परमहंस-२६

राधाकृष्णमंदिर की टूटी हुई कृष्ण की मूर्ति का पैर ख़ूबी से जोड़ने की घटना के बाद तो गदाधर राणी राशमणि और मथुरबाबू आँखों का तारा ही बन चुका था और उसके साथ अधिक संपर्क बढ़ाकर, उसे धीरे धीरे संभाषण में खींचते हुए, अधिक से अधिक आध्यात्मिक मामलों में उससे मशवरा पूछा जाने लगा था।

रामकुमार भी अब उम्र के हिसाब से थक रहा होने के कारण, उसने अपने कामों में से जो काम करने के लिए गदाधर को ऐतराज़ नहीं होगा ऐसे अधिक से अधिक काम गदाधर को ही सौंपना शुरू किया था। मंदिरसंकुल में तो, गदाधर – प्रमुख पुजारी का छोटा भाई होने के कारण, ‘छोटे भट्टाचार्यजी’ के नाम से ही बुलाया जाने लगा था।

आध्यात्मिकदक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर से सटकर रहनेवाला गंगानदी का घाट यह गदाधर के लिए विशेष आत्मीयता का और विश्राम का स्थान था। पवित्र गंगानदी की सन्निधता में गदाधर को वास्तविक विश्राम मिलता था। गंगानदी की पवित्रता के प्रति उसके मन में रहनेवाला दृढ़विश्‍वास कई बार उसके बयानों से ज़ाहिर होता था – ‘गंगाजल यह परब्रह्म जितना ही पवित्र है। कोई नास्तिक भी यदि इस अतिपावन गंगानदी के परिसर में रहने लगा, तो कुछ ही दिनों में वह आस्तिक हो जायेगा। गंगानदी पर से बहनेवालीं हवाओं के कारण उड़नेवाले गंगाजल के तुषार भी जहाँ कहाँ गिरेंगे, उस प्रांत को पावन करेंगे और उस प्रदेश के निवासियों का आध्यात्मिक स्तर, बिना किसी विशेष प्रयासों से ऊँचाई तक पहुँचा हुआ होगा।’

आगे चलकर भी – वह ‘गदाधर’ से ‘रामकृष्ण’ हो जाने के बाद – अपने शिष्यों में से कोई उसे यदि भौतिक बातों में उलझा हुआ दिखायी देता, तो वह उसे थोडा गंगाजल प्राशन करने के लिए कहता। इसी कारण – शुरू शुरू में जब उसने कोलकाता आने के बाद, पहले से मन में रहनेवाली कुछ दृढ़ धारणाओं के कारण दक्षिणेश्‍वर मंदिर में प्रसाद खाने से इन्कार कर दिया था, तब रामकुमार ने उसे धान्य वगैरा गंगाजल में धोकर खाने के लिए कहने के बाद, उसके मन के सारे कुतर्क, एक भी आशंका उपस्थित हुए बिना ही खत्म हुए थे। क्योंकि गंगाजल की पवित्रता के बारे में और गंगाजल की पतितपावनता के बारे में उसके मन में अंशमात्र भी सन्देह नहीं था और इसी कारण उसे गंगानदी की सन्निधता में सुकून मिलता था।

राधाकृष्णमंदिर की इस घटना के बाद, गदाधर को अब मंदिरसंकुल का पवित्र वातावरण भी गंगाघाट जितना ही भाने लगा था। बड़े भाई रामकुमार रख रहा उसका ममताभरा खयाल, राशमणि तथा मथुरबाबू का उसके प्रति रहनेवाला आदरयुक्त दृष्टिकोण, अतिपवित्र गंगानदी के प्रति उसके मन में रहनेवाला परमभक्तिभाव और ख़ासकर, मंदिर में ‘वह’ कालीमाता ‘प्रत्यक्ष प्रतिष्ठित’ होने की धारणा, इनके कारण अब गदाधर का अधिक से अधिक समय कालीमाता मंदिर में व्यतीत होने लगा था। शायद उसे मंदिर के कार्य में सम्मिलित कराने की ‘घड़ी’ नज़दीक आ रही थी!

कालीमाता को हर दिन सजाने की उसकी कालावधि भी दिनबदिन बढ़ने लगी थी। कई बार सजाते समय माता के मुख की ओर देखते हुए उसकी टकटकी लगती थी। फिर बीच में ही टकटकी से जागकर अगला काम शुरू….फिर वापस बीच में ही टकटकी….ऐसी भावव्याकुल अवस्था में ही माता को सजाने का उसका काम शुरू रहता था।
माता का दैनंदिन साजशृंगार पूरा होने के बाद वह तल्लीन होकर अपनी सुरिली आवाज़ में भजन गाता था। उन भजनों का भाव उसके चेहरे पर प्रतिष्ठित होता था और कई बार गाते समय उसकी आँखों से झरझर आँसू भी बहते थे। गदाधर के इन भजनों के शुरू रहते, श्रद्धाहीन दुराचारियों का सर्वनाश करने के लिए सिद्ध खड़ी, माता काली के चेहरे पर के खलमर्दन के उग्र भाव भी थोड़े से सौम्य, प्रसन्न हुए हैं, ऐसा आभास उपस्थितों को होने की कथा बतायी जाती है।

उसकी आवाज़ इतनी मीठी थी और इतनी व्याकुलतापूर्वक वह ये भजन गाता था कि सुननेवाले मंत्रमुग्ध होकर रह जाते थे।

लेकिन ये भजन सुननेवालों का मन शांत करनेवाले गदाधर का मन अब आक्रोश करने लगा था। उसे अब एक अलग ही आस लगी थी….

….‘वह’ यदि यहीं पर है, तो ‘वह’ मुझे दिखायी क्यों नहीं देती?

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