नेताजी-७४

गाँधीजी, सुभाषबाबू तथा अन्य नेताओं के जेल में रहने के बावजूद भी, गाँधीजी के सविनय क़ायदाभंग आन्दोलन के कारण सरकार हैरान हो चुकी थी। साराबन्दी, विदेशी माल पर बहिष्कार इनका जुनून भारत भर में फैल रहा था। ग़िऱफ़्तार किये गये सत्याग्रहियों को रखने के लिए जेलें कम पड़ने लगीं। उसीमें गाँधीजी से प्रेरित होकर ‘सरहद गाँधी’ खान अब्दुल गफार खानजी ने वायव्य सरहद प्रान्त में स्थापित किये लाल डगलेवाले (रेड शर्ट) ‘खुदाइ खिदमतगार’ संगठन का इसी दौरान सक्रिय होना भी अँग्रे़जों के लिए सिरदर्द बन गया था।

इसीलिए, काँग्रेस को ऩजरअन्दा़ज कर आयोजित की गयी गोल मे़ज परिषद की व्यर्थता समझने के बाद इंग्लैंड़ के प्रधानमन्त्री मॅक्डोनाल्ड की भारतीय नेताओं को चर्चा में सम्मीलित होने की सूचना, इसे स्वयं सामने से चलकर आया हुआ अवसर मानकर व्हाईसरॉय ने काँग्रेस नेताओं को चर्चा का आमन्त्रण दिया। इस आवाहन के बाद ह़फ़्तेभर में गाँधीजी और अन्य स्थानबद्ध नेताओं को रिहा कर दिया गया। पहली गोल मे़ज परिषद में आमन्त्रित किये गये अन्य पक्षों के नेता भी गाँधीजी व्हाईसरॉय से चर्चा करें, इस उद्देश्य से कोशिशें कर रहे थे। आख़िर गाँधीजी इस बात के लिए रा़जी हो गये। १४ फरवरी १९३१ से गाँधीजी और व्हाईसरॉय आयर्विन के बीच बातचीत का दौर शुरू हो गया।

एक ग़ुलाम देश के प्रतिनिधियों के साथ अँग्रे़ज सरकार इस तरह पहली बार ही चर्चा कर रही थी और इसीलिए सारी दुनिया की ऩजरें उसपर टिकी हुई थीं। विदेशी पत्रकार, फोटोग्राफर्स इनकी भीड़ दिल्ली में लग गयी थी। इंग्लैंड़ के अख़बारों के कई कालम इस बातचीत के ब्योरे से ही भर रहे थे। लेकिन अँग्रे़ज साम्राज्यवादी नेताओं से गाँधीजी के आन्दोलन की इस क़ामयाबी को देखा नहीं गया। उसी में चर्चा के दौरान शाही खाने के समय व्हाईसरॉय के राजमहल की दावत को ठुकराकर गाँधीजी का घर से लाये हुए बक़री के दूध और फलाहार का सेवन करना, इससे भी अँग्रे़ज साम्राज्यवादियों के ग़ुरूर को गहरा झटका लगा था। विन्स्टन चर्चिल जैसे कड़े साम्राज्यवादी अँग्रे़ज नेता को तो यह मुलाक़ात आपत्तिजनक लग रही थी। ‘आधी दुनिया के सम्राट रहनेवाले अँग्रे़ज बादशाह के प्रतिनिधि – व्हाईसरॉय के साथ, उसके सामने कुर्सी पर बैठकर एक सड़कछाप आदमी बराबरी के द़र्जे से चर्चा करे, यह दृश्य ही घिनौना है’ ऐसा जहर चर्चिल ने उगला था।

बातचीत का दौर का़फी दिनों तक चला। ५ मार्च को समझौते पर दस्तख़त किये गये। ‘गांधी-आयर्विन समझौता’ अथवा ‘दिल्ली समझौता’ इस नाम से जाना जानेवाले इस समझौते के तहत ‘गाँधीजी सविनय क़ायदाभंग आन्दोलन के स्थगित कर दें और सविनय क़ायदाभंग में शामिल हुए सभी राजबंदियों को सरकार रिहा करे’ ऐसा तय किया गया था।

