नेताजी-९१

१९३४ का नवम्बर। सुभाषबाबू के ग्रन्थलेखनकार्य ने समय के साथ अब गति पकड़ ली थी। मॅटर में कई बार परिवर्तन कर अन्तिम ड्रा़फ़्ट तैयार किये जाने के बाद ही वह कागज़ पास होकर फाईल किया जाता था। एमिली को बार बार टाईप करना पड़ता था, इसका सुभाषबाबू को दुख तो ज़रूर होता था, लेकिन हमेशा ही अचूकता के साथ पाबन्द रहनेवाले सुभाषबाबू के सामने और कोई चारा ही नहीं था।

लेकिन अब प्रारम्भिक संकोच की भावना का अस्त हो एक तरह की हक़ की भावना का दोनों के मन में उदय हो चुका था। वे हक़ से एमिली पर ग़ुस्सा भी करते थे। उसी हक़ से एमिली भी यदि सुभाषबाबू सिरदर्द से परेशान रहते थे, तब उनका माथा दबाती थीं, उनकी दवाइयाँ लाकर देती थीं। पहले हमेशा ही अस्तव्यस्त रहनेवाला कमरा अब ठीकठाक रहने लगा था। कभी कभी किसी अन्य बात का ग़ुस्सा मामूली वजह से वे एमिली पर उतारते थे और फिर रूठी हुई एमिली को मनाने के लिए उन्हें का़फी मशक्कत करनी पड़ती थी। वहीं, एकाद दिन एमिली के न आनेपर उसकी अनुपस्थिति सुभाषबाबू को बेचैन कर देती थी। हालाँकि उस दिन वे अन्य कामों में व्यस्त रहने की कोशिश तो ज़रूर करते थे, मग़र फिर भी उनका मन उसमें नहीं लगता था।

जैसे जैसे ग्रन्थ का काम आगे बढ़ रहा था, वैसे वैसे हम किसी अनोखे से रेशमी भावबन्धन में बँध रहे हैं, यह एहसास धीरे धीरे दोनों को होने लगा। मग़र सुभाषबाबू अब भी अपने मन के साथ संघर्ष कर रहे थे। हालाँकि अब ‘महिलाएँ मेरी ध्येयप्राप्ति के मार्ग की रूकावटें हैं’ यह सुभाषबाबू की धारणा नहीं रही थी, मग़र तब भी एक अलग़ ही वजह से वे शादी के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। मेरा जीवन तो आग के साथ खेलने जैसा है; भारतमाता को आज़ाद करने के मेरे इस व्रत में संघर्षभरा जीवन और दौड़धूप तो अनिवार्य ही है। अँग्रेज़ सरकार के साथ जूझते हुए मेरा कब क्या होगा, यह अनिश्चित है। तो फिर ऐसे में मेरी वजह से क्यों किसी स्त्री के जीवन को दाँव पे लगाया जाये, यह विचार प्रबल बनने लगा था। वहीं दूसरी ओर उनका मन एमिली की ओर खींचा भी जा रहा था।

सुभाषबाबू

वहाँ एमिली के मन में भी खलबली मची हुई थी। मेरे लिए सुभाषबाबू महज़ उदात्त, गगनस्पर्शी, पूजनीय व्यक्तित्त्व हैं कि वे और भी कुछ मायने रखते हैं, इस बारे में उनके मन में उथलपुथल मची हुई थी; और इस विचारमन्थन ने बढ़ते बढ़ते आख़िर चरमसीमा को छू लिया।

….और एमिली ने फैसला कर लिया।

यदि कोई मेरा जीवनसाथी बनेगा, तो वे सुभाषबाबू ही बनेंगे।

एक दिन दोनों ने अपने मन की बात एक-दूसरे से कह ही दी। सुभाषबाबू के मन में स्थित विवाहविषयक सभी आक्षेपों को एमिली ने नज़ाकत के साथ सुलझा दिया और जीवन में किसी भी अग्निदिव्य का सामना करने के लिए मैं तैयार हूँ, यह कहकर धधकती हुई आग की जीवनसंगिनी बनने का निर्धार दृढ़तापूर्वक उनसे कहा। इससे सुभाषबाबू का बाक़ी का विरोध भी समाप्त हो गया।

