नेताजी-७८

सेवनी की नरकप्रद जेल के बाद जबलपूर फौजी अस्पताल, वहाँ से मद्रास जेल, फिर भोवाली क्षयरोग-उपचार केन्द्र, उसके बाद लखनौ का बलरामपूर अस्पताल इस तरह, सेहद ख़राब हो चुके सुभाषबाबू को यहाँ से वहाँ ले जाया जा रहा था। उन्हें भारत का अपना नं. १ का दुश्मन माननेवाली अँग्रे़ज सरकार का उनकी सेहद से कोई लेनादेना नहीं था। किसी भी हालत में उन्हें कोलकाता न लाया जाये, यह प्रण कर सरकार उनके साथ यह अमानुष बर्ताव कर रही थी। यदि वे उपचार के लिए भारत के बाहर जाने के लिए तैयार हैं, तो ही उन्हें रिहा कर दिया जायेगा, ऐसे संकेत सरकार उन्हें पहले से ही दे रही थी। बाद में जब विभाभाभी ने दिल्ली जाकर होम सेक्रेटरी से मुलाक़ात की, तब उन्होंने भी यही शर्त रखी कि यदि वे विदेश जाने के लिए तैयार हैं और वह भी केवल इलाज के लिए, तो ही उन्हें रिहा कर दिया जायेगा, वरना उन्हें जेल में ही रहना पड़ेगा।

इन सब बातों को मद्देऩजर रखते हुए भारत में रहने तक सरकार मुझे रिहा नहीं करेगी, यह यक़ीन सुभाषबाबू को हो चुका था। वे और शरदबाबू बस नाम के राजबन्दी थे। राजबन्दियों को मिलनेवाली एक भी विशेष सहूलियत सरकार उन्हें मुहैया करवानेवाली नहीं थी, यह बात सा़फ थी। उसमें भी, पाँच वर्ष पहले इसी तरह ख़राब सेहद के चलते सरकार ने उनके समक्ष प्रस्तुत किया हुआ, इलाज के लिए विदेश जाने का – उस समय उनके द्वारा ख़ारिज किया गया प्रस्ताव और अब का प्रस्ताव इनके बीच की कालावधि में देश के हालात का़फी बदल चुके थे।

सुभाषबाबूअत एव फिलहाल तो इलाज के लिए विदेश जाना चाहिए और उसके बाद वहाँ से अगले कार्य की शुरुआत करनी चाहिए, ऐसा विचार उनके मन में आने लगा था। लेकिन खर्च की दृष्टि से वह आसान नहीं था। सुभाषबाबू के साथ साथ शरदबाबू को भी जेल हो जाने के कारण घरवालों पर क्या गु़जरती होगी, इसका एहसास सुभाषबाबू को था। सेवनी की जेल में विभाभाभी उन लोगों से जब मिलने आयी थीं, तब सारी हकीक़त का उन्हें पता चल ही चुका था।

अकेली विभाभाभी दृढ़तापूर्वक यहाँ-वहाँ से पैसा जोड़कर, उधार लेकर घर-गृहस्थी सँभाल रही थी। शरदबाबू ने कई ग़रीब होनहार छात्रों को शिष्यवृत्तियाँ प्रदान कर उनकी शिक्षा के खर्च का जिम्मा उठाया था। उनके भोजन की व्यवस्था भी शरदबाबू के घर में ही की गयी थी। साथ ही कई नौकरचाकर भी थे। उनकी तऩख्वाह का भी सवाल था। साथ ही, जानकीबाबू और उनकी पत्नी बूढ़ापे के कारण उन्हीं के घर में रह रहे थे। जानकीबाबू को उष्माघात का एक दौरा भी पड़ चुका था।

लेकिन नौकर खाये हुए नमक के साथ व़फादार थे। उन्होंने विभाभाभी से सा़फ सा़फ कहा कि ‘आज हम जो भी हैं, वह शरदबाबू की बदौलत ही हैं, हमारा जीवन शरदबाबू के चरणों में है। इसीलिए हम आपके यहाँ ही नौकरी करेंगे और रही तऩख्वाह की बात, तो यदि आपको मुमक़िन हो, तो आप दीजिए और यदि न भी देते हैं, तब भी हमें कोई ऐतरा़ज नहीं।’ छात्र भी फीज जितने आवश्यक पैसे ही उनसे लेने लगे। कुछ छात्रों ने तो अर्धकालीन नौकरी कर विभाभाभी का हाथ भी बटाया।

