नेताजी- १४५

सुभाषबाबू को घर में पनाह देनी चाहिए या नहीं, इस मामले में उत्तमचन्द के मन में विचारों का बवण्ड़र उठा हुआ था। उनके दोस्त ने भी उन्हें ‘हम बालबच्चेवालों को इस व्यर्थ झमेले में नहीं पड़ना चाहिए’ यह परामर्श भी दिया था।

इस तरह विचारों के आन्दोलन में चक्कर खाते हुए उत्तमचन्द खाना खाकर फिर अपनी दुकान में गया। उलट-पुलट विचार करते हुए आख़िर उत्तमचन्द का मन एक पल एक मुक़ाम पर आकर स्थिर हो गया।

‘सुभाषबाबू की सहायता करूँगा ही….करनी ही चाहिए! देशसेवा के लिए एक क्षण में आयसीएस की जन्नत को ठुकरानेवाले इस सर्वोच्च देशभक्त के लिए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता?….छी छी छी….लानत है मुझपर! पत्नी, पड़ोसी इन सबसे क्या कहना है, यह बाद में सोचा जायेगा।’

नेताजी सुभाषचंद्र बोस, इतिहास, नेताजी, क्रान्तिकारी, स्वतन्त्रता, भारत, आन्दोलनकहे अनुसार ठीक चार बजे भगतराम साशंकित मुद्रा में आ गया। उत्तमचन्द ने संमतिदर्शक गर्दन हिलायी। और उसके साथ ही राहत की साँस लेकर भगतराम जाकर सुभाषबाबू को साथ ले आया।

रात के खाने में दो मेहमान हमारे साथ होंगे, यह सन्देश घर देने के लिए नौकर से कहकर उत्तमचन्द ने शाम को दुकान कुछ जल्दी ही बन्द कर दी और वे घर की दिशा में चलने लगे। उनसे कुछ ही दूर पीछे से भगतराम और सुभाषबाबू चलने लगे।

उत्तमचन्द का मोहल्ला जैसे ही क़रीब आने लगा, वैसे वैसे उत्तमचन्द की धड़कनें तेज़ हो गयीं। अब पड़ोसी अवश्य टोकेंगे, उन्हें क्या जवाब दिया जाये। लेकिन सुभाषबाबू के इस महान कार्य में उसका भी हिस्सा रहेगा, यह तो मानो ‘प्रभु की इच्छा’ थी, क्योंकि सुभाषबाबू के उत्तमचन्द के घर में दाखिल होने में रहनेवालीं पहली रुक़ावट थी पड़ोसी, मोहल्लेवाले….यह मुसीबत तो प्रभु ने दूर की हुई थी। जाड़ों के कारण मोहल्ले के लोग खिड़कियाँ, दरवाजें बन्द करके अंगीठियाँ जलाकर अपने अपने घरों में सेकते हुए बैठे थे। इसलिए बाहर क्या चल रहा है, इसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। यहाँ तक कि उत्तमचन्द के किरायेदार भी दरवाज़ें, खिड़कियाँ बन्द करके बैठे हुए थे। नेक काम में शामिल होने के निर्धार के साथ हम जब पहला कदम आगे बढ़ाते हैं, तब भगवान भी हमारे लिए ९९ कदम चलकर आते हैं, इसका उत्तमचन्द को अनुभव हो रहा था।

उत्तमचन्द धीरे से उन दोनों को ऊपरि मंज़िल के एक बन्द कमरे में ले गया। गरमागरम चाय लाकर दी।

पेशावर छोड़ने के बाद पहली बार ही सुभाषबाबू घर की गरमागरम चाय का सुख अनुभव कर रहे थे। साथ ही, काबुली पद्धति के परदें, कार्पेट्स आदि चीज़ों से सजाया गया, बाहरी ठण्ड से सुरक्षित रखनेवाला कमरा भी सुखावह प्रतीत हो रहा था। चाय पीने के बाद उन्होंने पेशावर छोड़ने के बाद पहली बार ही चष्मा लगाकर आसपास देखा। अब उन्हें सबकुछ साफ़ साफ़ दिखायी दे रहा था। खाना भी उनके कमरे में ही भेजा गया। लंबे अरसे के बाद इतना स्वादिष्ट घरेलु भोजन सुभाषबाबू को नसीब हो रहा था। इसी बीच उत्तमचन्द ने भगतराम के साथ नौकर को सराई में भेजकर उनका सामान ले आने की व्यवस्था की। सुभाषबाबू के मनोरंजन के लिए रेडिओ पर क्या कोई भारतीय केंद्र ट्युन्ड हो रहा है, यह देखा तो ठीक बंगाली केन्द्र ही लग गया। इतने दिनों बाद बंगाली भाषा का गीत सुनते हुए सुभाषबाबू कहीं खो गये, लेकिन बस पल भर के लिए ही। उन्होंने फ़ौरन केन्द्र बदल दिया। उत्तमचन्द द्वारा सवाली मुद्रा से देखे जाते ही उन्होंने खुलासा किया कि आपके इस मोहल्ले में कोई बंगाली नहीं रहता। इसलिए उत्तमचन्द के घर के रेडिओ में बंगाली धुन क्यों बजी, यह बात चर्चा का कारण बनकर बेवजह ही किसी की संशयात्मा जागृत हो जायेगी, इसकी अपेक्षा इससे दूर रहना ही बेहतर है।

