नेताजी-८६

रशिया में प्रवेश करने की कोशिशें नाक़ाम होने पर सुभाषबाबू ने अब जर्मनी पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। जर्मनीप्रवेश की अनुमति तो उन्हें इंडिया ऑफिस से बाक़ायदा मिल ही चुकी थी। १७ जुलाई १९३३ को सुभाषबाबू ने बर्लिन में कदम रखा। उनके आगमन की ख़बर वहाँ की इंडो-जर्मन सोसायटी को दी गयी थी। प्रथम विश्‍वयुद्ध के समय भारत के क्रान्तिकारियों की सहायता कर चुके कइयों ने वहाँ पर पनाह ली थी। उनमें से कई लोग पहले इंग्लैंड़ में बसे हुए थे और स्वातन्त्र्यवीर सावरकर जी के ‘अभिनव भारत’ इस संगठन की सहायता करते थे। आगे चलकर उनकी गतिविधियों के बारे में भी सरकार को भनक लगने के बाद वे पहले फ्रान्स में और बाद में जर्मनी में बस गये। भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के पीछे की भूमिका का वे प्रसार-प्रचार करते थे। बर्लिन में शिक्षा प्राप्त करने हेतु आनेवाले भारतीय छात्रों की वे मदद करते थे, पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद उन्हें वहीं पर नौकरियाँ दिलवाने में सहायता करते थे। एक प्रभावी गुट के रूप में वे वहाँ पर कार्यरत थे। जर्मन सरकार पर भी उनका अच्छाख़ासा प्रभाव था।

उन्हीं के सुझाव पर जर्मन विदेश मंत्रालय ने सुभाषबाबू के ठहरने का इन्त़जाम शासकीय विश्रामधाम में किया था। लेकिन सुभाषबाबू ने उस ऑफर का स्वीकार नहीं किया और खुद के खर्चे से होटल में रहना पसन्द किया। हालाँकि वे वहाँ पर मदद माँगने गये थे, मग़र फिर भी वे लाचार नहीं थे, बल्कि बराबरी के द़र्जे से सहायता प्राप्त करने गये थे; इसीलिए जर्मनी में सरकारी मेहमान बनकर रहने की अपेक्षा भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहचाना जाना उन्हें अधिक पसन्द होगा, ऐसा उन्होंने स्पष्ट किया।

कुछ ही महीने पूर्व जर्मनी की सत्ता हासिल कर चुका हिटलर उस समय जर्मनी का औद्योगिक पुनर्निर्माण कर और जर्मनी का सैनिक़ी बल बढ़ाकर, प्रथम विश्‍वयुद्ध में टहसनहस हो चुके जर्मनी के आत्मविश्‍वास को जागृत करने के काम में जुट गया था। पहले विश्‍वयुद्ध की हार के प्रतिशोध के रूप में युरोप पर अपनी एकतन्त्र हुकूमत स्थापित करने की महत्त्वाकांक्षा हिटलर पर हावी हो गयी थी और वह उन दिनों जर्मनी में अपना स्थान म़जबूत करने में जुट गया था। मैं युरोप में क्या कर रहा हूँ इसपर इंग्लैंड़ ध्यान न दें और उसके बदले युरोप के बाहर इंग्लैंड़ क्या कर रहा है इसपर मैं ध्यान नहीं दूँगा, ऐसा रवैया हिटलर ने अपनाया था। साथ ही, व्हर्साय समझौते की अपमानजनक शर्तें अभी तक क़ायम थीं। इसीलिए इंग्लैंड़ से पंगा लेकर वह भारत की कितनी सहायता करेगा, इस बारे में सुभाषबाबू आशंकित थे। लेकिन उसका मतपरिवर्तन करने में यदि मैं जरासा भी क़ामयाब होता हूँ, तो भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए उससे कुछ न कुछ मदद जरूर मिलेगी, ऐसा विचार कर उन्होंने उस दिशा में आगे चलने का निश्‍चय किया। दूसरी बात यह थी कि युरोप आने के बाद उन्होंने हिटलर की आत्मकथा – ‘माईनकाम्फ’ पढ़ी थी और उसमें भारत की अप्रतिष्ठा करनेवाला कुछ अंश उन्हें बिल्कुल भी पसन्द नहीं था। उस अंश को अगले संस्करण से निकालने के बारे में भी वे हिटलर का मतपरिवर्तन करना चाहते थे।

