशुद्ध विचारधारा के थे; वहीं, माँ मूलतः आध्यात्मिक थी। ऐसे इस मिश्र वातावरण में पले-बढ़े होने के कारण नरेंद्र का मन दोनों दिशाओं से सुयोग्य आकार धारण कर रहा था। ईश्‍वर ने उसे मज़बूत कदकाठी और बहुत ही तेज़ दिमाग़ की देन प्रदान की थी और उसीके साथ बहुत ही संवेदनशील मन भी दिया था। उसका स्वभाव बचपन से ही ज़रासा अंतर्मुख था। उसे सांसारिक बातों में कतई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन देव-धर्म इनके बारे में उसे प्रचंड कौतुहल था। घर में स्थित या अन्य स्थानों से भी, यहाँ तक कि खिलौनों के रूप में भी जमा किये हुए ईश्‍वर की प्रतीकों की ओर देखते हुए उसकी टकटकी लग जाती थी। उसकी आवाज़ भी मीठी थी और वह उस समय के कई भजन बहुत ही सुन्दरता से गाया करता था।

साथ ही, वाचन में रुचि होने के कारण वह इस विषय में प्राप्त होनेवाली सभी पुस्तकें पढ़ता था। आगे चलकर बढ़ा होने के बाद उसने पश्‍चिमी विचारवंतों की इस विषय की पुस्तकें पढ़ीं थीं। उद्देश्य एक ही था – ‘ईश्‍वर है कि नहीं है और यदि है, तो उसे कैसे देखा जा सकता है?’

लेकिन इस विषय में होनेवालीं विभिन्न पश्‍चिमी विचारधाराओं का अध्ययन करते समय, उनमें की निरीश्‍वरवादी विचारधारा? भी धीरे धीरे उसके मन में प्रवेश करने लगी थी। लेकिन बचपन से उसकी माँ ने उसपर किये भक्ति के संस्कार इतने दृढ़ थे कि ऐसीं विचारधाराओं का उसपर हालाँकि थोड़ाबहुत असर हुआ था, मग़र फिर भी ये विचारधाराएँ उन भक्तिसंस्कारों को मिटा न सकीं।

ऐसी स्थिति में, वह उस ज़माने की परिपाटि के अनुसार शादीब्याह की उम्र का होने पर घर में पिताजी ने उसके लिए दुल्हन की खोज करने की शुरुआत की, लेकिन उसने, मुझे शादी वगैरा में कुछ भी दिलचस्पी नहीं है, यह बताकर शादी करने से इन्कार कर दिया। धीरे धीरे यह बात रिश्तेदारों में फैल गयी। ऐसे ही उसके एक रिश्तेदार रामचंद्रजी दत्त तक यह बात पहुँची। लेकिन उन्होंने नरेंद्र को भलाबुरा सुनाने के बजाय, ईश्‍वर की खोज करने की उसकी इच्छा की सराहना की। रामकृष्णजी के क़रिबी शिष्यों में से एक होनेवाले रामचंद्रजी ने नरेंद्र को, यहाँवहाँ सिर पटककर वक़्त जाया करने के बजाय दक्षिणेश्‍वर में रामकृष्णजी के पास जाने का मशवरा दिया।

कॉलेज के अध्यापक ने भी यही मशवरा दिया और अब रिश्तेदार रामचंद्रजी भी यही मशवरा दे रहे हैं! रामचंद्रजी केवल मशवरा देकर ही नहीं रुके, बल्कि उन्होंने नरेंद्र को, अपने एक गुरुबंधु सुरेंद्रनाथजी मित्रा के घर में होनेवाले एक सत्संग का निमंत्रण दिया, जिसमें रामकृष्णजी भी सम्मिलित होनेवाले थे। केवल बतौर कौतुहल नरेंद्र सुरेंद्रनाथजी के घर गया। यह नवम्बर १८८१ की बात है। वहाँ हमेशा की तरह आध्यात्मिक चर्चाएँ हुईं। उस दिन अचानक रामकृष्णजी ने नरेंद्र को एकाद भजन वगैरा गाने के लिए कहा। नरेंद्र ने भी बहुत मधुर आवाज़ में कुछ भजन गाये। उन भजनों के शुरू रहते रामकृष्णजी कई बार भावसमाधी में गये। सत्संग का यह कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद रामकृष्णजी ने नरेंद्र को दक्षिणेश्‍वर आने का निमंत्रण दिया।

हालाँकि रूढ अर्थ से, इस मुलाक़ात को, नरेंद्र की रामकृष्णजी से हुई झालेली पहली मुलाक़ात कहा जा सकता है, मग़र फिर भी इस मुलाक़ात में नरेंद्र रामकृष्णजी से कुछ ख़ास प्रभावित नहीं हुआ था। लेकिन जिस मुलाक़ात से नरेंद्रनाथ के जीवन में आमूलाग्र परिवर्तन आया, वह विख्यात ‘रामकृष्णजी-नरेंद्रनाथ मुलाक़ात’ दिसम्बर १८८१ में हुई।

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