परमहंस-६८

अपने बनारसवास्तव्य के दौरान, महान योगी होनेवाले त्रैलंग स्वामीजी से मिलने रामकृष्णजी चले गये।

स्वामीजी उस समय मौनव्रत धारण किये हुए थे और उनका वास्तव्य मनकर्णिका घाट पर था। रामकृष्णजी को देखते ही स्वामीजी ने प्रेमपूर्वक उनका स्वागत किया और संकेत से ही उन्हें बैठने के लिए कहकर, उनके स्वागत हेतु अपनी तपकीर सूँघने की डिबिया उनके सामने रख दी।

कड़ी गर्मियों के दिन थे और उस भरी दोपहर की चिलचिलाती धूप में, ज़मीन दरअसल इतनी गर्म हो चुकी थी कि इन्सान उसपर कुछ पल भी पैर टेक न सकें। लेकिन ऐसी असहनीय गर्म ज़मीन पर स्वामीजी शान्ति से लेटे थे!

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णरामकृष्णजी ने स्वामीजी से कुछ प्रश्‍न पूछे, जिनके उत्तर स्वामीजी ने संकेत से ही दिये। ‘ईश्‍वर एक है या अनेक’ इस रामकृष्णजी के प्रश्‍न को स्वामी जी ने संकेतों से ही – ‘समाधिअवस्था तक पहुँचे हुए साधक के लिए वह एक ही है, लेकिन विभिन्न एहसासों के चष्मों के ज़रिये देखने पर आम लोगों को वह कई रूपों में नज़र आता है’ ऐसा उत्तर दिया।

इस मुलाक़ात के बाद हृदय से बात करते हुए रामकृष्णजी ने उसे बताया कि ‘यह वास्तविक परमहंस अवस्था है। स्वामीजी के पास देहभाव अंशमात्र भी नहीं बचा है। मुझे तो वे सगुण रूप में विचरण करनेवाले काशीविश्‍वनाथ ही प्रतीत हुए। उनके वास्तव्य से काशीनगरी पुनीत हुई है।’

उस दौरान स्वामीजी मनकर्णिका के पास, आम लोगों के लिए स्नान हेतु एक घाट का निर्माण करने की गतिविधि में थे। रामकृष्णजी के अनुरोध पर हृदय ने भी कुछ तसले मिट्टी उठाकर इस काम में अपना हाथ बटाया, जिससे स्वामीजी के चेहरे पर प्रसन्नता दिखायी दी। आगे चलकर त्रैलंगस्वामी रामकृष्णजी के निमंत्रण पर, मथुरबाबू एवं रामकृष्णजी का वास्तव्य होनेवाले घर में भी आकर गये।

इन्हीं दिनों में एक ओर वाक़या रामकृष्णजी के साथ घटित हुआ। वह हुआ यूँ –

बनारस तथा परिसर में काशीविश्‍वनाथ के मुख्य मंदिर के अलावा गंगानदी के तटों पर छोटे-बड़े कई मंदिर हैं। उनमें से कुछ विख्यात मंदिरों के दर्शन करने के लिए मथुरबाबू कई बार नौकाओं में से अपने लवाज़िमे को ले जाते थे।

