नेताजी-५५

सुभाषबाबू के चुनाव जीतने की ख़बर मंडाले पहुँचते ही भारतीय कैदियों की ‘वंदे मातरम्’ की गूँज से सारा माहौल भर गया। लेकिन सरकार के सुभाषबाबू के प्रति रहनेवाले कुटिल रवैये के कारण यह जीत सुभाषबाबू को जेल से रिहा कराने में असमर्थ साबित हुई।

Subhas_Bose-  ‘वंदे मातरम्’

इसी दौरान मंडाले की जलवायु के दुष्परिणाम उनके स्वास्थ्य पर साफ़ साफ़ दिखायी दे रहे थे। इसीमें दुर्गापूजा की अनुमति प्राप्त करने के लिए पंद्रह दिन तक किये गये अनशन के कारण सुभाषबाबू की तबियत काफी बिगड़ चुकी थी। वे बदहजमी से परेशान थे। उन्हें साँस लेने में दिक्कत महसूस हो रही थी। कुछ खानेपीने का मन ही नहीं कर रहा था। १९२६ की सर्दियों में वे ब्राँको-न्युमोनिया से पीड़ित हुए। उनका वजन अब ते़जी से घट रहा था। तीन-चार कदम चलने पर भी थकान महसूस होकर उन्हें साँस लेना मुश्किल हो गया था। सीने में कभी बायीं ओर, तो कभी दाहिनी ओर दुखता था।

अब जेलर सुभाषबाबू के स्वास्थ्य के बारे में चिंतित हो गये। उन्होंने सरकार को इस बारे में इत्तला कर दी। सरकार ने उनकी जाँच के लिए भारत से मेडिकल टीम को रवाना कर दिया। उसमें डॉ. केल्सॉल के साथ सुभाषबाबू के बड़े भाई डॉ. सुनीलचंद्र भी थे। जाँच के लिए सुभाषबाबू को रंगून की जेल में लाया गया। सुभाषबाबू की हालत देखकर डॉ. सुनील के पैरोंतले की जमीन ही खिसक गयी। मेडिकल टीम को जाँच के दौरान टीबी की बाधा का सन्देह प्रतीत हुआ और उन्होंने सरकार को इसकी इत्तला कर दी। साथ ही अब सुभाषबाबू की हालत काफी नाज़ूक हो जाने के कारण उन्हें जेल में न रखा जाये और स्वित्झर्लंड जैसी किसी जगह के आरोग्यधाम में हवाबदली के लिए भेजा जाये, यह सिफारिश भी की।

सरकार से जवाब आने तक सुभाषबाबू को रंगून की जेल में ही रहना पड़ा। वहाँ का जेलर बहुत ही बदतमी़ज था और छोटी छोटी बातों को लेकर वह सुभाषबाबू पर गुर्राता था। उसके बाद उन्हें इन्सेन जेल ले जाया गया। वहाँ पर तसल्ली देनेवाली बात यह थी कि कैदियों के प्रति हमदर्दी रखनेवाले मंडाले के जेलर फिंडले का वहाँ पर तबादला हुआ था। सुभाषबाबू की उस नाज़ूक हालत को देखकर फिंडले हक्काबक्का हो गये। उनकी देखरेख में वैद्यकीय इलाज शुरू हो गया। दो-तीन ह़फ़्ते बीतने पर भी स्वास्थ्य में किसी भी प्रकार का सुधार ऩजर नहीं आ रहा था, बल्कि उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही जा रहा था; तब उन्होंने उस सन्दर्भ में सरकार को तीखे शब्दों में लिखा हुआ ख़त भेजकर कहा कि सुभाषबाबू की हालत अब इतनी नाज़ूक हो गयी है कि उन्हें कुछ भी हो सकता है और यदि उन्हें कुछ हो गया, तो उसके लिए सरकार ही जिम्मेदार होगी।

