परमहंस-१०४

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

एक बार रामकृष्णजी दोपहर के खाने के बाद, दक्षिणेश्‍वरस्थित अपने कमरे में इकट्ठा हुए भक्तगणों से बातें कर रहे थे। विषय था – ‘ईश्‍वरप्राप्ति’। उनसे मिलने विभिन्न स्तरों में से और पार्श्‍वभूमियों में से लोग चले आते थे। उस दिन बंगाल के सुविख्यात ‘बौल’ इस आध्यात्मिक लोकसंगीत के कुछ गायक-वादक उनसे मिलने शिवपुर से आये थे।

इस ‘बौल’ लोकसंगीत में ईश्‍वर को प्रेमपूर्वक गुहार लगानेवाले, ईश्‍वर के प्रति विरह की भावना व्यक्त करनेवाले कई गीत हैं और ‘बौल’ गायक वे गीत बहुत ही उत्कट प्रेम से गाते थे। उनकी सराहना कर रामकृष्णजी ने ‘ईश्‍वर की प्राप्ति के लिए उनसे प्रेम करना’ यही सर्वोत्तम मार्ग है, यह प्रतिपादन किया।

इस समय रामकृष्णजी ने हमेशा की तरह ही निम्न आशय का सुंदर विवेचन किया –

‘एक बार देवर्षि नारद की भक्ति से प्रभु श्रीराम उनपर प्रसन्न हुए और उन्होंने कुछ वरदान माँगने के लिए नारद से कहा। नारद ने – ‘केवल तुम्हारे चरणों के प्रति शुद्ध प्रेम दो’ यह वरदान माँगा और आगे ऐसी भी प्रार्थना की कि ‘सारी दुनिया को भ्रमित करनेवाली तुम्हारी माया का मुझ पर यत्किंचित भी परिणाम होने मत देना।’ यह वरदान सुनकर प्रसन्न हुए प्रभु श्रीराम ने नारद से कुछ और माँगने के लिए कहा; लेकिन ‘मुझे तुम्हारे चरणों के शुद्ध प्रेम के अलावा और कुछ नहीं चाहिए’ इसी वरदान को नारद ने दृढ़तापूर्वक दोहराया।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णयहाँ हमें पता चलता है कि ईश्‍वरप्राप्ति के लिए, उनके प्रति होनेवाला प्रेम ही प्रमुख साधन है; और भक्तिसूत्र जिन्होंने लिखे उन देवर्षि नारद से लेकर सर्वसाधारण श्रद्धावान तक सभी के लिए यह ‘ईश्‍वर के प्रति होनेवाला प्रेम’ समान रूप में ज़रूरी है। लेकिन यह प्रेम कोई अपने आप विकसित नहीं होता। मनुष्य की भक्ति जब कई पड़ावों से गुज़रती हुई धीरे धीरे एक विशिष्ट लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने लगती है, तभी प्रेम उत्पन्न होता है। शुरू शुरू में मनुष्य भय के कारण – कहीं ईश्‍वरी कोप तो नहीं होगा, इस डर के मारे भक्ति करने लगता है। बाद में रुके हुए कामों को, अपनी इच्छाओं को पूरा करने के उद्देश्य से काम्यभक्ति करता है। इस प्रवास के दौरान ही धीरे धीरे काम्यभक्ति कम होती जाती है और उसका स्थान निरपेक्ष भक्ति लेने लगती है। फिर निरन्तर अनुसंधान के कारण ऐसी भक्ति परिपक्व हो जाने के बाद, ईश्‍वर के अनंतत्व का, सर्वव्यापित्व का एहसास होकर धीरे धीरे भाव विकसित होने लगता है। मनुष्य अंतर्मुख होता जाता है, ईश्‍वर के बारे में ही सोचने लगता है। जब ऐसा भाव अत्युच्च पड़ाव पर पहुँचता है, तब – ‘मैं ईश्‍वर से क्या खाक प्रेम करता हूँ! ईश्‍वर ही मुझसे कितना प्रेम करते हैं! मैं ईश्‍वर की सेवा नहीं कर रहा, बल्कि ईश्‍वर ही मेरी सेवा कर रहे हैं और उसके लिए कितने कष्ट वे उठाते हैं’ ऐसा एहसास जागने लगता है। ईश्‍वर पर इन्सान जैसा प्रेम करना आरंभ होता है। निरन्तर अनुसंधान के कारण जब यह अनन्यप्रेम बढ़ता जाता है, तब भक्त सर्वोच्च समाधि अवस्था तक पहुँचा पाता है।

