परमहंस-३६

कालीमाता के पहले दर्शन के बाद रामकृष्णजी में शारीरिक बदलाव तो हुआ ही था, लेकिन साथ ही, आंतरिक दृष्टि से मानसिक एवं आध्यात्मिक बदलाव भी हुए थे। आध्यात्मिक दृष्टि से वे कोई तो विशेष हैं, इसका एहसास उनके सहवास में आये कइयों को उनके बचपन से ही हुआ था। लेकिन इस घटना के बाद रामकृष्णजी को अंतर्ज्ञान या तत्सम कोई ईश्‍वरीय शक्ति प्राप्त हुई होने के अनुभव अनेकों को होने की कई कथाएँ बतायीं जाती हैं। उन्हीं में से एक निम्नलिखित आशय की है –

एक बार हररोज़ की तरह राणी राशमणि अपनी दासियाँ, नौकर-चाकर आदि के साथ दर्शन के लिए मंदिर आयी। रामकृष्णजी वहाँ पर थे ही। उन्हें वहाँ देखकर रानी आनंदित हुई। उसने कोई सुंदर भजन गाने की विनति रामकृष्णजी से की। उसे मानकर रामकृष्णजी ने एक सुंदर भजन गाना शुरू किया।

रामकृष्णजी वह सुंदर? भजन देहभान खोकर, तल्लीन होकर गा रहे थे। उनकी भावावस्था भंग न करते हुए रानी शांति से वहीं पर एक बाजू में बैठ गयी। कानों से वह उस सुंदर भजन को सुन रही थी और हाथों से – मंदिर के दियों के लिए बाती बनाना, फूल-पत्री एकत्रित करना आदि उसकी कुछ न कुछ सेवा चल ही रही थी;
….लेकिन वह भजन इतना रंग लाने के बावजूद भी आज उसका ध्यान पूर्णतः भजन में नहीं था!

आध्यात्मिक दृष्टिइतने में, आँखें बंद करके तल्लीनतापूर्वक भजन गानेवाले रामकृष्णजी ने एक पल बीच में ही भजन रोक दिया और फौरन पीछे बैठी राशमणि के पास जाकर उसके मुँह पर थप्पड़ मारा, ‘‘भगवान के पास आकर भी मन में संसार के ही विचार? हाथों से सेवा, लेकिन मन में भौतिक के ही विचार?’’

वहाँ पर उपस्थित यह सबकुछ देखकर सुन हो गये थे। उन उपस्थितों की नज़र में रामकृष्णजी यानी ‘रानी के केवल एक नौकर’ थे….और ऐसा नौकर अपनी मालकीन के मुँह पर थप्पड़ मारे, यह बात रानी के नौकरों से बर्दाश्त ही नहीं हुई। उसमें भी, वह ‘नौकर’ बीस साल की उम्र का युवा और उसकी मालकीन उसकी माँ की उम्र की – साठ साल की स्त्री; ऐसी स्त्री के मुँह पर वह थप्पड़ मारे, यह बात उन्हें हज़म ही नहीं हो रही थी।

रानी का नमक खाये वे नौकर रामकृष्णजी को ताडन करने आगे बढ़े ही थे कि तभी रानी ने ही उन्हें वहीं के वहीं पर रुकने का आदेश दिया। लेकिन वह खुद शांति से देवीमाता को प्रणाम करके और रामकृष्णजी को मन ही मन वंदन करके अपने घर लौट आयी;

….क्योंकि राशमणि मन ही मन ‘समझ’ गयी थी….रामकृष्णजी ने जो पहचाना, वह सही पहचाना था!

….वाक़ई आज उसका ध्यान कहीं और था। कान हालाँकि सुंदर भजन सुन रहे थे और हाथ हालाँकि देवी की सेवा में व्यस्त थे; लेकिन मन में तो, उसकी इस्टेट के संबंध में कोई तो मुक़दमा कोर्ट में शुरू हुआ था, उसके बारे में परेशानीयुक्त विचार शुरू थे।

….और अपने मन में चल रहे इन विचारों के बारे में रामकृष्णजी को कैसे पता चला, उसके बारे में सोचते हुए एक पल उसे यह एहसास हुआ कि इस इन्सान की आध्यात्मिक समझ वाक़ई ऊँचाई को छू गयी है।

ऐसा ही अनुभव एक बार मथुरबाबू को भी हुआ होने की कथा बतायी जाती है।

एक बार मथुरबाबू रामकृष्णजी के साथ मंदिरपरिसर में गपशप कर रहे थे। चर्चा ईश्‍वरभक्ति की ओर मुड़ी। मथुरबाबू का कहना था कि ‘ईश्‍वर से प्रेम अवश्य करें, लेकिन उसमें बेभान नहीं होना चाहिए।’ वहीं, रामकृष्णजी ने जवाब के रूप में ऐसा कहा कि ‘हम कौन होते हैं यह तय करनेवाले? हम तो महज़ उस जगन्नियंता के हाथों की कठपुतलियाँ हैं, जैसा वह नचायेगा, वैसा नाचेंगे।’

उसपर मथुरबाबू ने रामकृष्णजी से कहा कि ‘ईश्‍वर जब मानवी रूप में आते हैं, तब उसे भी सभी नियमों का पालन करना ही पड़ता है।’ उसपर रामकृष्णजी का जवाब था कि ‘ईश्‍वर नियमों का पालन करते हैं, वह स्वयं की इच्छा से। वे उन नियमों को कभी भी तोड़ सकते हैं या नये नियमों का निर्माण कर सकते हैं; किंबहुना ईश्‍वर जो करते हैं, वही नियम होता है।’

मथुरबाबू ने युक्तिवाद किया कि ‘ऐसा कैसे कह सकते हैं? मानो, कोई लाल फूलों का पे है, तो उस पेड़ पर लाल फूल ही लगेंगे। वह ईश्‍वर का नियम ही है। वे इस नियम को कैसे तोड़ेंगे?’

रामकृष्णजी मुस्कुराये और मथुरबाबू को मंदिरपरिसर में स्थित बाग में ले गये और वहाँ सामने ही होनेवाला एक लाल फूलों का पेड़ मथुरबाबू को दिखाया। नज़दीक जाकर उन्होंने एक विशिष्ट टहनी की ओर निर्देश किया। उस टहनी के पास जाकर मथुरबाबू ने देखा, तब वे आश्‍चर्य से पागल होना ही बाकी थे – उस लाल फूलों के पेड़ की ‘उस’ टहनी पर, एक लाल और एक स़फेद ऐसे फूल मानो मथुरबाबू पर हँस रहे थे!

इस ‘अजीबोंगरीब’ वाक़ये से हैरान होकर मथुरबाबू ने रामकृष्णजी के पैर छू लिये!

Leave a Reply

Your email address will not be published.