नेताजी-१४२

काबूल स्थित जर्मन राजदूत हॅन्स पिल्गर से मुलाक़ात करके सुभाषबाबू जब जर्मन एम्बसी से बाहर निकले, तब पिल्गर ने सुभाषबाबू को बर्लिन तक ले जाने के लिए, उस समय जर्मनी के मित्रराष्ट्र रहनेवाले रशिया और इटाली से सहायता माँगने की दृष्टि से उन देशों के राजदूतों के साथ सम्पर्क किया। इटालियन राजदूत तो सुभाषबाबू को भली-भाँति जानता था और वह सुभाषबाबू के काबूल तक पहुँचने की बात सुनकर खुश हो गया और इसने इस काम में हर संभव सहायता करने का आश्‍वासन देकर इटली की राजधानी रोम के साथ सम्पर्क स्थापित किया। लेकिन रशियन राजदूत ने, सुभाषबाबू के साथ रास्ते में हुई उस अजीबोंग़रीब मुलाक़ात के बारे में पिल्गर को बताया और उस एकमात्र मुलाक़ात में – ‘सुभाषबाबू को जानबूझकर रिहा करके हमें फ़ॅंसाने के लिए यह ब्रिटीश सीक्रेट एजंटों द्वारा रची गयी कहीं कोई साज़िश तो नहीं है’ यह अपनी राय भी उसने बता दी। मग़र पिल्गर ने उस एकाकी जूँझनेवाले देशभक्त को हर संभव मदद करने की मेरी इच्छा है, यह उसे बताया। और ज़ाहिर है कि रशियन राजदूत की ‘वह’ राय भी बर्लिन तक पहुँचाने में पिल्गर नहीं चूके।

यहाँ पर जर्मन एम्बसी में से सन्तोषपूर्वक सराई वापस लौटे सुभाषबाबू ने भगतराम से मिलते ही जर्मन एम्बसी की अपनी मुलाक़ात का सारा ब्योरा उसे बयान किया और साथ ही मुझे जर्मन कंपनी सिमेन्स के प्रतिनिधि – हेर थॉमस के सम्पर्क में रहने के लिए कहा गया है, यह भी बताया। पिल्गर ने उन्हें तीनचार दिन बाद थॉमस से मिलने के लिए कहा था। इसलिए अब तीन दिनों तक इन्तज़ार करना अनिवार्य था। लेकिन इस प्रतीक्षा में – का़फ़ी लम्बी अन्धेरी सुरंग में से चलने के बाद थके-भागे राही को जिस तरह कहीं दूर जब प्रकाश की एकाद किरण दिखायी देने पर उसका हौसला बढ़ता है, उसी तरह की यह एक सुखद बेसब्री थी। सुभाषबाबू के ये तीन दिन अच्छे से कटे। दरअसल अब काबूल की मटरगश्ती करना आवश्यक तो नहीं था। लेकिन महज़ कमरे में बैठे रहने से भी किसी को शक़ हो सकता था। इसीलिए वे हररोज़ सुबह उठकर शहर की सैर कर आते थे….दूर से ही सिमेन्स की कचहरी देख आते थे!

इस दौरान उनकी भगतराम के साथ का़फ़ी बातचीत होती थी। अपने व्यक्तिगत एवं राजकीय स़फ़र की कई बातें, कई प्रसंग वे निःसंकोच, उसपर अपनी राय को सा़फ़ सा़फ़ कहते हुए उसे सुनाते थे। इस बातचीत में से भी भगतराम के मन में स्थित सुभाषबाबू की मूर्ति अब पहले से कई गुना अधिक विशाल एवं सुस्पष्ट हो रही थी। ये एक मन के सच्चे, ‘भीतर एक और बाहर एक’ इस तरह की वृत्ति न रखनेवाले, ‘सज्जन से दोस्ती, दुर्जन से बैर’ इस तत्त्व का पूरी तरह से निर्वाह करनेवाले, विदेशी मित्रराष्ट्रों की सहायता से भारत में सशस्त्र क्रान्ति करके ज़ुलमी अँग्रेज़ों के त़ख्त को पलट देने के ख्वाब संजोनेवाले और उन ख्वाबों को सच करने के लिए अकेले लड़ने की हिम्मत रखनेवाले, मानो देशभक्ति के साक्षात् हिमालय ही हैं, यह उनकी छबि भगतराम के मन में उभरने लगी थी। ऐसे इन महान देशभक्त के इस साहसी स़ङ्गर में उनका साथ देने का छोटासा ही सही, लेकिन अवसर प्राप्त होने के कारण वह धन्यता महसूस कर रहा था।

