नेताजी-९०

रोम में मिली क़ामयाबी से सन्तुष्ट होकर सुभाषबाबू ने व्हाया मिलान व्हिएन्ना लौटने की बात तय की। लेकिन उसी दौरान जर्मनी के म्युनिक से वहाँ के भारतीय छात्रों द्वारा भेजा गया, वहाँ फौरन आने का टेलिग्राम प्राप्त होने के कारण अपने नियोजित कार्यक्रम में परिवर्तन कर वे म्युनिक के लिए रवाना हुए।
जर्मनी में अध्ययन कर रहे भारतीय छात्र उस समय वंशद्वेष का शिकार हो रहे थे। कई जर्मन अख़बारों तथा नियतकालिकों में से एशियाई, ख़ास कर भारतीयों के सन्दर्भ में अपमानकारक लेख प्रकाशित हो रहे थे।

भारतीयों के साथ विवाहसम्बन्ध न जोड़े जायें, उन्हें किसी भी रेस्टॉरन्ट में प्रवेश न करने दिया जाये, ठहरने के लिए जगह न दी जाये इस तरह का आन्दोलन वहाँ के जर्मन मूलतत्त्ववादियों ने शुरू किया था। वे जहाँ जहाँ जाते, वहाँ उन्हें तुच्छताप्रदर्शक उद्गारों से अपमानित किया जा रहा था। इससे बेचैन हुए वहाँ के छात्रों ने सुभाषबाबू को इस समस्या का समाधान करने के लिए बुलाया था। सुभाषबाबू ने ‘अन्याय का प्रतिकार यदि न किया जाये, तो वह बढ़ते ही रहता है’ इस तत्त्व को उनके मन पर अंकित कर, इस मामले में सारी जानकारी भली-भाँति इकट्ठा करके फिर कड़े शब्दों भरा एक ख़त लिखकर उन्हें दिया और उसका जर्मन भाषा में अनुवाद करवाकर उसे विदेश मन्त्रालय भेजने के लिए कहा; और जर्मनी के जगह जगह के अन्य छात्र संगठनों को भी इसी तरह के ख़तों की बौछार करने के लिए कहा। ‘यदि इस तरह की सांघिकता का प्रदर्शन करोगे, तब ही जाकर तुम्हारी बात कोई सुनेगा’ यह भी दृढ़तापूर्वक कहा। साथ ही, स्वयं भी जर्मन सरकार के प्रमुख नेताओं के साथ बातचीत कर इस मसले को हल करने का आश्‍वासन भी प्राप्त किया।

म्युनिक की कार्यव्यस्तता में से समय निकालकर सुभाषबाबू ने वहाँ के विश्‍वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. कार्ल हौसहोफेर से मुलाक़ात की। भूतपूर्व फौजी रहनेवाले हौसहोफेर के अन्वेषण का विषय ‘आंतर्राष्ट्रीय राजनीति’, विशेषतः जपान और चीन यह था और पहले विश्‍वयुद्ध के बाद जापानी सम्राट के इस विषय के अध्यापक के रूप में भी उन्होंने काम किया था। भारत आ चुके हौसहोफर की भारतीय संस्कृति के प्रति रहनेवाली आस्था सुविदित थी। नाझी पक्ष के ख़ास अन्तर्गत गुट में भी उनकी बात को सम्मान दिया जाता था। इस मुलाक़ात के बाद दोनों का भी एक-दूसरे के बारे में अनुकूल मत हुआ और सुभाषबाबू ने वहाँ के छात्रों को उनकी समस्याओं के लिए हौसहोफर से ही मिलने के लिए कहा।

भारतीय छात्रडॉ. लेस्नी के निमन्त्रण के कारण वे वहाँ से पुनः झेकोस्लोव्हाकिया की राजधानी प्राग गये। उसके बाद पुनः बर्लिन की शॉर्ट व्हिज़िट के बाद १७ अप्रैल १९३४ को वे व्हिएन्ना लौटे। वहाँ लौटते ही मुसोलिनी उनसे मिलना चाहता है, यह सन्देश उन्हें इटालियन फॅसिस्ट पार्टी के द्वारा दिया गया। इसलिए उन्हें पुनः रोम जाना पड़ा। रोम के सप्ताह भर के वास्तव्य में मुसोलिनी ने उनसे लगातार तीन दिन तक विचारविमर्श किया। सुभाषबाबू की समस्याओं का हल निकालने के लिए इटाली उनकी कैसे मदद कर सकता है, इस सन्दर्भ में मुसोलिनी सविस्तार जानकारी प्राप्त करना चाहता था। सुभाषबाबू के लिए पहली बार ही किसी युरोपीय ताकतवर देश का सर्वसत्ताधीश इतना लम्बा समय दे रहा था।

