परमहंस-१२९

पानिहाटी से आये हुए अब एक महीना बीत चुका था, लेकिन रामकृष्णजी के गले की बीमारी कम होने का नाम ही नहीं ले रही ती; उलटी दिनबदिन उनकी परेशानी बढ़ती ही चली जा रही थी। अब तो उन्हें खाना निगलने में भी दिक्कत होने लगी।

उनपर ईलाज करनेवाले डॉक्टरों ने – ‘क्लर्जीमन्स सोअर थ्रोट’ ऐसा इसी बीमारी का निदान किया। जिन लोगों को बोलने का काम अधिक करना पड़ता है, जैसे कि धर्मोपदेशक, व्याख्याता आदि, उनमें यह गले की बीमारी होने की संभावना अधिक होती है।

एक बार डॉक्टरों को निदान हो जाने के बाद दवाइयाँ और परहेज़ आदि बातें निश्‍चित की गयीं। समय पर दवाइयाँ लेना, बाक़ी परहेज़ सँभालना ये बातें रामकृष्णजी ईमानदारी से करते थे। सिर्फ ‘उन’ दो परहेज़ों का पालन करना उनसे नहीं हो पाया – एक बात, ‘भावसमाधि में न जाना’; और दूसरी बात यानी ‘कम बोलना’। क्योंकि इन दो बातों पर मानो रामकृष्णजी का कुछ नियंत्रणही नहीं था।

ख़ासकर पहली बात पर तो था ही नहीं, क्योंकि वह प्रयासपूर्वक नहीं, बल्कि सहजता से, अपने आप ही घटित होनेवाली बात थी। और आम लोगों को भक्ति में मार्गदर्शन करना, उन्हें भक्तिमार्ग की ओर मोड़ना यही उनका जीवनकार्य होने के कारण, उसे न करना, यह प्रयास करके भी उनके लिए संभव नहीं था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णगृहस्थी में उलझे हुए, सांसारिक समस्याओं के कारण बेहाल हुए लोग जब केवल उन समस्याओं से बाहर निकलने के लिए उनके पास आते थे, तब उन्हें बुरा लगता था; ग़ुस्सा भी आता था कि क्यों ऐसा दुर्लभ नरदेह ये लोग केवल इस संसार में उलझकर बरबाद कर रहे हैं। कई बार वे अपना ग़ुस्सा देवीमाता के पास व्यक्त भी करते थे – ‘क्यों ये इस तरह के लोग तुम मेरे पास भेजती हो, जिन्हें अपनी सांसारिक समस्याओं से परे कुछ भी दिखता नहीं है? ये ऐसे लोग यानी दूध में उसके पाँच गुना पानी मिलाने जैसे हैं। ऐसा दूध उबालने के लिए रखकर उसमें का पानी पूरी तरह निकाल देने के लिए (अर्थात् इन सारी सांसारिक समस्याओं से उनका ध्यान हटाकर उन्हें भक्तिमार्ग पर ले आने के लिए) मुझे उनमें कितने बड़े पैमाने पर और कितने अधिक समय तक आग जलानी पड़ती है! दरअसल यह मेरी ताकत के बाहर का काम है और उसी कारण मेरा स्वास्थ्य बिगड़ गया है। (स्वयं की ओर ऊँगलिनिर्देश कर) यह देह यानी अब दिनरात पीटने के कारण फटा हुआ ढोलक बन चुका है, जो अब कितने समय तक बजते रहनेवाला है! इसलिए या तो यह काम तुम ही करो या फिर मेरे पास ऐसे ही लोग भेजो, जो हालाँकि गृहस्थी में हैं, मग़र फिर भी केवल थोड़ी सी बात करने पर उनके मन पर जमी सांसारिक आसक्ति की राख बाजू में हटकर भक्ति की ज्योत प्रज्वलित हो सकें।’

लेकिन जब ऐसे सामान्यजीव खुद होकर रामकृष्णजी के पास आध्यात्मिक मार्गदर्शन हेतु आते थे, तब उन्हें बेहद आनन्द होता था और फिर ऐसे जीवों को वे अपने स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए भर-भरकर मार्गदर्शन करते थे। ऐसे लोगों की मनोभूमिका को तत्काल जानकर वे उसके अनुसार अपनी मार्गदर्शन की पद्धति में फ़र्क़ करते थे। फिर कभी किसीको उनके मार्गदर्शन में बतायी गयी एकाद कथा प्रेरित करती; वहीं, किसीको उनके द्वारा, भावसमाधि में होते हुए किया गया एक स्पर्श। रामकृष्णजी द्वारा की गयी ऐसी एक ही बात फिर उस मनुष्य की मनोभूमिका में आमूलाग्र बदलावी लाती थी और वह मनुष्य फिर भक्तिमार्ग पर आकर तेज़ी से प्रगति करने लगता था।

लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी गत दो वर्षों में तेज़ी से बढ़ने लगी थी। ज़ाहिर है, ‘बोलना’ यह भी उनके द्वारा टाली जा सकनेवाली बात नहीं थी।

लेकिन यह पीड़ा अब धीरे धीरे बहुत ही बढ़ने लगी थी। लेकिन यह पीड़ी अब क्या रूप धारण करनेवाली है, यह जल्द ही स्पष्ट हुआ। वह हुआ यूँ – उसी दौरान रामकृष्णजी की एक स्त्री-भक्त ने उनके कुछ क़रिबी शिष्यों को भोजन के लिए अपने घर आने का आमंत्रण दिया। वह जानती थी कि उन दिनों रामकृष्णजी की तबियत उतनी अच्छी नहीं है इसलिए वे शायद आ न सकेंगे; फिर भी उसने – ‘चन्द कुछ मिनटों के लिए भी आ सकेंगे, तो चलेगा, लेकिन मेरे घर में आपके चरण पड़े तो मुझे खुशी होगी’ ऐसा अलग से निमंत्रण लेकर एक मनुष्य को उनके पास भेजा।

इस भक्त-स्त्री के घर भोज चल ही रहा था कि तभी वह मनुष्य उलटे पाँव सन्देसा लेकर आया कि ‘रामकृष्णजी के गले से रक्तस्राव शुरू हुआ होने के कारण वे नहीं आ सकेंगे।’

वहाँ माहौल एकदम गंभीर हो गया और रामकृष्णजी के शिष्यों को अब उनकी चिन्ता ने घेर लिया।

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