२ फ़रवरी को सुभाषबाबू जर्मन एम्बसी हो आये थे और उन्हें ५ फ़रवरी को थॉमस से मिलने जाना था। लेकिन उसके एक दिन पहले – ४ तारीख़ को एक नयी ही पेचींदा समस्या उनके सामने खड़ी हो गयी। उनकी सराई के बाहर दिनरात बैठा रहनेवाला और जो उनपर नज़र रखे हुए रहता है ऐसा शक़ सुभाषबाबू को लगने लगा था, वह स़फ़ेद पोशाक़ पहना हुआ तगड़ा अ़फ़गानी मनुष्य अचानक ही उनके कमरे में दाखिल हो गया। वह अ़फ़गाणी सीआयडी था और वास्तव में ही उनपर नज़र रखे हुए था। दरअसल सुभाषबाबू और भगतराम का नियमित रूप से निरीक्षण करनेवाला किसी भी व्यक्ति को उनपर शक़ हो जाये ऐसा ही उनका दिनक्रम था। इतने दिन तक पहले रशियन एम्बसी की खोज करने के लिए वे दोनों सुबह ही बाहर निकलते थे और काबूल के विभिन्न इलाक़ों में पैदल ही घूमा करते थे। जब रशियन एम्बसी का पता चल गया, तब भी रशियन राजदूत से मिलने के लिए वे हररोज़ सुबह उठकर रशियन एम्बसी के पास जाकर महज़ खड़े रहते थे। कोई भी उन्हें सीक्रेट एजंट या स्मगलर मान सकता था। उनके इस विचित्र दिनक्रम के कारण ही उस सीआयडी को उनके स्मगलर होने का शक़ लगने लगा था। मग़र उसका प्रमुख उद्देश्य उनसे पैसे वसूल करना यही था, इस बात का उन्हें बाद में पता चला।

यक़ायक़ कमरे में आने के बाद उसने ‘कौन हैं आप लोग? कहाँ से आये हैं? क्यों आये हैं?’ इस तरह प्रश्‍नों की बौछार शुरू कर दी। उसके अनपेक्षित आने से शुरुआत में हालाँकि थोड़ाबहुत स्तम्भित हुआ भगतराम अब तक इस तरह की कई ‘पूछताछों का’ सामना कर चुका था और इसलिए उसने समयसूचकता रखते हुए ‘हम लालपुरा के निवासी हैं और मेरे इन मूकबधिर बड़े भाई को इलाज के लिए अस्पताल ले जा रहा हूँ। लेकिन अस्पताल में जगह न होने के कारण यहाँ रहना पड़ रहा है’ यह उसे कहा। लेकिन इससे उसे सन्तोष नहीं हुआ और उसने उन दोनों को पुलीस चौक़ी चलने के लिए कहा। अब भगतराम भी अपने निर्धार पर अटल था। उसने – ‘यदि आप कहते हैं तो मैं चौक़ी आने के लिए तैयार हूँ, लेकिन मेरे बड़े भाई बीमार रहने के कारण वे वहाँ नहीं आयेंगे’ यह अड़िगता से उस खु़फ़िया पुलीस से कहा। साथ ही, सुभाषबाबू ने भी मूकबधिर होने की ‘अ‍ॅक्टिंग’ भली-भाँति की। तब वह जाने तो निकला, लेकिन उसने ‘चायपानी’ की व्यवस्था करने के लिए कहा। उसपर भगतराम ने उसे पाँच रुपये देने के बाद वह वहाँ से ‘ऱफ़ाद़फ़ा’ तो हो गया, लेकिन उसके वापस आने का डर बना रहा।

५ तारीख को सुभाषबाबू भगतराम के साथ सिमेन्स की कचहरी में जाकर हेर थॉमस से मिले। उसने बड़ी खुशी के साथ उनका स्वागत किया और सुभाषबाबू को बर्लिन ले जाने की सारी व्यवस्था की जायेगी, ऐसा बर्लिन से सन्देश आया है, यह उसने कहा। लेकिन यह सब होने में अब भी कम से कम तीन-चार दिन तक इन्तज़ार करना आवश्यक था। ‘तीन-चार दिन बाद मिलिए’ यह सुनते ही सुभाषबाबू की आँखों के सामने उस अ़फ़गाणी सीआयडी का चेहरा आ गया और वे बेचैन हो गये। लेकिन अब इन्तज़ार करने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं था।

सुभाषबाबू की चिन्तित मुद्रा देखकर थॉमस ने कहा – ‘क्या कोई आर्थिक कठिनाई पेश आ रही है? यदि हो, तो मुझे निःसंकोच बताइए, मैं आपकी सहायता करूँगा’। लेकिन फ़िलहाल तो किसी प्रकार की आर्थिक समस्या नहीं है, यह कहकर, ‘आपसे सन्देश लेने के लिए मेरी जगह भगतराम यदि आता है, तो उसमें आपको कोई ऐतराज़ तो नहीं है?’ यह सुभाषबाबू ने उनसे पूछा और थॉमस को उसमें कोई हर्ज़ नहीं था।

इस तरह अपने लक्ष्य की ओर एक कदम आगे बढ़ते हुए, सुभाषबाबू और भगतराम संमिश्र भावना के साथ सराई की ओर निकल पड़े। मग़र अब भी उनके मन में बार बार उस सीआयडी का ही विचार आ रहा था।

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