परमहंस-१२७

पानिहाटी का ‘गौरांग चैतन्य महाप्रभु’ उत्सव यह रामकृष्णजी और उनके शिष्यों के लिए आनंदपर्व ही था। रामकृष्णजी को वहाँ के भक्तिसत्संग में गाते-नाचते एकदम भान खोकर भावसमाधि में जाते हुए देखना, यह उपस्थितों के लिए पर्व ही होता था। अतः हर साल उस उत्सव की सभी लोग बेसब्री से प्रतीक्षा करते थे।

लेकिन इस साल, गत दो महीनों से रामकृष्णजी को गले की बीमारी सता रही होने के कारण, डॉक्टरों ने ‘दीर्घसंभाषण’ और ‘भावसमाधिअवस्था में जाना’ ये दो बातें उनके लिए वर्ज्य कही थीं। लेकिन रामकृष्णजी ने तो, ‘मैं वहाँ जाऊँगा ही’ ऐसा निर्णय घोषित किया था। इस कारण, अब कैसे होगा, यह चिन्ता उनके शिष्यगणों को सताये जा रही थी।

नियत दिन पर अपने पच्चीस-तीन शिष्यगणों को लेकर रामकृष्णजी पानिहाटी जाने निकले। प्रवास गंगानदी में से तीन छोटी नौकांओं द्वारा होनेवाला था।

दुपहर को ये सारीं नौकाएँ पानिहाटी पहुँच गयीं। गंगातट पर ही बसे इस गाँव के राधाकृष्णमंदिर के आसपास पहले से ही वैष्णवभक्तों के कई मेले इकट्ठा हुए थे और अपने अपने समूहों में भजन-कीर्तन कर नाच रहे थे। यह नज़ारा देखकर अन्यथा आनंदित होनेवाले रामकृष्णजी के शिष्यों के दिल उस साल काँप रहे थे। वे अनजाने ही रामकृष्णजी के चारों ओर मानवशृंखला बनाकर उन्हें बीचोंबीच रखने की हरसंभव कोशीश कर रहे थे; ताकि वे कहीं किसी गानेवाले मेले में धुसकर गाना-नाचना न शुरू कर दें।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णलेकिन यह सावधानता बहुत समय तक सफल नहीं हुई। रामकृष्णजी वहाँ आये हैं, यह ख़बर कानोंकान फैल गयी और वे वहाँ इकट्ठा हुए सभी भक्तसमूह रामकृष्णजी की दिशा में आगे बढ़ने लगे। बड़ी मुश्किल से रामकृष्णजी और उनके शिष्य आगे आगे सरकते हुए, उस समय इस उत्सव की व्यवस्था देख रहे ‘मणि सेन’ इस गाँव के ज़मीनदार के घर पहुँचे। ‘सुबह जल्दी निकलकर जल्दी ही पानिहाटी पहुँचेंगे; ताकि एक-दो घण्टें वहाँ बीताने के बाद दुपहर तक वापसी का प्रवास शुरू कर सकते हैं’ यह रामकृष्णजी द्वारा बतायी गयी प्रस्तावित समयसारिणी टूटकर गिर पड़ने के ही आसार दिखायी दे रहे थे। ये लोग हर साल जहाँ जाते थे, ऐसे दो ही स्थल पानिहाटी में थे – एक यानी मणिबाबू के घर के नज़दीक होनेवाला राधाकृष्णजी का मंदिर, जो इस समूचे उत्सव का केंद्रबिंदु था; और दूसरा यानी लगभग एक मील की दूरी पर होनेवाली, ‘राघवपंडित’ नामक एक और निष्ठावान गौरांगशिष्य की समाधि। लेकिन ये इतने नज़दीक होनेवाले स्थलों की भी शाम तक भेंट होगी या नहीं, यह आशंका शिष्यों के मन में रामकृष्णजी के लिए इकट्ठा हुई भीड़ को देखकर जाग रही थी।

मणिबाबू ने रामकृष्णजी और अन्य लोगों का प्रेमपूर्वक स्वागत किया। ये लोग थोड़ा विश्राम कर राधाकृष्णमंदिर की ओर निकले। वहाँ भी वैष्णवों का एक गुट बड़े ही हर्षोल्लास के साथ भजन-कीर्तन कर नाच रहे थे। लेकिन रामकृष्णजी के शिष्यों ने उनके चारों ओर एक मानवशृंखला तैयार की थी, ताकि रामकृष्णजी उनमें जाकर न नाचें-गायें।

लेकिन रामकृष्णजी कब इन शिष्यों की नज़रों को धोख़ा देकर उस गानेवाले समूह में जाकर खड़े रहे, इसका पता ही नहीं चला। रामकृष्णजी आये हैं, यह देखकर उस समूह के गायक-वादक और भी फुरती से गाने-बजाने लगे। रामकृष्णजी ने भी गाते गाते नाचना शुरू किया। उनके चेहरे पर एक अनोखा तेज फैला था और उनकी निर्व्याज मुस्कान में उपस्थित खोये जा रहे थे। बहुत ही तालबद्ध और लयबद्ध गतिविधि करते हुए उनका वह नाचना, बीच में ही भावसमाधि को प्राप्त होना, यह उपस्थितों की आँखों को तृप्त कर देनेवाली बात थी। लेकिन आज उनके शिष्य इसका संपूर्ण आनंद नहीं ले सक रहे थे। उन्हें उनके गुरु के स्वास्थ्य का अधिक खयाल था। आधे-पौने घण्टे के बाद रामकृष्णजी धीरे धीरे सभान हो गये। उसके बाद ही उन्हें इस समूह से हल्के से अलग कर शिष्यगण राघवपंडित की समाधि के रास्ते पर चल दिये। लेकिन तब तक उत्सव के लिए आये लगभग सभी समूह इस रास्ते पर आकर खड़े हो गये थे। इस कारण इस पूरे रास्ते पर भी विभिन्न वैष्णवसमूहों के साथ वैसा ही वाक़या कई बार घटित हुआ। इसलिए यह महज़ एक मील का फ़ासला तय करने में भी इन लोगों को एक घण्टा लगा।

लेकिन इतनी भीड़ में जैसे भक्त थे, वैसे ही मौज़मजा करने आये तथा चोर लोग भी थे। यहाँ एक जगह रामकृष्णजी के साथ आयीं स्त्री-भक्त रामकृष्णजी के लिए वहाँ का प्रसाद ले आयीं थीं। उसे वे रामकृष्णजी को देने ही वाली थीं कि तभी वहाँ एक वैष्णवसंप्रदाय के वस्त्र परिधान किया हुआ आदमी आया। वह दरअसल लुच्चा था और बड़प्पन जताने के लिए उसने बड़े ही नाटकीय रूप से उस प्रसाद में से एक निवाला उठाकर, वह रामकृष्णजी को खिलाया। उस समय रामकृष्णजी समाधिअवस्था में थे। लेकिन इस मक़्कार इन्सान का स्पर्श हो जाते ही, उनका शरीर इतने ज़ोर से हड़बड़ाया, जैसे मानो बिजली का झटका ही लगा हो; और भावसमाधि भंग होने के बाद उन्होंने ग़ुस्से से उस प्रसाद को मुँह से बाहर निकाला और मुँह धो दिया। उनके ऐसे तेवर देखकर वह आदमी तो भाग ही गया। फिर थोड़ी देर में ज़रा शान्त होकर उन्होंने दूसरे बर्तन में प्रसाद मँगाकर उसे खाया।

ऐसे एक एक वाक़ये अनुभव कर ये लोग दक्षिणेश्‍वर लौटे, तब तक शाम हो चुकी थी।

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