नेताजी- ५७

बिगड़ी हुई तबियत को थोड़ी राहत मिलते ही सुभाषबाबू ने देश की और ख़ासकर बंगाल की परिस्थिति का जाय़जा लेना शुरू किया।

बंगाल में – कोलकाता के मेयर, बंगाल असेंब्ली में काँग्रेस के नेता और बंगाल प्रान्तिक काँग्रेस के अध्यक्ष इस तेहरी जिम्मेदारी को समर्थ रूप से सँभालनेवाले दासबाबू का इसवी १९२५ में देहान्त हो चुका था। बंगाल के सर्वेसर्वा रहनेवाले दासबाबू के निधन के कारण बंगाल काँग्रेस में इस तेहरे अवकाश का निर्माण हुआ था और अब सुभाषबाबू ही केवल एक ऐसे व्यक्ति थे, जो इस अवकाश को भर सकते थे। लेकिन वे तो उस समय मंडाले की जेल में अनिश्चित समय के लिए स़जा काट रहे थे और उनकी तबियत भी उस समय गंभीर रूप से बिगड़ी हुई थी। लेकिन उन पदों को रिक्त तो नहीं रखा जा सकता था। इसलिए दासबाबू के निधन के बाद कोलकाता में बुलायी गयी काँग्रेस कार्यकारिणी की सभा में गाँधीजी ने दासबाबू के एक अन्य सहायक, मजदूर नेता जतींद्रमोहन (जे. एम.) सेनगुप्ता इन्हें इस तेहरी जिम्मेदारी को सौंप दिया। लेकिन बंगाल काँग्रेस के कई सदस्यों को यह बात रास नहीं आयी थी। क्योंकि सेनगुप्ता चाहे कितने भी कर्तृत्ववान क्यों न हों, वे कुछ ज्यादा ही व्यावहारिक और हवा की दिशा में रूख करनेवाले हैं तथा उनका ध्येय आदि बातों से कुछ लेनादेना नहीं रहता, ऐसी उनके बारे में बहुतों की राय थी। उनके इसी अतिव्यावहारिक स्वभाव के कारण, जीवन में अपने ध्येय को सर्वोच्च स्थान देनेवाले सुभाषबाबू की उनके साथ, जब दासबाबू जीवित थे तब भी कुछ ख़ास जमती नहीं थी।

Netaji_Subhas_Chandra_Bose- सुभाषबाबू

साथ ही, जिस ध्येयपूर्ति के लिए उस समय गाँधीजी के विरोध का सामना कर दासबाबू ने असेंब्लीप्रवेश का कदम उठाया, उस – अर्थात् सरकार की अन्याय नीतियों को असेंब्ली में रहते विरोध करके सरकार की नाक में दम करना – इस ध्येय से भी कई निर्वाचित सदस्यों ने मुँह फेर लिया था; और उनकी ऩजर सत्ता की छोटी-मोटी कुर्सियों पर ही जमी हुई थी। एक-दूसरे के खिलाफ साजिशें रचने की वृत्ति हद से ज्यादा बढ़कर, तरक्की करनेवाले के पैर खींचने में ही ये सदस्य मशग़ूल थे। किसी न किसी तरह से, छोटे ही सही, लेकिन सत्तापद को हासिल करने में ही सबकी ताकत खर्च हो रही थी। अपनी ध्येयपूर्ति के लिए बड़ी उम्मीद के साथ दासबाबू ने शून्य में से निर्माण किया हुआ स्वराज्य पक्ष भी अब काँग्रेस में नामधारी बनकर रह गया था।