हालाँकि छात्रों तथा नौकरों की समस्या तो थोड़ीबहुत हल हो चुकी थी, लेकिन सुभाषबाबू के इलाज का खर्च तो था ही। साथ ही, शरदबाबू का एक बेटा भी विदेश में पढ़ रहा था। जानकीबाबू इन हालातों से अनभिज्ञ तो नहीं थे। एक दिन यह सब उनकी बर्दाश्त के बाहर हो गया और वे अपना सामान बाँधकर पुनः वक़िली करने के लिए कटक जाने निकले। लेकिन शरदबाबू के ही पथ पर चलनेवाली उनकी धर्मपत्नी विभाभाभी भला अपने पितासमान ससुरजी को कैसे जाने देतीं? उन्होंने ‘सब्र रखिए, पिताजी! अच्छे दिन भी आयेंगे’ इस तरह जानकीबाबू को समझा-बुझाकर उन्हें जाने नहीं दिया।

सुभाषबाबू ने हालाँकि विदेश जाने का तय तो कर लिया था, लेकिन खर्च का क्या? उस समय साधारण तौर पर पंद्रह ह़जार रुपये खर्च का अन्देसा था और इसके लिए उन्हें विभाभाभी से बात करना आवश्यक था। लेकिन सरकार उनसे मिलने नहीं दे रही थी। तब ‘नाक को दबाने पर ही मुँह खुलता है’ यह भली-भाँति जाननेवाले सुभाषबाबू ने – ‘विदेश जाने के खर्च की व्यवस्था करने के लिए तो मेरा मेरी भाभी से बात करना जरूरी है और यदि मुझे किसीसे मिलने ही नहीं दिया जायेगा, तो मैं हरग़िज विदेश नहीं जाऊँगा’ यह आरपार की भाषा करने के कारण आख़िर उन्हें विभाभाभी से मिलने की इजा़जत सरकार ने दे दी।

ख़ैर, वर्तमान हालातों में विभाभाभी से भी उतनी बड़ी रक़म को इकट्ठा करना बहुत ही मुश्किल था। मग़र फिर भी ‘नेव्हर से डाय स्पिरिट’ रहनेवाले सुभाषबाबू ने हार न मानते हुए दोस्तों और  हितैषियों से पूछना शुरू किया और….विदेश जाकर वे अगले कार्य की शुरुआत यह मान लो, उन विधाता की ही इच्छा थी, जिससे कि जादू की छड़ी घूमाने की तरह अल्प अवधि में ही रक़म जमा हुई। सुभाषबाबू के, बोस घराने के हितैषियों की संख्या कुछ कम नहीं थी। ताज्जुब की बात यह थी कि हमेशा सुभाषबाबू के विरोध में रहनेवालों ने भी इस बार सुभाषबाबू की बिगड़ती हालत को देखकर उनकी आर्थिक सहायता की थी। यह सारा इन्त़जाम पूरा हो जाने तक सन १९३३ आ गया। पैसों की व्यवस्था हो जाने के बाद सुभाषबाबू ने सरकार को विदेश जाने के सन्दर्भ में इत्तिला कर दी।

दरअसल उस समय गुप्तचर विभाग ने ‘कमर कसकर’, उनकी राय में सुभाषबाबू को पंद्रह-बीस वर्ष तक की जेल हो सके ऐसे सबूत जुटाकर एक नयी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी। लेकिन सुभाषबाबू को जल्द से जल्द देश से बाहर भेजने के लिए उतावली हुई सरकार ने इस बार उसे ऩजरअन्दाज कर दिया और समय न गँवाते हुए फौरन सुभाषबाबू का पारपत्र तैयार किया। उसमें स्वित्झर्लंड, फ्रान्स, इटली तथा ऑस्ट्रिया इन चार देशों में जाने की अनुमति प्रदान की गयी थी। उन्हें इंग्लैंड़ और जर्मनी के आसपास तक जाने की इजा़जत नहीं थी – इन दो देशों के प्रवेश की अनुमति नकारने की बात पारपत्र में सा़फ सा़फ अलग से निर्दिष्ट की गयी थी। उसके बाद औपचारिक तौर पर पुनः उनकी वैद्यकीय जाँच करके सरकार ने मानभावी रूप में ‘आपकी बिगड़ती हुई सेहत को ध्यान में रखकर इलाज के लिए आपको अपने खर्चे से युरोप जाने की इजा़जत दी जा रही है। लेकिन भारत में रहने तक आपको जेल में ही रहना होगा’ ऐसा ख़त सुभाषबाबू को दिया।

प्रस्थान की तिथि जैसे जैसे क़रीब आने लगी, वैसे वैसे सुभाषबाबू को अपने वयोवृद्ध मातापिता की याद बार बार आने लगी। उन दोनों के लिए तो लखनौ तक का स़फर करना मुमक़िन नहीं था। इसीलिए चन्द कुछ घण्टों के लिए कोलकाता जाकर उनसे मिलकर आने की इजा़जत सरकार के पास उन्होंने माँगी, जिसे सरकार ने ठुकरा दिया और ‘जिस किसे भी मिलना है, उसे लखनौ आकर ही मिलना पड़ेगा’ ऐसा सरकार द्वारा स्पष्ट किया गया।

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