अब जल्द से जल्द कुछ न कुछ फैसला करना सरकार के लिए जरूरी हो गया। साथ ही बंगाल असेंब्ली में भी इस मुद्दे को स्वराज्य पक्ष के लोगों ने गरमाया था। इतना होने के बावजूद भी सरकार अब भी उनको रिहा करने के बजाय उन्हें किस जेल में भेजा जा सकता है, इसपर विचार कर रही थी। लेकिन अब असेंब्ली में इस मुद्दे को अहमियत मिलने के कारण सुभाषबाबू की नाज़ूक हालत के बारे में सभी को पता चल गया था। अत एव भारत की कोई भी जेल इस जोखीम को उठाने के लिए तैयार नहीं थी। कराची से लेकर सभी जेलों से सरकार को नकारात्मक जवाब भेजा गया। अब सरकार मुश्किल में पड़ गयी। सुभाषबाबू उनकी इस स्थिति में भी सरकार को ‘डेंजरस’ प्रतीत होने के कारण उन्हें रिहा करने में सरकार टालमटोल कर रही थी। लेकिन यदि उन्हें जेल में ही कुछ हो जाये, तो उससे निर्माण होनेवाले जनक्षोभ का भी सरकार को एहसास था। आख़िर सरकार ने, सुभाषबाबू को यदि रिहा करना ही पड़े, तो भारत में रहने के बजाय उन्हें विदेश भेजना ही अच्छा है, यह सोचकर उन्हें सशर्त रिहा करने का तय किया और वैसा प्रस्ताव असेंब्ली में प्रस्तुत किया कि यदि सुभाषबाबू रंगून से ठेंठ स्वित्झर्लंड जाने के लिए तैयार हैं, तो हमें उनकी रिहाई पर कोई ऐतरा़ज नहीं है। वैसे भी, सुभाषबाबू के स्वास्थ्य को मद्देऩजर रखते हुए उनकी जाँच करनेवाली मेडिकल टीम ने ‘उन्हें फ़ौरन स्वित्झर्लंड के किसी आरोग्यधाम में भेजा जाना चाहिए’ ऐसी सिफारिश भी की थी। इसीलिए सरकार ने अपने फायदे की दृष्टि से यह चाल चली थी। सरकार का अँदा़जा था कि सुभाषबाबू इस प्रस्ताव को ठुकरायेंगे, जिससे कि हमें यह होहल्ला मचाना आसान हो जायेगा कि हम तो उन्हें रिहा करने के लिए तैयार थे, लेकिन उनकी ही वैसी इच्छा नहीं है।

सरकार का अँदा़जा सच साबित हुआ और सुभाषबाबू ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ‘इस वक़्त इस प्रस्ताव का स्वीकार कर जेल के बाहर निकलना ही मुनासिब होगा। आगे की बात आगे देखी जायेगी’ ऐसी सलाह उन्हें सभी ने दी थी। लेकिन सरकार की नस नस से वाकिब रहनेवाले सुभाषबाबू सरकार की इस चाल के पीछे छिपे दाँवपेच को भली-भाँति जानते थे। ऐसी अनिश्चित कालावधि के लिए भारत के बाहर रहना उन्हें मंज़ूर नहीं था। एक तो मेरे स्वित्झर्लंड जाने पर भी गुप्तचरों की मुझपर ऩजर रहेगी ही। अनचाहे व्यक्ति को रशिया का एजंट क़रार देने की उस जमाने की पद्धति थी। अत एव मेरे स्वास्थ्य में सुधार होने के बाद सरकार किसी गुप्तचर के जरिये मुझे रशिया का एजंट क़रार देकर अपना पल्लू झटक देगी और बेमीआद जेल में डाल देगी, यह सुभाषबाबू जानते थे।

इस झमेले में काफी दिन बीत गये। १९२७ का मई महीना आ गया। इसीलिए बर्मा की सरकार ने भारत सरकार को आख़िरी चेतावनी दी कि बारिश के शुरू होने से पहले सुभाषबाबू को यहाँ से स्थलांतरित करें। फिर सरकार ने उन्हें संयुक्त प्रान्त के अल्मोड़ा जेल में स्थलांतरित करने का तय किया और एक दिन भोर के समय उन्हें गुप्ततापूर्वक रंगून से कोलकाता जानेवाली बोट में बिठा दिया गया।

चार दिन बाद बोट हुगली नदी के मुख तक पहुँची। वहाँ पर गव्हर्नर की ख़ास बोट रुकी हुई थी। उसमें सरकारी डॉक्टरों का एक पॅनल सुभाषबाबू की राह देख रहा था – उनके स्वास्थ्य के सन्दर्भ में सत्यासत्यता का निर्णय कर सरकार को अन्तिम रिपोर्ट सौंपने के लिए। उसमें गव्हर्नर के अधिकृत डॉक्टर भी थे। उन्होंने सुभाषबाबू को जाँचकर गव्हर्नर को टेलिग्राम द्वारा अपनी रिपोर्ट भेज दी।

वह दिन सुभाषबाबू को अगली कार्रवाई की प्रतीक्षा में गव्हर्नर की बोट पर ही गु़जारना पड़ा।

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