विधाता ने अपनी इस सन्तान के जीवन में लाया हुआ यह एक अनोखा, मग़र फिर भी एक बहुत ही मधुर मोड़ था। उनके हमेशा के धधकते अंगारों से भरे और दौड़धूपभरे जीवन में उनके हक़ का विश्रामस्थल प्रदान करने के लिए।

इसी दौरान उनका पेटदर्द भी बीच बीच में बढ़ रहा था। कई बार पेटदर्द इतना होता था कि उसे बर्दाश्त करना नामुमक़िन हो जाता था। मग़र तब भी उन्होंने निर्धारपूर्वक ग्रन्थ के कार्य को आगे बढ़ाया। नवम्बर महीना ख़त्म होने की कगार पर था और उसके साथ साथ उनका ग्रन्थ भी पूरा हो रहा था। चेक किये हुए कागज़ इंग्लैंड़स्थित प्रकाशनसंस्था को भेजे जा रहे थे। उनके द्वारा भेजे गये प्रूफ्स को सुभाषबाबू स्वयं ही चेक करते थे। अब कुछ आख़री प्रूफ्स चेक करना बाक़ी था कि उतने में उनके पेटदर्द ने जोर पकड़ लिया।

वैद्यकीय जाँच में गॉल ब्लॅडर में ख़राबी होने की बात सामने आयी। दवाइयों का असर न होने के कारण ऑपरेशन करने की बात तय हो गयी। मग़र उतने में २६ नवम्बर को यक़ायक एक मुश्किल सामने आन पड़ी। सुभाषबाबू के पिताजी की सेहत का़फी नाज़ुक हो जाने का टेलिग्राम भारत से आया। सुभाषबाबू पर दुख का पहाड़ ही टूट पड़ा। वे का़फी बेचैन हो गये और जल्द से जल्द पिताजी से मिलने की उत्कटता उनके मन में उठ रही थी। मग़र तब भी २८ तारीख़ को रातभर जागकर उन्होंने आख़री प्रूफ्स चेक किये और २९ नवम्बर को हवाई जहाज़ का स़फर शुरू किया। प्रेम का सूर अलापने की शुरुआत में ही सुभाषबाबू का विरह सहना पड़े, इस बात को पचाना एमिली के लिए का़फी मुश्किल था। लेकिन उसने अपने दिल पर पत्थर रखकर उन्हें विदा किया।

उस ज़माने में हवाई जहाज़ रात में स़फर नहीं करते थे। इसलिए सुभाषबाबू का हवाई जहाज़ का स़फर भी ५ दिनों का – कई जगह रुकते हुए आगे बढ़नेवाला था। सुभाषबाबू को बार बार पिताजी की ही याद आ रही थी।

ग़रीब रहने के बावजूद भी अपनी मेहनत से आगे बढ़कर वक़िली में नाम कमानेवाले उनके पिताजी की देशकार्य के लिए ना नहीं थी, दरअसल वे भी देशभक्त ही थे और यथासम्भव देशकार्य में मदद भी करते थे, लेकिन एक आम पिता की तरह ही – सुभाष पहले पढ़ाई पर ध्यान दे और उसके बाद ही देशकार्य की शुरुआत करें यही उनकी प्रारम्भिक राय थी। लेकिन आगे चलकर सुभाष के जुनून को देखने के बाद, एक उदात्त कार्य के लिए मानो किसी धधकते शोले ने ही बेटे के रूप में मेरे घर जन्म लिया है, यह समझते ही देशकार्य के लिए रहनेवाला उनका विरोध ख़त्म हुआ और ‘मुझे तुम जैसे बेटे का बाप होने का फक्र है’ यहाँ तक उनकी भूमिका में परिवर्तन आया था। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने सुभाषबाबू को अपना ‘गुरुबंधू’ ही माना था और देशकार्य में यथासम्भव उनकी मदद भी की थी। लेकिन उसके बाद सुभाषबाबू को उनका सान्निध्य नहीं मिल सका था। पहले तो विभिन्न जगह कारावास और बाद में पिताजी से मिलने तक की अनुमति न देते हुए अँग्रेज़ सरकार द्वारा सीधे सीधे उन्हें युरोप भेजा जाना इस चक्कर में गत कई वर्षों से वे अपने पिताजी को देख तक नहीं सके थे।

बचपन से पिताजी की यादें सुभाषबाबू की आँखों से आंसुओं के रूप में बह रही थी। कब जाकर मैं अपने पिताजी को गले लगाता हूँ, ऐसा उन्हें लग रहा था।

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