नेताजी-९७

सुभाषबाबू की बीमारी के ज़ोर पकड़ने के बावजूद भी सरकार उनके प्रति अड़ियल रवैया अपनाकर उन्हें रिहा करना नहीं चाहती है, यह देखकर उनकी गिऱफ़्तारी के खिला़फ छिड़ चुका जन-आन्दोलन दिनबदिन उग्र स्वरूप धारण करने लगा। उनकी सेहत को का़फी नाज़ूक हो ही चुकी थी और साथ ही उनका वज़न भी तेज़ी से घट रहा था। आख़िर मजबूरन् सरकार ने सन १९३६ के मई महीने के मध्य में उन्हें दार्जिलिंग स्थित कुर्सियांग के पास के गिड्डापहाड़ रखने का तय किया। लेकिन लोगों को इस बात का पता चलना ख़तरे से खाली नहीं था। इसीलिए सुभाषबाबू को अत्यन्त गोपनीयतापूर्वक हड़पसर, मनमाड़, लखनौ, बनारस, सिलिगुड़ी इस तरह आढ़े-टेढ़े मार्ग से रेल द्वारा वहाँ ले जाया गया। इस मार्ग में स्थित सभी प्रदेशों की सरकारों को ‘हाय अ‍ॅलर्ट’ का सन्देश भेजा गया था और सर्वोच्च गुप्तता का पालन करने का इशारा अँग्रेज़ सरकार की ओर से बार बार दिया जा रहा था। इस जगह सुभाषबाबू को भेजने की वजह यह थी कि वहाँ शरदबाबू का एक बंगला था और पहाड़ी इलाक़ा होने के कारण वहाँ लोगों की आवाजाही भी बहुत ही कम थी। इस बंगले में उन्हें स्थानबद्ध करके रखा गया था। सुबह-शाम बंगले के आसपास के एक मील तक के प्रदेश में टहलने की उन्हें इजाज़त दी गई थी। यानि एक दृष्टि से देखा जाये तो घर और दूसरी दृष्टि से जेल ऐसी हालत थी। लेकिन कम से कम उनकी गॉल ब्लॅडर की सर्जरी के बाद उनके लिए आवश्यक रहनेवाला विश्राम तो उन्हें अब नसीब होनेवाला था, जो उन्हें, उस दौरान कमला नेहरूजी के इलाज के लिए युरोप आये जवाहरलालजी के साथ रहने के कारण नहीं मिल सका था।

सुभाषबाबू

इस तरह कुछ दिन तो ठीक से बीते, लेकिन अब उन्हें गले की बीमारी सताने लगी और लीवर की पीड़ा भी। इसलिए सरकार ने उन्हें १७ दिसम्बर १९३६ को कोलकाता मेडिकल कॉलेज से संलग्न अस्पताल भर्ती कराया। इस दौरान एमिली को गुप्त रूप से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में उनके द्वारा व्हिएन्ना भेजे गये ख़त और एमिली द्वारा उन्हें भेजे गये ख़त, यही उनके दिल को सुकून दिलानेवाली बात थी।

इसी दौरान अप्रैल के लखनौ अधिवेशन के बाद उसी वर्ष दिसम्बर में काँग्रेस का अगला अधिवेशन फैजपूर में आयोजित किया गया था। काँग्रेस में युवाओं की बढ़ रही ताकत पर ग़ौर करते हुए उन्हें क़रिबी प्रतीत होनेवाले नेता का अध्यक्षपद पर रहना ज़रूरी था और सुभाषबाबू की ग़ैरहाजिरी में गाँधीजी के सामने अब एक ही नाम था – जवाहरलालजी का। इसीलिए लखनौ के बाद लगातार दूसरी बार जवाहरलालजी फैज़पूर काँग्रेस के भी अध्यक्ष बने। अपने अध्यक्षीय भाषण में जवाहरलालजी ने सुभाषबाबू की ग़ैरमौजूदगी का ख़ास तौर पर ज़िक्र करते हुए उनके बहुमूल्य मार्गदर्शन से काँग्रेस के वंचित होने की व्यथा ज़ाहिर की और उनका रिहाई के लिए सभी स्तरों पर कोशिशें जारी रखने का आवाहन देशवासियों से किया।

