परमहंस- ३८

कालीमाता के दर्शन प्राप्त होने के बाद ‘रघुबीर’ श्रीराम के दर्शन पाने की इच्छा रामकृष्णजी पर हावी हो गयी थी और श्रीराम को प्राप्त करने का राजमार्ग यानी हनुमानजी का अनुकरण, यह ज्ञात होने के कारण रामकृष्णजी आर्ततापूर्वक, स्वयं में अधिक से अधिक ‘हनुमान-भाव’ आयें इसलिए जानतोड़ प्रयास कर रहे थे।

राणी राशमणि और मथुरबाबू हालाँकि यह सब कौतुक के साथ देख रहे थे, मग़र फिर भी उन्हें रामकृष्णजी की बिगड़ती सेहत की बड़ी चिन्ता खाये जा रही थी। कम से कम कुछ समय तक तो रामकृष्णजी को इस कठोर दिनचर्या में से बाहर निकालना चाहिए, ऐसा वे दोनों सोच रहे थे। लेकिन सीधी तरह कहकर वे हरगिज़ मानेंगे नहीं, यह बात वे दोनों भी जानते थे।

….इसलिए उन्होंने अपने हिसाब से एक तरक़ीब सोची!

कालीमाता के दर्शनवहीं आसपास की, बुरे चालचलनवाली के तौर पर पहचानी जानेवालीं दो महिलाओं को उन्होंने रामकृष्णजी के पास भेजा। हालाँकि ऐसा करने के पीछे, ‘रामकृष्णजी का मन थोड़ी देर ही सही, लेकिन विचलित हो उठे और वे इस दिनचर्या में से बाहर आयें’ यह उनका उद्देश्य था; लेकिन उसीके साथ, रामकृष्णजी इसमें किस तरह से पेश आते हैं, यह देखने की उत्सुकता भी उसमें थी।

लेकिन हुआ कुछ विपरित ही! उन महिलाओं को अपने कमरे में प्रवेश करते देखा, उसी पल से रामकृष्णजी ने कमरे के एक कोने में बैठकर, आँखें कसकर बन्द करलीं और कालीमाता का अखंडित रूप में जाप शुरू किया। किसी अलग ही सोच से आयीं उन दोनों की उम्मीदें पूरी तरह टूट चुकी थीं। ‘अब तक हमने बड़ो-बड़ों को अपनी ऊँगली पर नचाया है’ यह अहंकार चकनाचूर हो गया था। इतना ही नहीं, बल्कि ऐसे पवित्र इन्सान को अपने वश में करने की कोशिश की, इस कारण उनका मन उन्हें कोस रहा था और थोड़ी ही देर में शर्म से पानी पानी होकर वे वहाँ से निकल पड़ीं।

ऐसा ही अनुभव मथुरबाबू को, वे जब एक बार रामकृष्णजी को ऐसी ही कई महिलाओं के बीच अकेला छोड़ आये थे, तब भी हुआ। वहाँ पर भी ऐसे ही घटित हुआ….उन महिलाओं को ही ‘माताऽ….माताऽ’ बुलाकर रामकृष्णजी उनके चरण छू रहे थे और ऐसे पवित्र इन्सान को अपने चंगुल में फॅंसाने की कोशिश की, इस बात से लज्जित होकर वे महिलाएँ उनसे क्षमायाचना कर रही थीं।

थोड़ी ही देर में रामकृष्णजी को वहाँ से वापस ले जाने आये मथुरबाबू यह नज़ारा देखकर हैरान भी हुए थे और लज्जित भी! ‘मेरी क्या औकात कि ऐसे इन्सान की परीक्षा ले लूँ’ यह विचार लगातार उनके मन को खाये जा रहा था।

लेकिन रामकृष्णजी में कुछ भी फर्क़ नहीं पड़ा था। उनकी दिनचर्या वैसी की वैसी ही शुरू थी। उनकी हनुमान-भाव-साधना फलित होने का प्रमाण उन्होंने एक दिन पाया।

उस घटना का निम्नलिखित आशय का वर्णन स्वयं रामकृष्णजी ने ही आगे चलकर एक बार अपने शिष्यों से बात करते हुए किया था –

‘एक दिन मैं हररोज़ की तरह दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर के पास की उस निर्जन जगह में – पंचवटी में साधना करने गया था। लेकिन चूँकि साधना अभी तक शुरू नहीं की थी, मैं पूरी तरह अपने होश में था। उसी समय मुझे सामने से एक दिव्य प्रकाश-आकार मेरी ओर आते हुए दिखायी दिया। धीरे धीरे उस प्रकाश में से एक स्त्री दिखायी देने लगी। वह स्त्री मुझे करुणार्द्र दृष्टि से देखते हुए मेरी ओर आ रही थी। उस दिव्य स्त्री के शरीर से तेज प्रसारित हो रहा था। मैं टकटकी लगाकर उसे देख रहा था और सोच रहा था कि कौन हो सकती है यह? उतने में कहीं से चीत्कार करते हुए एक बंदर आया और उस स्त्री के पास जाकर उसके चरणों में बैठ गया। तब जाकर मेरे दिमाग में झट से यह विचार आया कि शायद यह सीतामैय्या होगी! जिस पल मेरे मन में यह विचार आया, उस पल मैं खुशी से पागल होकर ‘माताऽ….माताऽ’ कहते हुए इसके चरणों में गिरने ही वाला था कि तभी उस स्त्री ने स्मितहास्य किया और उस प्रकाशाकार ने मुझमें ही प्रवेश किया और मैं भावनातिरेक से मूर्च्छित होकर गिर गया! बिना कोई भी साधना किये, केवल खुलीं आँखों से मुझे हुआ यह पहला ही दर्शन था!’

इस प्रकार रामकृष्णजी का ‘हनुमान-भाव’ फलित हो गया था….हनुमानजी की प्रिय माता सीतामैय्या के उन्हें दर्शन हुए थे!

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