परमहंस-७३

इस अनुभव के बाद हृदय के सिर पर सवार हुआ, आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने का जुनून निकल गया था। लेकिन उस साल, नवरात्रि में तीन दिन दुर्गापूजा मनायी जायें, ऐसा विचार हृदय के मन में उठा। रामकृष्णजी से अनुमति मिली और वह हर्षोल्लास के साथ काम में जुट गया। इस पूजन के लिए देवीमाता की मूर्ति कैसी हों, उसे कौन बनायेगा यहाँ से लेकर बाकी सारे तफ़सील रामकृष्णजी ने ही निश्‍चित किये थे और उसके अनुसार ही सबकुछ किया जा रहा था। लेकिन उसी दौरान मथुरबाबू के घर में भी दुर्गापूजा हुआ करती थी और रामकृष्णजी वहाँ पर सम्मिलित होनेवाले होने के कारण हृदय ज़रासा मायूस हो गया। लेकिन रामकृष्णजी ने उसे समझाकर आश्‍वस्त किया कि ‘मैं तुम्हारे घर की दुर्गापूजा में भी सम्मिलित होऊँगा ही!’

….और अचरज की बात ही घटित हुई – पूजा के तीनों दिन हृदय को पूजन की संरचना के पास खड़े रहे और सारी तैयारियाँ एवं पूजन को प्यार से निहार रहे रामकृष्णजी दिखायी दे रहे थे और वे भी पूरी तरह प्रकाशरूप होनेवाले! लेकिन वे सिर्फ़ उसी को दिखायी दिये थे, अन्य किसी को भी नहीं, यह बात उसने बाद में यह अनुभव लोगों को कथन करते समय स्पष्ट हुई। रामकृष्णजी को जब इसके बारे में पूछा, तब उन्होंने अपनी हमेशा की शैली में – ‘हाँ, मुझे भी उत्सुकता थी, तुम पूजन कैसे करते हो यह देखने की। वहाँ पर तुमने पूजन शुरू किया और यहाँ मैं अनजाने में ही एकदम भावावस्था में चला गया और मुझे ऐसा लगा कि कोई तो मुझे एक प्रकाशमान् रास्ते पर से तुम्हारे पूजास्थान पर ले जा रहा है’ ऐसा उसे जवाब दिया था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णलेकिन उसी दौर में एक बार भावावस्था में रहते रामकृष्णजी ने हृदय से कहा कि ‘तुम तीन साल तक ही यह दुर्गापूजा कर सकोगे’ और वैसा ही घटित हुआ….तीन साल हृदय के हाथों यह दुर्गापूजा हुई; लेकिन चौथे साल वह जब ज़िद पकड़कर पूजा की तैयारियाँ करने लगा, तब शुरू से लेकर ही उसमें इतने अड़ंगे आ गये कि आख़िरकार उसे अपना विचार रद करना पड़ा।

उसी दौरान रामकृष्णजी के, हाल ही में शादी हुए एक भतीजे (रामकुमार के बेटे) अक्षय की दुखदायी मृत्यु हो गया। शुरू शुरू में केवल मामुली बुखार होने के कारण, डॉक्टरों ने उसे सादी हमेशा की दवाइयाँ लिखकर दी थीं। लेकिन ‘यह टायफॉईड है और अक्षय उसमें से बाहर निकलनेवाला नहीं है’ ऐसा रामकृष्णजी ने हृदय को बताया। उसपर – ‘आप कितनी क्रूरता से भविष्य बता रहे हो’ ऐसे उद्गार हृदय द्वारा कहे जाने पर; ‘मैं मेरे मन का कुछ नहीं कहता, मैं जो कहता हूँ, वह मुझसे कहलवाया जाता है; और क्या मुझे शौक है अक्षय की मृत्यु देखने का?’ ऐसा उन्होंने हृदय को सुनाया था। हृदय ने अक्षय को बचाने के लिए चरमसीमा के प्रयास किये। एक से बढ़कर एक नामचीन डॉक्टरों को बुलाया। लेकिन अक्षय नहीं बच सका। मग़र रामकृष्णजी ने, अक्षय की अंतिम घड़ी जब समीप आयी, तब उससे रामनाम का उच्चारण करवाया था। अक्षय ने तीन बार रामनाम का उच्चारण किया और इस दुनिया से विदा ली।

कुल मिलाकर अक्षय पूरे घर का ही लाड़ला था और रामकृष्णजी ने तो बचपन से ही उसे अपनी गोद में बिठाया था। इस कारण घरवालों को उसके जाने का स्वाभाविक रूप से अत्यधिक दुख हुआ था।

लेकिन रामकृष्णजी भौतिक पाशों में से कभी के मुक्त हो चुके होने के कारण, अक्षय उनका लाड़ला भतीजा होने के बावजूद भी, उस समय उन्हें कुछ ख़ास दुख नहीं हुआ। उल्टा, जिस तरह कोई तलवार अपनी म्यान से बाहर निकाली जाती है, उसी तरह अक्षय के प्राण उसके देह में से निकल गये – अगली यात्रा के लिए, यही विचार उनके दिल में आया था।

लेकिन उसकी मृत्यु के कुछ दिन बाद अचानक रामकृष्णजी को अक्षय की याद सताने लगी और उन्हें तीव्र दुख होने लगा। ‘यह क्या हो रहा है। क्या मैं ङ्गिर से भौतिक बातों में उलझ रहा हूँ’ इस ख़याल से वे बेचैन हुए थे। लेकिन इसका उत्तर उन्हें जल्द ही मिला – ‘देवीमाता शायद इसके द्वारा मुझे यह सीख दे रही है कि भौतिक पाशों में न उलझना इसका मतलब यह नहीं है कि भावनाहीन हों। बल्कि सभी प्रकार के भावभावनाओं का अनुभव करना, लेकिन उनमें न उलझना यही वास्तविक रूप में करना चाहिए। दूसरी बात, भौतिक बातों में उलझ गये आम लोगों को अपनी निकटतम किसी व्यक्ति के गुज़र जाने से कितना दुख होता होगा, इसका मुझे थोड़ाबहुत अँदाज़ा हों इसीलिए शायद माता ने यह दुख की भावना मुझमें निर्माण की होगी’ ऐसा उन्होंने हृदय को बताया।

रामकृष्णजी को हुए इस दुख को वे धीरे धीरे भूलें इस हेतु से मथुरबाबू, उन्हें अपनी सारी ज़मीनदारी दिखाने के बहाने अपने गाँव ले गये। हृदय भी साथ में था। कुछ हफ़्तें मथुरबाबू के गाँव में निवास करके ये लोग पुनः दक्षिणेश्‍वर लौट आये।

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