योगमार्ग में भी इस ‘समाधि’ अवस्था का महत्त्व बताया गया है ही; लेकिन योगमार्ग यह आम गृहस्थाश्रमी मनुष्यों के लिए नहीं है। आम इन्सान यह प्रायः सांसारिक बातों में उलझा हुआ रहता है और ज़रूरत जितनी ही भक्ति, वह भी काम्यभक्ति करता है; अर्थात् उसकी उपासना मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर इन पहले तीन चक्रों से आगे नहीं जाती। जब उसे सुयोग्य गुरु से उचित मार्गदर्शन मिलता है, तभी उसकी उपासना आकार धारण करने लगती है – मणिपुरचक्र से ऊपर जाने लगती है। मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा ऐसे चक्रों को लाँघकर यह उपासना जब सहस्रार में पहुँचती है, तब मनुष्य समाधिअवस्था को प्राप्त होता है।

इस समाधि अवस्था तक पहुँचने के बाद भक्त मोक्ष को प्राप्त कर सकता है और एक बार मोक्ष मिल जाने के बाद फिर वहाँ से वापस लौट नहीं सकता। लेकिन श्रेष्ठ श्रद्धावान भक्त इस मोक्ष को नकारकर, ईश्‍वर को पूरी तरह जानने के बाद भी, ‘तुम ईश्‍वर मैं भक्त’ यह एहसास क़ायम रखने जितना ही ‘द्वैत’ ईश्‍वर से माँगते हैं। ऐसे ही श्रेष्ठ भक्त, जिन्होंने ‘ईश्‍वर को देखा है और अनुभव किया है’, उनके द्वारा फिर अन्यों को मार्गदर्शन किया जाता है।

यह बात बोलने में आसान लगती है, लेकिन करने में बहुत ही कठिन है। उसके लिए कठोर परिश्रम करने पड़ते हैं, संसार में रहते हुए भी सांसारिक बातों की आसक्ति का त्याग करना पड़ता है। लगातार ईश्‍वर के अनुसंधान में रहना पड़ता है। अन्य भी कई नियमों का पालन करना पड़ता है। साथ ही, यहाँ पर पतनभय है। आम इन्सान के लिए, ईश्‍वर से अर्थात् श्रद्धावान के लिए उन ‘ईश्‍वर का’ ही मानो रूप होनेवाले सद्गुरु से प्रेम करना, यही राजमार्ग है। यहाँ पतनभय नहीं है। केवल – ‘मुझे ईश्‍वर को प्राप्त कर लेना ही है, फिर चाहे उसके लिए मुझे कुछ भी क्यों न करना पड़ें’ इस अंतःप्रेरणा का दबाव निरन्तर रहना चाहिए।

यह ईश्‍वरविषयक प्रेम विकसित होने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अधिक से अधिक समय श्रद्धावानों की ही संगत में रहें। श्रद्धावानों के लगातार गुण-लीला-अनुभव संकीर्तन में से ही श्रद्धा जागृत होती है, मज़बूत होती है। इसी में से फिर धीरे धीरे अनन्यभक्ति आकार धारण करने लगती है। फिर भाव और उसके बाद प्रेम विकसित होता है।’

रामकृष्णजी द्वारा किया गया ईश्‍वरप्राप्तिविषयक इतना सरल-सीधा विवरण उपस्थित लोग मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे, भक्तिरस में नखशिखान्त डूल गये थे।

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