इस समझौते के तहत सुभाषबाबू को भी रिहा किया गया। लेकिन इस रिहाई से खुश होने के बजाय इस तरह आन्दोलन को आधा-अधूरा छोड़ने के कारण वे मायूस हो गये थे। सरकार की नाक में दम कर देना चाहिए था, जिससे कि कुछ और बातों को प्राप्त किया जा सकता था, यह उनकी राय थी। मुख्य रूप से, उपनिवेशीय स्वराज्य के सन्दर्भ में भी एक लब़्ज भी समझौते में नहीं था। साथ ही ग़िऱफ़्तार किया गये सशस्त्र क्रान्तिकारियों के सन्दर्भ में समझौते में कोई खुलासा नहीं था। बल्कि भगतसिंग, सुखदेव और राजगुरु इन्हें सरकार फाँसी पर चढ़ाने की तैयारी कर रही है, ऐसी ख़बर फैल गयी थी। बंगाल की जेलों में भी सैंकड़ों की संख्या में सशस्त्र क्रान्तिकारियों को बन्द किया गया था। बातचीत में गाँधीजी को उलझाकर ‘सविनय क़ायदाभंग आन्दोलन के राजबन्दी’ ये शब्द प्रविष्ट करके सरकार ने गाँधीजी की आँखों में धूल झोंकी थी।

अब्दुल गफार खानइसीलिए जेल से रिहा होते ही, इन सब मुद्दों के सन्दर्भ में चर्चा करने के लिए सुभाषबाबू ने मुंबई आकर गाँधीजी से मुलाक़ात की। अब भी व्हाईसरॉय से बातचीत कर आप भगतसिंग आदि को रिहा कर सकते हैं, फिर उसके लिए चाहे समझौता भंग भी क्यों न करना पड़े, ऐसी गु़जारिश भी सुभाषबाबू ने गाँधीजी से की। इसी दौरान, पिछले दिसम्बर में सभी नेता जेल में रहने के कारण आयोजित न किये गये काँग्रेस के अधिवेशन को २९ मार्च से कराची में लेने की बात तय हुई थी। तब ‘मैंने वचन दिया है, इसलिए समझौते को तो भंग नहीं कर सकता हूँ; लेकिन कराची जाते हुए बीच में दिल्ली उतरकर मैं व्हाईसरॉय के साथ भगतसिंग आदि के बारे में बातचीत अवश्य करूँगा’ ऐसा आश्‍वासन गाँधीजी ने सुभाषबाबू को दिया।

गाँधीजी और सुभाषबाबू दोनों भी एक ही गाड़ी से, लेकिन अलग अलग डिब्बों में से कराची जा रहे थे। सुभाषबाबू को बार बार भगतसिंगजी की याद आ रही थी। डेढ़ वर्ष पूर्व कोलकाता अधिवेशन में ‘सम्पूर्ण स्वतन्त्रता के बजाय उपनिवेशीय स्वराज्य का’ प्रस्ताव पारित होने के कारण क्रोधित हुई उनकी मुद्रा सुभाषबाबू की आँखों के सामने आ रही थी। भविष्य किस तरह करवट बदलेगा, इसका अँदाजा लगाना मुश्किल था।

दिल्ली तक के स़फर में सुभाषबाबू कई बार गाँधीजी से चर्चा करने, तो कभी केवल गपशप करने उनके डिब्बे में जाते। उनके साथ स़फर कर रहे लोगों को इस बात से हैरानी हो जाती थी कि गाँधीजी के साथ उनका असल में कैसा रिश्ता है? तब सुभाषबाबू उन्हें समझाते कि भले ही गाँधीजी के कुछ मत और कुछ निर्णय मुझे बिल्कुल पसन्द न हों, लेकिन मूलतः गाँधीजी का व्यक्तित्व मुझे बहुत ही लुभाता है। इसी स़फर के दौरान उन्होंने गाँधीजी के प्रति लोगों के मन में रहनेवाले प्रेम को भी अनुभव किया। गाँधीजी इस गाड़ी से यात्रा कर रहे हैं, यह ख़बर लगने के कारण गाड़ी जैसे ही किसी स्टेशन पर रुकती थी कि ह़जारों की तादाद में गाँधीजी को देखने के लिए, उनका चरणस्पर्श प्राप्त करने के लिए लोग इकट्ठा हो जाते थे।

‘गाँधीबाबा की जय’, ‘गाँधीमहाराज की जय’ इस तरह गाँधीजी की अखण्ड जयकार शुरू रहती थी। गाँधीजी-आयर्विन समझौते की शर्तों से अथवा वह क़ामयाब हुआ या नहीं हुआ, इन बातों के साथ लोगों का कोई लेनादेना नहीं था। उनके लिए तो बस उनके गाँधीबाबा का एक दर्शन ही का़फी था।

सुभाषबाबू कौतुक के साथ वह दृश्य देखते रहते थे। उनके मन में यही विचार दोहराता था कि सचमुच, आज के युग के वास्तविक राजा को देखना हो, तो वह है गाँधीजी ही। भले राजपाट न हो, राजमहल न हो, खादी की धोती-उत्तरीय इतनी ही पोशाक़ हो, मग़र तब भी वे ही राजा हैं – लोगों के मन के राजा!

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