हवाबदली के लिए शिलाँग गये हुए सुभाषबाबू की तबियत उनके वहाँ के चार महीनों के वास्तव्य में सुधर तो गयी; लेकिन स्वतन्त्रतासंग्राम की यह हालत देखकर उस कट्टर ध्येयवादी मनुष्य के मन पर गहरे ज़ख्म हो रहे थे। स्वतन्त्रतासंग्राम के सैनिक बनना चाहनेवालों को भी अपने ध्येय से मुँह फेरते हुए देखकर उन्हें ऐसा लग रहा था कि मंडाले की जेल में जो यातनाएँ उन्हें झेलनी पड़ी थी, वे इस मानसिक पीड़ा के सामने कुछ भी नहीं। शिलाँग से वासंतीमाँ को लिखे हुए खत में भी उन्होंने इन पीड़ादायी हालातों के बारे में साफ़- साफ़ लिखा था और काँग्रेस की कचहरी में शायद ही कभी ऩजर आनेवालीं, तत्कालीन बंगाल काँग्रेस की ‘सो-कॉल्ड’ बड़ी हस्तियों के ग़ैऱिजम्मेदाराना बर्ताव की ओर भी निर्देश किया था। ‘देशकार्य यह कोई फुरसत में की जानेवाली बात नहीं है, अत एव यदि उसके लिए वक़्त नहीं निकाल सकते, तो मुँह से देशकार्य की रट लगाते ही क्यों हैं ये लोग?’ ऐसा धधकता हुआ सवाल भी उन्होंने किया था। ऐसे दूषित माहौल का मैं एक हिस्सा नहीं बनना चाहता, यह भी उन्होंने उसमें स्पष्ट किया था। इन सब बातों से मेरा मन अब ऊब गया है और मैं अपने ‘अध्यात्म’ इस दूसरे चहीते क्षेत्र में, जो पिछले कुछ वर्षों से राजनीति की दौड़धूप में जरासा उपेक्षित ही रहा है, उसमें साधना करना चाहता हूँ, ऐसी इच्छा उसमें प्रदर्शित की थी।

लेकिन नियती को यह मंज़ूर नहीं था और सुभाषबाबू पर दासबाबू जितना ही बेहद प्यार करनेवाली बंगाली जनता को भी भला यह कैसे रास आता?

चार महीनों के मजबूरन् विश्राम के बाद सुभाषबाबू अक्तूबर १९२७ में शिलाँग से कोलकाता वापस लौटे। तबियत भी अब काफी सुधर चुकी थी। सुभाषबाबू लौट आये हैं, यह बात चारों ओर फैलते ही बंगाल काँग्रेस में पुनः नवचेतना की लहर दौड़ गयी। एक महीने के अन्दर ही बंगाल प्रान्तिक काँग्रेस की बैठक बुलायी गयी और उसमें सेनगुप्ता की ‘तेहरी’ जिम्मेदारीयों में से एक जिम्मेदारीसे उन्हें ‘मुक्त’ किया गया और बंगाल प्रान्तिक काँग्रेस के अध्यक्ष के रूप में जे. एम. सेनगुप्ता की जगह एकमत से सुभाषबाबू का चयन किया गया। हालाँकि सेनगुप्ता तथा उनके समर्थकों को यह बात पसन्द नहीं आयी, मग़र बहुमत के आगे उनकी एक नहीं चली।

राष्ट्रीय स्तर पर भी हालात कुछ निराशाजनक ही थे। गाँधीजी द्वारा, सन १९२२ की चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद तुरन्त ही असहकार आन्दोलन के स्थगित कर देने पर, काँग्रेस के पास उसके बाद के पाँच-छः वर्षों तक कोई भी ठोस कार्यक्रम नहीं था। जिन तीनों ने स्वराज्य पक्ष की स्थापना की और खूनपसीना एक करके उसे आज के मुक़ाम पर पहुँचाया था, उनमें से दासबाबू का निधन हो चुका था। लाला लजपतरायजी ने स्वराज्य पक्ष से मुँह मोड़ लिया था और पंडित मोतीलाल नेहरूजी अपनी बहू की – कमलादेवी की – बीमारी के इलाज के लिए अपने बेटे जवाहरलालजी के साथ युरोप गये हुए थे। खुद गाँधीजी अभी तक निराश मनःस्थिति से बाहर न निकलने के कारण सक्रिय राजनीति से मानो संन्यास ले बैठे थे। ऐसे हालात में काँग्रेस के नेतृत्व का जिम्मा श्रीनिवास अय्यंगारजी पर आ पड़ा और उन्होंने उसे बख़ूबी निभाया। उस पूरे वर्ष में श्रीनिवास अय्यंगारजी ने विभिन्न जातिधर्मों के बीच का मनमुटाव तथा शत्रुत्व नष्ट होकर उनमें भाईचारे तथा मेलमिलाप की भावना वृद्धिंगत हो, इस हेतु राष्ट्रव्यापी दौरों का आयोजन किया। उसीका परिपाक था – नवम्बर में कोलकाता में आयोजित की हुई सर्वधर्मीय ‘युनिटी कॉनफेरेन्स’। इस कॉनफेरेन्स के आयोजित करने के पीछे कई कारण थे।उनमें से मुख्य कारण था, उस वर्ष के अन्त में भारत आनेवाला ‘सायमन कमिशन’।

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