उत्तमचन्द की पत्नी को अब भी इस मामले में कुछ भी बताया नहीं गया था। उसे क्या कहा जाये, इस सोच में डूबे उत्तमचन्द की यह समस्या भी दूसरे दिन सुबह अपने आप ही हल हुई। रात में घर पर मेहमान खाने के लिए आनेवाले हैं, यह उत्तमचन्द का सन्देश लेकर घर आये नौकर ने पहले से ही मिर्चमसाला भरकर भगतराम और उत्तमचन्द की मुलाक़ात का वर्णन करते हुए ‘मेहमान स्थानीय नहीं लगते’ यह अपना ‘ठोस निष्कर्ष’ भी उसे बताया था। अत एव वह पहले से ही काफ़ी बेचैन थी। उसने सुबह तक जैसे तैसे सब्र रखा। सुबह उत्तमचन्द सुभाषबाबू से विदा लेकर, उनके कमरे को ताला लगाकर दुकान जाने के लिए निकले, तब उनकी पत्नी ने उनका रास्ता रोक लिया। मेहमाननवाज़ी करने में उसकी ना नहीं थी, लेकिन जब वह अकेली घर में रहेगी, तब ऐसे अपरिचित लोगों को घर में रखने में उसे यक़ीनन ही ऐतराज़ था। ‘ना जान ना पहचान और मैं तेरा मेहमान’ इस तरह के इन किन दो आगंतुक पठानों को आपने घर में रखा है? आपके जाने के बाद मैं घर में अकेली रहूँगी और ये मर्द औरतों की तरह हमारे घर में रहेंगे। आपको भला यह विसंगत क्यों नहीं लगता? नहीं नहीं, मैं उन्हें यहाँ हमारे घर में नहीं रहने दूँगी’ इस तरह से उसने तोप दाग दी और उसे समझाते समझाते उत्तमचन्द की नाम में दम आ गया। शुरू शुरू में उसने ‘अरी, सुनो तो! वे हमारे लाघमन (उत्तमचन्द के गाँव का नाम) के निवासी हैं’ यह कहकर उसे समझाने की लाख कोशिशें कीं लेकिन उसने उनकी एक नहीं सुनी।

आख़िर निरुपायित हंकर – अब यदि इसे सच नहीं कहा गया, तो वह कोहराम मचा देगी और बेवजह ही यह बात सभी को ज्ञात हो जायेगी; साथ ही मुझे तकलीफ़ हो रही है, यह देखकर सुभाषाबू को यक़ीनन ही बुरा लगेगा; इस विचार के साथ उत्तमचन्द ने उसे रसोईघर में ले जाकर धीरे से ‘वे पठान नहीं, बल्कि सुभाषबाबू हैं’ यह कहा और वह सुनते ही उसके चेहरे का नूर ही बदल गया।

‘हमारे’ सुभाषबाबू? यहाँ हमारे घर में? उसे तो यक़ीन ही नहीं हो रहा था।

उसका एक मन फ़ौरन अतीत में चला गया। सुभाषबाबू के मानो भक्त ही रहनेवाले मेरे पिता किस तरह सुभाषबाबू की किसी सभा से लौटने के बाद ‘सुभाषमय’ हो जाते थे और सुभाषबाबू ने सभा को संबोधित करते हुए क्या कहा, यह घर के सदस्यों को सुनाते थे। बाक़ी के समय में भी ‘सुभाषबाबू’ यही घरकी बातचीत का प्रमुख विषय रहता था। ये सभी बातें उसे याद आने लगीं।

….और उसकी आँखों में आँसू भर आये।

अब उलटा उसने ही अपने पति से निर्धारपूर्वक कहा कि ‘आप इस बात को गुप्त रखने के बारे में घर के मोरचे की चिन्ता मत करना। आप बाहर का मोरचा सँभालिए। सुभाषबाबू यहाँ हैं, इसकी कानोंकान ख़बर तक मैं नहीं लगने दूँगी और उनके खाने-पीने की, चायपानी की सारी व्यवस्था में मैं कोई कसर नहीं छोडूँगी। ईश्वर की कृपा से ही देशसेवा करने का इतना बड़ा अवसर हमें मिला है, इसे हम हाथ से नहीं गँवाएँगे’ यह पति से कहकर उसने उत्तमचन्द के मन में स्थित तनाव को हलका कर दिया।

इस तरह एक के बाद एक करके दिन गुज़रने लगे। हेर थॉमसद्वारा बतायी गयी तारीखों को भगतराम सिमेन्स की कचहरी में हो आता था। मगर अबतक तारीख़ पर तारीख़ पड़ने के कारण हो रहे विलम्ब को देखकर सुभाषबाबू को काफ़ी फ़िक्र महसूस होने लगी।

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