शुरुआत के तौर पर उन्होंने सुभाषबाबू ने जब विदेश मन्त्रालय के प्रवक्ता के साथ संपर्क किया, तब सुभाषबाबू को हिटलर की व्यस्तता की जानकारी दी गयी। इसीलिए भले ही जर्मनी भारत के स्वतन्त्रता संग्राम को प्रत्यक्ष रूप से फिलहाल कोई मदद नहीं कर सकता, लेकिन जर्मनी और भारत इनके बीच पुराने सांस्कृतिक सबंध होने के कारण हमें भारतीयो के प्रति हमदर्दी जरूर है। अत एव हम भले ही खुले आम आपकी सहायता नहीं कर सकते, लेकिन मौक़ा पाते ही हम आपकी मदद जरूर करेंगे, ऐसा आश्‍वासन उन्होंने दिया। लेकिन फ्यूरर (हिटलर) फिलहाल काम में बहुत व्यस्त रहने के कारण उनसे मुलाक़ात हो पाना तो नामुमक़िन है, ऐसा उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा।

स्वातन्त्र्यवीर सावरकरइसके बावजूद भी सुभाषबाबू मायूस नहीं हुए। कई बार सरकार अधिकृत रूप से जो नहीं कर सकती, वह पार्टी (पक्ष) के द्वारा करवाया जा सकता है, यह वे जानते थे। इसीलिए एक विलक्षण अन्तःप्रेरणा से उन्होंने अपना रुख़ जर्मन सरकार से नाझी पक्ष की ओर किया और उनके प्रयासों को सङ्गलता मिली। नाझी पक्ष भले ही एक हो, मग़र उसमें भी कई खु़फिया गुट थे। उन्होंने भले ही हिटलर के ध्येय को अपना माना था, मग़र उसकी कार्यपद्धति सभी को पसन्द थी ही ऐसी बात नहीं थी। उनमें से ही एक गुट को भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के प्रति हमदर्दी है और इसीलिए उनसे प्रत्यक्ष मदद हो सकती है, इसका उन्हें अन्दा़जा हुआ। इससे पहले उन्होंने भी ऐसे खु़फिया गुटों की बंगाल में स्थापना की थी और इसीलिए ऐसे गुटों की कार्यप्रणाली से वे भली-भाँति अवगत थे। इसी कारण उन्होंने इस गुट से अपना संपर्क बढ़ाया। उन्होंने सुभाषबाबू को शस्त्रों, गोलाबारुद, खु़फिया सन्देशों का आदानप्रदान करनेवाली यन्त्रणा, आधुनिक तन्त्रज्ञान आदि की आपूर्ति करने का वचन दिया।

हिटलर का दाहिना हाथ माना जानेवाला उसका प्रचारप्रमुख गोबेल्स का भी यही मत था। अग़र जर्मनी द्वारा युरोप में की जा रहीं गतिविधियों की तऱफ ऩजरअन्दा़जी करने के लिए इंग्लैंड़ को मजबूर करना हो, तो उसे अन्यत्र कहीं पर व्यस्त रखना ज़रूरी है और इसके लिए भारत यह एक बेहतरीन विकल्प है, यह गोबेल्स का मत था। उसके नाम को गुप्त रखे जाने की शर्त पर उसने यह मदद करने का वचन दिया। यह मदद जहा़ज के द्वारा भारत तक पहुँच तो गयी, लेकिन सन्देसों के आदानप्रदान में कुछ गड़बड़ी हो जाने के कारण क्रान्तिकारियों को नहीं मिल सकी। इस असफलता से भी सुभाषबाबू ने बहुत कुछ सिखा।

जर्मनी का कार्य आठ-दस दिनों में निपटाकर ऑस्ट्रिया लौटने की सोच रहे सुभाषबाबू को वहाँ पर, उनकी सेहत खराब होने के कारण डेढ़ महीने तक रुकना पड़ा। वहीं पर उन्हें दो दुखद समाचार मिले। पहला था, बंगाल के युनियन लीडर जे. एम. सेनगुप्ता का निधन और दूसरा, विठ्ठलभाई को हार्ट डिसीज बढ़ने के कारण इलाज के लिए व्हिएन्ना से झेकोस्लोव्हाकिया के फ्रान्झेनबाड लाया गया था। सेनगुप्ताजी के निधन की ख़बर सुनकर सुभाषबाबू सुन हो गये। हालाँकि सेनगुप्ता ने सुभाषबाबू का का़फी विरोध किया था और उन्हें विभिन्न पद न मिलें इसके लिए हर संभव कोशीश की थी, मग़र फिर भी उनकी संगठनकुशलता तथा देशभक्ति तो निर्विवाद थी और व्यक्तिगत मान-अपमानों को जरासी भी कीमत न देनेवाले सुभाषबाबू के लिए उतना ही का़फी था। इसीलिए भारत ने एक जाँबा़ज स्वतन्त्रतासेनानी को खो दिया है, यह भावना सुभाषबाबू ने व्यक्त की। इन्हीं सेनगुप्ता के लिए, ऑस्ट्रियास्थित भारतीयों द्वारा आयोजित की गयी शोकसभा में व्हीलचेअर पर बैठकर विठ्ठलभाई गये थे। इन अत्यधिक परिश्रमों के कारण उनका हार्ट डिसीज बढ़ गया और इसीलिए उनके रिश्तेदार उन्हें फ्रान्झेनबाड ले आये।

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