ऐसे ही एक बार रामकृष्णजी मथुरबाबू के साथ किसी मंदिर में जाने के लिए नौका में से निकले थे। इस मनकर्णिका घाट के सामने से नौका गुज़रने लगी। मनकर्णिका घाट पर हमेशा का दृश्य दिखायी दे रहा था। उस दिन बनारस में मृत्यु को प्राप्त हुए लोगों की चिताएँ जल रहीं थीं और उनके एकत्रित धुएँ के बादल आकाश की ओर जाते दिखायी दे रहे थे। वह नज़ारा देखते देखते अचानक रामकृष्णजी भावावस्था में चले गये और उसी अवस्था में वे तड़ाक से नौका के कठहरे तक गये और दोनों हाथ फैलाकर झुककर सामनेवाला दृश्य देखने लगे। यदि एक भी कदम और आगे गये तो पानी में डूबेंगे, इस डर के कारण मथुरबाबू एवं हृदय की मानो साँस ही रुक गयी। और यदि वैसा हुआ तो उन्हें पकड़ना आसान हो इसलिए वे दोनों उनकी दोनों तरफ़ तैयार स्थिति में खड़े रहे। लेकिन शरीर अचल और लकड़ी की तरह कड़क हो चुके रामकृष्णजी को मानो भौतिक जग का एहसास ही नहीं हो रहा था। वे अनिमिष आँखों से सामने का दृश्य देख रहे थे। उनके चेहरे पर असीम आनंद झलक रहा था।

लेकिन कोई भी दुर्घटना घटित न होते हुए थोड़ी देर बाद रामकृष्णजी पुनः होश में आ गये और शान्तिपूर्वक बैठ गये। जिस मंदिर के लिए निकले थे, उस मंदिर के दर्शन कर, अन्य धार्मिक विधि कर ये लोग पुनः स्वस्थान पर लौट आये। सबको यही उत्कंठा थी कि रामकृष्णजी को क्या दिखायी दिया था? तब रामकृष्णजी ने उन्हें अपने दृष्टान्त के बारे में बताया –

‘मैंने देखा कि स़फेद बालों की दाढ़ी-जटाएँ होनेवाली एक कर्पूरगौर वर्ण की उँची आकृति वहाँ उन जलती चिताओं के पास खड़ी है और वह श़ख्स उन चिताओं में जल रहे मृतदेहों की जीवात्माओं को एक के बाद एक हल्के से अपने हाथों की अंजली में उठाकर ले रहा है और उस हर एक जीव के कान में एक सर्वोच्च महामंत्र कह रहा है। उसके बाद उस जीव को, उस चिता की दूसरी ओर खड़ी विश्‍वमाता धीरे से अपने हाथ में ले रही है और उस जीव पर जमा हुए (अर्थात् उसने अपने इस जीवन में, वैसे ही पूर्वजन्मों में इकट्ठा किये) विभिन्न भवबंधों को मृदुता से, हल्के हाथों से बाजू करके उस जीव को बंधमुक्त कर रही है। इस प्रकार वह जीव पूरी तरह बंधमुक्त हो जाने के बाद वह दयालु माता उसके लिए मोक्ष का दरवाज़ा खोल रही है और उस जीव को मोक्ष की प्राप्ति करवा रही है, जिसे प्राप्त करने के लिए लोगों को वैसे तो कई जन्मों तक कठिन प्रयास करने पड़ते हैं। लेकिन चूँकि उस जीव की बनारस में, उस शिव की भूमि में मृत्यु हुई है, इस कारण उस शिव की अकारण करुणा से, उस जीव को बिना कोई प्रयास किये ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।’

रामकृष्णजी के इस विवरण से उपस्थित सभी लोग भारित हो गये थे और उस बैठक में सन्नाटा छा गया था।

थोड़ी देर बाद सभान होकर मथुरबाबू ने रामकृष्णजी से कहा कि ‘अपने शास्त्रों में, पुराणों में यह पढ़ा था कि वाराणसी में मृत्यु को प्राप्त हुए जीव को ठेंठ मोक्ष की प्राप्ति होती है। अपने महान प्राचीन ऋषियों ने भी यह कहा ही है। लेकिन यह दरअसल होता कैसे है, इस बारे में विवरण कहीं पर भी नहीं पढ़ा था, इसलिए उसे जानने का कोई मार्ग ही नहीं था। अब आपके इस विवरण के बाद वह स्पष्ट हुआ।’

मथुरबाबू और अन्य लोग रामकृष्णजी के चरणों में अधिक ही नतमस्तक हो चुके थे।

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