लेकिन भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए उन्हें केवल ताकतवर राष्ट्रों से ही नहीं, बल्कि हर संभवमदद की आवश्यकता थी। इसीलिए रोम से व्हिएन्ना लौटने के बाद कुछ दिन तक विश्राम कर सुभाषबाबू हंगेरी, रुमानिया, बुल्गेरिया तथा युगोस्लाव्हिया इन चार बाल्कन देशों के दौरे पर गये। युगोस्लाव्हिया के एक अख़बार ने उनका इन्टरव्ह्यू भी लिया। लेकिन इंडिया ऑफिस को इस बात की भनक लगते ही उन्होंने अँग्रे़ज सरकार के ज़रिये युगोस्लाव्हिया के सम्राट पर दबाव डाला। युगोस्लाव्हिया का राजा अलेक्झांडर अंग्रेज़ों की चाटुकारिता करनेवाला रहने के कारण वह इन्टरव्ह्यू छप न सका।

इन चार बाल्कन राष्ट्रों का दौरा समाप्त करके व्हिएन्ना लौटने के बाद अब सुभाषबाबू ने अपना सारा समय आधे-अधूरे रह गये ग्रन्थलेखन कार्य के लिए खर्च करने का तया किया। युरोप आकर सवा साल बीतने के बावजूद भी जगह जगह किये गये दौरों के कारण वह काम पीछे रह गया था। दरअसल लंदन स्थित ‘लॉरेन्स अँड व्हिसहार्ट’ इस प्रकाशनसंस्था के साथ उनकी इस सन्दर्भ में बातचीत भी हो चुकी थी। उन्होंने उसे प्रकाशित करने का वचन देकर, सुभाषबाबू को मानदेय अ‍ॅडवान्स के रूप में पचास पौंड़ का चेक भी दिया था। अत एव उसे जल्द से जल्द पूरा करना आवश्यक था। लेकिन उसके लिए शान्ति की ज़रूरत थी।

इसलिए सुभाषबाबू ने लोगों की आवाजाही जहाँ लगी रहती थी, उस ‘हॉटेल द फ्रान्स’ में से तात्कालिक रूप से स्थलान्तरित होकर व्हिएन्ना के ही पीटर जॉर्डन मार्ग पर नियत कालावधि के लिए एक फ्लॅट भाड़े से लिया और वे ग्रन्थ के काम में जुट गये। अपनी टिप्पणियों में से वे उनकी टायपिस्ट एमिली को मॅटर बताते थे और वे उसे टाईपरायटर पर टाईप करती थीं। लेकिन व्हिएन्ना में उन्हें आवश्यक सन्दर्भ हमेशा ही उपलब्ध न होने के कारण उन्हें अपनी टिप्पणियों तथा स्मरणशक्ति पर निर्भर रहना पड़ता था। बीच में ही उन्हें कभी कुछ याद आ जाता था, जिससे कि मॅटर में फेऱफार करना पड़ता था। लेकिन एमिली बिना ऊबे जितनी भी बार मॅटर में बदलाव होता था, उतनी बार बड़े उत्साह के साथ उसे टाईप करती थीं। सुभाषबाबू जब थक जाते थे, तब उन्हें फौरन कॉफी बनाकर देती थीं। उन्हें दवाइयाँ भी लाकर देती थीं। दुनिया की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करने के लिए अख़बार पढ़ना ज़रूरी था, लेकिन महँगे जर्मन अख़बारों का अतिरिक्त खर्च उनकी क्षमता से बाहर था। तब एमिली ने ही उन्हें, खाने के साथसाथ जहाँ अख़बार भी पढ़ने के लिए मिलता है, ऐसे वहाँ के कुछ सस्ते रेस्टॉरन्ट्स के बारे में बताया। वे वहाँ ह़फ़्ते में तीन-चार बार जाने लगे। एक कॉफी को दो में बाँटकर दोनों पीते थे और घण्टेभर में एमिली उन्हें जर्मन अख़बारों में छपीं सुर्ख़ियाँ अनुवादित कर सुनाती थीं।

‘कॉफी ब्रेक’ में, खाने की छुट्टी में अन्य विषयों पर भी बातचीत होती थी। ज़ाहिर है कि मुख्य विषय रहता था – ‘भारतीय स्वतन्त्रता’। इस बातचीत में से जहाल देशभक्त क्रान्तिकारी सुभाषबाबू के मन के कई नर्म पहलू भी उसे महसूस होते थे। सुभाषबाबू के सामने स्थित काम के पहाड़ की विशालता का अँदाज़ा अब उसे आने लगा था। अपनी मातृभूमि को विदेशी चँगूल से मुक्त करने की उनकी तड़प, उनके ज्ञान की गहराई यह सब देखकर उनकी असामान्यता के प्रति एमिली को यक़ीन हो चुका था और वह मानो उनकी भक्त ही बन चुकी थी। वह उनके लिए जो काम कर रही थी, वह उनके कार्यरूपी गोवर्धन को लगायी हुई उसकी लाठी ही थी, यही उसकी भावना बन चुकी थी। दरअसल मूलतः ही भावुक कविमन के सुभाषबाबू उसे जर्मन साहित्य के बारे में, सर्वश्रेष्ठ जर्मन कवि गटे के बारे में पूछते थे। फिर वह खुलकर जर्मन सभ्यता के बारे में उनसे कहती थी। भारतीय और जर्मन सभ्यताओं के बीच के साम्यस्थल वे खोजते रहते थे।

सुभाषबाबू को भी अपने ग्रन्थलेखन के काम के साथ साथ यह ‘बातचीत का पिरियड़’ भी कब भाने लगा, इसका पता ही नहीं चला।

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