परमहंस-६९

पाच-छः दिन बनारस में वास्तव्य करने के बाद रामकृष्णजी एवं मथुरबाबू अन्य लोगों के साथ प्रयाग के लिए रवाना हुए। वहाँ पर उन्होंने तीन दिन निवास किया। इस वास्तव्य के दौरान वहाँ के पवित्र संगम में सबने स्नान किया। उसीके साथ, वहाँ पर कुछ धार्मिक विधियाँ करते हुए वहाँ की प्रथा के अनुसार पुरुषों ने अपने सिर मुंडवा लिये। लेकिन रामकृष्णजी ने – ‘यह करने की मुझे ज़रूरत नहीं है’ ऐसा कहकर सिर मुंडवाने से इन्कार कर दिया। तीन दिन बाद ये लोग पुनः वाराणसी लौट आये।

इसी बीच, बनारस में जीवन व्यतीत कर रही भैरवी से रामकृष्णजी की मुलाक़ात हुई। कामारपुकुर में अंतर्मुख हो जाने के बाद भैरवी वहाँ से जो निकली थी, वह ठेंठ बनारस आकर सुस्थिर हुई थी और उसका अगला आध्यात्मिक प्रवास शुरू हुआ होकर, वह पूरी तरह बदल चुकी थी। भैरवी का वास्तव्य उस समय ‘चौसठ योगिनी भवन’ नामक सदन के एक कमरे में एक वृद्ध स्त्री के साथ था। ‘मोक्षदा’ नाम होनेवाली उस स्त्री की श्रद्धा एवं भक्ति बहुत ही उच्च कोटि की थी, जिसे देखकर रामकृष्णजी बहुत ही प्रभावित हुए थे और वे कई बार उस स्त्री से मिलने जाया करते थे।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णउसके दो हफ़्ते बाद इन लोगों ने वृंदावन की यात्रा की। इस समय भैरवी भी इन लोगों के साथ वृंदावन आयी थी। वहाँ के निधिवन स्थित बाँकेबिहारी मंदिर के पास ही मथुरबाबू ने एक बड़ा मक़ान किराये पर लिया था। जिस स्थान ने किसी दौर में भगवान श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का अनुभव किया था, वह वृंदावन रामकृष्णजी के लिए बहुत ही आस्था का स्थान था। बाँकेबिहारी श्रीकृष्ण के दर्शन से उनका भान खो जाता था।

शाम को कई बार वे जमुना के तट पर बालु में चक्कर लगाते थे। उस समय, दिनभर घास के मैदानों में चरकर, जमुना नदी के पानी में खेलते खेलते घर लौटनेवाले गौओं-बछड़ों को और उन्हें हाँकनेवाले चरवाहों को देख रामकृष्णजी की टकटकी लग जाती थी। वह दृश्य उन्हें मानो परिचित सा लगता था, ‘लेकिन ‘इस’ दृश्य में वह कान्हा (श्रीकृष्ण) कहाँ है, कान्हा मुझे दिखायी क्यों नहीं दे रहा है’ इस विचार से बेहाल होकर उनकी आँखों से आँसू बहने लगते थे।

वृंदावन के वास्तव्य में रामकृष्णजी ने राधाकुंड-श्यामकुंड के भी दर्शन किये। वह बहुत ही लंबा रास्ता होने के कारण मथुरबाबू ने उनके लिए पालकी का प्रबंध किया था। रास्ते में उनकी देखभाल करने के लिए हृदय पालकी के साथ चल रहा था। रास्ते से जाते समय पुनः हरेभरे घास के मैदान, पेड़, गौओं-बछड़ों के झुँड़ ऐसे दृश्य देखकर – इस सारे ‘परिचित’ लगनेवाले दृश्य में, ‘कान्हा, तुम कहाँ हो, तुम मुझे दिखायी क्यों नहीं दे रहे हो’ ऐसा आक्रोश उनका मन कर रहा था।