सुभाषबाबू की बीमारी के ज़ोर पकड़ते ही सरकार ने डरकर उनपर लगायी गयीं लगभग सभी पाबन्दियाँ उठायी थीं। कोलकाता मेडिकल कॉलेज संलग्न अस्पताल में लाये जाने के बाद तो उनके क़ठ्ठबी रिश्तेदारों को उनसे मिलने की अनुमति भी दे दी गयी थी। साथ ही, वृद्ध माँ की ख़राब सेहत के चलते वे घर के बाहर निकल नहीं सकती थीं। इसलिए सुभाषबाबू उनसे मिल सकें इस हेतु ह़फ़्ते में दो बार दोपहर उनके एल्गिन रोड़ स्थित घर में उन्हें पुलीस बन्दोबस्त के साथ ले जाया जाता था।

सन १९३७ का मार्च महीना। नये क़ानून के तहत होनेवाले चुनाव हो चुके थे। ये चुनाव लड़ने के काँग्रेस कार्यकारिणी के प्रस्ताव को गाँधीजी ने, अब यह वक़्त की ज़रूरत है यह जानकर मंज़ूरी दे दी थी। उसके अनुसार काँग्रेस ने ये चुनाव लड़े थे। जनमत के इस पहले ही रूझान में काँग्रेस को हैरतंगेज़ क़ामयाबी मिली थी और कई राज्यों में काँग्रेस की सरकारों ने सत्ता की बाग़ड़ोर अपने हाथ में ले ली थी। लेकिन बंगाल में कृषक प्रजा पक्ष के फजलुल हक़ इनकी सरकार अन्य छोटे पक्षों के समर्थन से सत्ता में आयी थी।

इससे पहले एक घटनाक्रम ऐसा घट चुका था कि सुभाषबाबू को जिस १० फरवरी १९३६ के हुक़्मनामे के तहत स्थानबद्ध किया गया था, वही दरअसल तक़नीकी दृष्टि से ग़ैरक़ानूनी था यह बात सरकार के ध्यान में आ चुकी थी। इसलिए बंगाल में फजलुल हक़ इनकी सरकार सत्ता में आने से पहले उस हुक़्मनामे को क़ानूनी रूप देने के लिए सरकार की कोशिशें चल रही थीं। लेकिन इसमें का़फी वक़्त जाया होने के कारण अँग्रेज़ सरकार को क़ामयाबी नहीं मिल सकी और हक़ ने मुख्यमन्त्रीपद की कुर्सी सँभाल ली। अब अँग्रेज़ सरकार तथा गव्हर्नर की मनमानी चलनेवाली नहीं थी।

हक इनके मन्त्रिमण्डल ने सत्ता में आते ही पहला निर्णय किया, वह सुभाषबाबू को गिऱफ़्तारी एवं स्थानबद्धता में से फौरन रिहा करने का। १७ मार्च १९३७ की दोपहर सुभाषबाबू को जब अपनी माँ से मिलने उनके एल्गिन रोड़ स्थित घर ले जाया गया था, तब उन्हें यह आदेश सौंपा गया। पाँच साल के विजनवास के बाद सुभाषबाबू को रिहा किया जा रहा था।

पाँच साल….!

….२ जनवरी १९३२ को मुंबई की काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक की समाप्ति के बाद कोलकाता लौट रहे सुभाषबाबू को अँग्रेज़ सरकार ने कपटपूर्वक कल्याण में एक हुक़्मनामे के ज़रिये गिऱफ़्तार कर लिया था। उसके बाद सरकार की विद्वेषी वृत्ति ने मानवता की सारी हदें पार कर दी थीं। भारत के आम नागरिक के पास रहनेवाले मामूली अधिकार भी उनसे छीन लिये गये थे। देश की जगह-जगह की जेलें, अस्पताल में उन्हें रखकर उनके साथ अपमानास्पद तरी़के से पेश आने के कारण जब उनकी सेहत बहुत ही नाज़ूक हो गयी थी, तब ही जाकर उन्हें ‘यदि आप देश के बाहर जाते हैं, तो ही आपको रिहा कर दिया जायेगा, वरना नहीं’ यह कहकर इलाज के लिए युरोप जाने की इजाज़त सरकार से मिली थी। उसके बाद के तीन साल तक उन्हें अपनी प्रिय मातृभूमि के प्राणान्तिक विरह को सहना पड़ा था। उनके पिताजी जब आख़री साँस ले रहे थे, तब भी उन्हें उनसे मिलने नहीं दिया गया था….

….और अब यह बिनाशर्त रिहाई का आदेश! पाँच साल बाद पहली बार ही वे खुली हवा में बिना पुलीस के पहरे के, आज़ादी की साँस ले सकनेवाले थे। किसीसे भी मिल सकनेवाले थे। कहीं पर भी जा सकते थे। गत सभी बातों को एक ख़राब ख्वाब समझकर उसे पीछे छोड़कर राजकीय पुनरागमन करने के लिए उनकी रग रग में दौड़ रहा लहू बेक़रार था।

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