परमहंस-८३

आगे चलकर जिनकी गिनती रामकृष्णजी के सर्वोच्च शिष्यों में की जाने लगी, ऐसे उनके शिष्य एक एक करके दक्षिणेश्‍वर आने की शुरुआत हो चुकी थी। केशवचंद्र सेन के पीछे पीछे आये रामचंद्र दत्त और मनमोहन मित्रा इनके ज़रिये भी कई लोग आने शुरू हुए थे। दरअसल रामकृष्णजी के सर्वोच्च बड़े शिष्य जिन्हें माना जाता है, उन नरेंद्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद) और राखालबाबू की रामकृष्णजी से पहली मुलाक़ात भी इन दोनों के माध्यम से ही हुई थी। लेकिन वह बाद की बात है।

इनमें से अधिकांश लोग युवावर्ग से होकर, कोई तत्कालीन समाजव्यवस्था के अनुसार तथाकथित (‘सो-कॉल्ड’) उच्चवर्णीय था, कोई निम्न सामाजिक स्तर से; कोई अमीन ज़मीनदार घराने से था, तो कोई ग़रीब; कोई गृहस्थाश्रमी था, तो कोई संसार से ऊबकर ईश्‍वर की खोज करने निकला था। ये सारे भक्तिमार्ग के विभिन्न पड़ावों में से थे।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णलेकिन पहले की पार्श्‍वभूमि चाहे कोई भी हों, रामकृष्णजी से मुलाक़ात हो जाने के बाद एक बात उन सबके जीवन में समान रूप से घटित हुई – रामकृष्णजी के सान्निध्य में आने के बाद उनका अगला जीवनप्रवास एक ही दिशा में और तेज़ी से हुआ। उनकी अपनी अपनी पात्रता के अनुसार ही रामकृष्णजी ने उनका अगला मार्गदर्शन किया। इनमें से सभी ने, रामकृष्णजी द्वारा दर्शाये गये मार्ग पर चलते हुए अपना जीवन तो सङ्गल किया ही, साथ ही, उनमें से अनेकों ने संन्यास लेकर (और कुछ लोगों ने गृहस्थी में रहते हुए ही) रामकृष्णजी के विचारधन को दुनिया तक पहुँचाना, यही अपना एकमात्र जीवनकर्तव्य माना। रामकृष्णजी का परिसस्पर्श होने से इन सभी का जीवन मानो स्वर्णिम ही हो गया।

उनमें से कुछ लोगों के बारे में देखते हैं –

राखालचंद्र घोष (स्वामी ब्रह्मानंद) – ये बंगाल के २४ परगना स्थित एक ज़मीनदार के सुपुत्र थे। रामकृष्णजी उन्हें अपना ‘आध्यात्मिक पुत्र’ ही मानते थे। उनके बारे में किसी से ज़िक्र करते हुए रामकृष्णजी उनका उल्लेख ‘नित्यसिद्ध’ ऐसा करते थे। आगे चलकर ‘रामकृष्ण मठ और मिशन’ की स्थापना होने के बाद उसके पहले अध्यक्ष के रूप में राखालबाबू ने पदभार सँभाला था।

लटू (स्वामी अद्भुतानंद) – ये बिहार के छप्रा ज़िले के एक ग़रीब परिवार से थे। उन्हें छः सालों तक रामकृष्णजी की सेवा करने का अवसर मिला और उसका लाभ उठाकर उन्होंने रामकृष्णजी के जीवनकाल में ही बहुत बड़ा आध्यात्मिक मुक़ाम हासिल किया।

गोपाल घोष (स्वामी अद्वैतानंद) – ये रामकृष्णजी के पास आये, तब उन्होंने अपनी उम्र के पचास साल पार किये थे। पत्नी के देहान्त के बाद छायी उद्विग्नता पर उपाय के रूप में किसीने उन्हें रामकृष्णजी के बारे में बताया। पहली कुछ मुलाक़ातों में ही ये रामकृष्णजी के परमभक्त बन गये। रामकृष्णजी के जो पहले बारह – विवेकानंद आदि शिष्यों को जब संन्यास की दीक्षा दी गयी, तब संन्यासियों के भगवे वस्त्र रामकृष्णजी की उपस्थिति में ही अद्वैतानंदजी के हाथों प्रदान किये गये थे। रामकृष्णजी के पश्‍चात् बारानगर में स्थापन किये गये ‘रामकृष्ण मठ’ के निर्माण में इनका अहम हिस्सा था।

तारकनाथ घोषाल (स्वामी शिवानंद) – बंगाल के २४ परगना के सुविख्यात घोषाल परिवार में जन्मे तारकनाथजी का रूझान पहले से ही अध्यात्म की ओर था और सारे सुख हाथ जोड़कर खड़े होने के बावजूद भी, ध्यानधारणा आदि वे बचपन से ही करते आये थे। आगे चलकर राखालबाबू के निधन के पश्‍चात् सन १९२२ से ‘रामकृष्ण मठ व मिशन’ के दूसरे अध्यक्ष के रूप में तारकानाथजी ने कार्यभार सँभाला।

बाबूराम घोष (स्वामी प्रेमानंद) – अपने शिष्यों से कभी भी इनका ज़िक्र करते समय रामकृष्णजी हमेशा इनके पवित्र चारित्र्य की मिसाल देते थे और ‘वे हमेशा ही परिपूर्ण होते हैं’ ऐसी इनकी हमेशा ही प्रशंसा करते थे।

साथ ही, योगींद्रनाथ रॉयचौधुरी (स्वामी योगानंद), शरच्चंद्र चक्रवर्ती (स्वामी शारदानंद), शशिभूषण चक्रवर्ती (स्वामी रामकृष्णानंद), हरिनाथ चटर्जी (स्वामी तुर्यानंद), नित्यनिरंजन घोष (स्वामी निरंजनानंद), गंगाधर घातक (स्वामी अखंडानंद), हरिप्रसन्न चटर्जी (स्वामी विज्ञानानंद) इनका भी रामकृष्णजी के प्रथम शिष्यगणों में दक्षिणेश्‍वर में आगमन हुआ।

ऊपर-उल्लेखित सभी शिष्य ये कुछ समय बाद संन्यास धारण कर रामकृष्णजी का कार्य आगे ले जानेवाले साबित हुए; लेकिन इन पहले शिष्यगणों में कई शिष्य ऐसे भी थे, जिन्होंने गृहस्थी-संसार में रहकर ही रामकृष्णजी के कार्य को प्राथमिकता दी। इनमें से कई लोग – डॉक्टर्स, इंजिनियर्स, हायकोर्ट के वक़ील, युनिवर्सिटी प्रोफेसर्स ऐसे विभिन्न सामाजिक महत्त्वपूर्ण पद विभूषित कर रहे थे।

आधार सेन, वैद्यनाथ, महेंद्रनाथ गुप्ता (ये ‘एम’ इस संज्ञा से भी संबोधित किये जाते थे), गिरीशचंद्र घोष, कालीपद घोष, वैकुंठनाथ संन्याल, केदारनाथ बंडोपाध्याय, मन्मथनाथ घोष, गिरीशचंद्र सेन, बलराम बोस, सुरेंद्रनाथ मित्रा, केदारनाथ चटर्जी, प्रतापचंद्र मझुमदार, दुर्गाचरण नाग (नाग महाशय) ऐसे उस समय के कई नामचीन व्यक्ति रामकृष्णकार्य के इस रथ को, संसार का त्याग न करते हुए भी, बहुत ही ताकत के साथ खींचकर आगे ले जा ही रहे थे।

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