इसी यात्रा के दौरान उन्हें गोवर्धन पर्वत दिखायी दिया। उसे देखते ही, उसके श्रीकृष्णविषयक सभी संदर्भों को याद कर उनके शरीर पर रोमांच खड़े हो गये और वहाँ जाने की इच्छा उन्होंने प्रदर्शित की। गोवर्धन पर्वत की तलहटी तक पहुँचते ही उनकी भावनाएँ उत्कट हुईं और वे तेज़ी से पर्वत चढ़ते चढ़ते उसके शिखर तक जाकर पहुँच भी गये। वहाँ पहुँचते ही – ‘मैं अब किस स्थान पर खड़ा हूँ और यह पर्वत किस महान घटना का गवाह है’ इसका एहसास उत्कट होकर वे भावावस्था को प्राप्त हुए। बहुत देर बात वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें होश में ले आये। फिर वे धीरे धीरे, अनिच्छापूर्वक पर्वत उतर गये।

यहाँ वृंदावन में भी, जिनका आध्यात्मिक एहसास ऊँचा है, ऐसे कुछ व्यक्तियों के बारे में सुनकर रामकृष्णजी स्वयं जाकर उनसे मुलाक़ात की। ‘गंगामाता’ इस नाम से पहचानी जानेवाली एक वृद्ध स्त्री से वे जा मिले। तक़रीबन साठ साल की उम्र होनेवाली वह स्त्री यानी राधाजी की किसी बहुत ही क़रिबी सेविका-सखी का पुनर्जन्म है, ऐसा आसपास के इला़के में उसके बारे में कहा जाता था। एक झोपड़ी में बहुत ही सादगी में वह रहती थी। उसकी उत्कट भक्ति देखकर रामकृष्णजी प्रभावित हुए थे। इस स्त्री का आध्यात्मिक एहसास बहुत ही ऊँचाई को प्राप्त हुआ है, ऐसा उन्होंने हृदय से कहा था और उस विषय में उसमें दिखायी देनेवाले लक्षण भी उन्होंने हृदय को बताये थे।

लेकिन हैरानी की बात यह थी कि उल्टा यह गंगामाता भी रामकृष्णजी के प्रथम दर्शन में ही भारित हो चुकी थी। रामकृष्णजी को पहली बार देखते ही उसने उन्हें ‘दुलाली’ (राधाजी का एक नाम) कहकर बुलाया था। ‘उनसे मुलाक़ात होना, यह ईश्‍वर की मुझपर होनेवाली सबसे बड़ी कृपा है’ ऐसा वह मानती थी। वृंदावन के अपने वास्तव्य के दौरान रामकृष्णजी कई बार उससे मिलने जाया करते थे। उससे बातचीत करते समय उन्हें समय का भी भान नहीं रहता था। फिर शाम ढल जाने पर हृदय ही उन्हें पुनः उनके आवासस्थल पर ले जाने के लिए वहाँ आता था। गंगामाता भी हररोज़ रामकृष्णजी के लिए कुछ न कुछ विशेष व्यंजन बनाकर, चातकपक्षी की तरह उनकी राह तकती रहती थी। कभी बात करते करते बीच में ही रामकृष्णजी भावावस्था में चले जाते थे। ईश्‍वर के प्रति होनेवाली उनकी अत्युत्कट भक्ति, ईश्‍वर के दर्शन से ही नहीं, बल्कि ईश्‍वर के महज़ विचार से भी उनका इस तरह बार बार भावावस्था को प्राप्त होना, यह सब देखकर – ‘रामकृष्णजी यानी साक्षात् ‘राधाभाव’ ही सगुण साकार रूप में अवतरित हुआ है’ ऐसा वह हमेशा कहती थी। रामकृष्णजी कहीं हमेशा के लिए तो इस गंगामाता के पास रहने नहीं जायेंगे, ऐसा डर मथुरबाबू को लगने लगा था। लेकिन वैसा नहीं हुआ। ‘वे जिसके लिए सर्वस्व हैं, उस उनकी जन्मदात्री माता – चंद्रादेवी के बारे में सोचते हुए रामकृष्णजी ने, वृंदावन में ही हमेशा के लिए निवास करने के विचार को मन से दूर कर दिया।

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