नेताजी-१२०

बंगाल सरकार के पास मेरे बारे में क्या जानकारी दर्ज़ है, इसका पता लगाने के बाद, ख़ास कर उस जानकारी के स्रोतों के बारे में जान जाने के बाद सुभाषबाबू ने अब और भी एहतियात बरतना शुरू किया। रशियन नेताओं के लिए अपने भतीजे अमेयनाथ के हाथों ख़त भेजने के बाद और उनकी चीन दौरे की योजना पर पानी फेर दिया जाने के बाद अब वे जापान की ओर मुड़े। पिछले वर्ष सन १९३९ में एक वरिष्ठ जापानी मन्त्री जब भारत दौरे पर आये थे, तब कई भारतीय नेताओं से मिले थे, जिनमें से एक सुभाषबाबू भी थे। उस ‘सदिच्छा मुलाक़ात’ के बाद भारत स्थित जापानी एम्बसी के एक अधिकारी डॉ. असित मुखर्जी नियमित रूप से सुभाषबाबू के साथ सम्पर्क बनाये हुए थे। उनके ज़रिये जापान की ख़बर सुभाषबाबू को मिल जाती थी। यदि कोई महत्त्वपूर्ण जापानी व्यक्ति भारत आ जाता था, तब वे सुभाषबाबू की उसके साथ मुलाक़ात करा देते। सन १९१२ में तत्कालीन व्हाईसरॉय लॉर्ड हार्डिंग्ज पर हुए बम हमले के बाद भूमिगत हो चुके ज्येष्ठ स्वतन्त्रतासेनानी राशबिहारी बोसजी ने जापान में ही पनाह ली थी और वहाँ अपनी अच्छी-ख़ासी सम्पर्कयन्त्रणा भी उन्होंने बना ली थी। उसके ज़रिये वे जापान में से ही भारतीय क्रान्तिकारियों की सहायता करते थे। उनके साथ सम्पर्क बढ़ाने का सुभाषबाबू ने तय किया।

लेकिन चीनदौरे की योजना चौंपट हो जाने के बाद सरकार उनके जापान दौरे के लिए राज़ी होगी, यह तो सम्भव ही नहीं था। अतः उन्होंने अपने विश्‍वसनीय सहकर्मी लाला शंकरलालजी को जापान भेजने का तय किया। लेकिन लाला शंकरदयाल ये फॉरवर्ड ब्लॉक से सम्बन्धित रहने के कारण उन्हें भी आसानी से इजाज़त मिलनी मुश्किल थी। तब उनका भतीजा द्विजेन्द्रनाथ उनके काम आ गया। उस दौरान सुभाषबाबू के भतीजों में से चार ने स्वयं को अपने ‘रंगाकाकाबाबू’ के कार्य में समर्पित कर दिया था। अपने निजी उद्योगव्यवसायों को सँभालते हुए वे सुभाषबाबू जो भी कहते, उस काम को पूरा कर देते थे। उनमें से अमेयनाथ और अशोकनाथ पश्चिमी देशों में रहनेवाले काम करते थे; वहीं, द्विजेन्द्रनाथ तथा धीरेन्द्रनाथ पूर्वी देशों में रहनेवाले कामों का नियोजन करते थे।

द्विजेन्द्रनाथ ने अपनी सम्पर्कयन्त्रणा का इस्तेमाल कर शंकरलालजी को जापान जाने के लिए जाली पारपत्र बनाकर दे दिया। इससे सरकार शंकरलालजी के जापान प्रस्थान के बारे में जान न सकी। आगे चलकर कई महीनों बाद अपना ‘खुफ़िया’ काम सफलतापूर्वक निबटाकर वे जब भारत लौट आये, तब जाकर कहीं सरकार के गुप्तचर विभाग को उनके जापान दौरे के बारे में पता चल सका। ख़ैर!

उसीके साथ सुभाषबाबू ने रशिया जाने के विकल्पों का अध्ययन करना शुरू कर दिया। तब उनकी आँखों के सामने आया, पंजाब से सटा हुआ पहाड़ी सरहद प्रान्त, जहाँ से रशिया कुछ ख़ास दूर नहीं था। उस समय निरंजनसिंग तालिब ये दिल में देशभक्ति ठसठसकर भरे हुए पंजाबी गृहस्थ कोलकाता से ‘देशदर्पण’ नामक पंजाबी पत्रिका प्रकाशित किया करते थे। सुभाषबाबू उनके साथ परिचित थे। अँग्रेज़ सरकार द्वारा ‘बेक़ायदा’ क़रार की गयी, पंजाब की ‘कीर्ती किसान सभा’ का क़ामकाज भी वे देखते थे। उन्हीं के ज़रिये पंजाब प्रान्त के एक नेता अछरसिंग छीना गुप्त रूप से – वक़ील रहनेवाले शरदबाबू के ‘क्लायंट’ होने का बहाना बनाकर सुभाषबाबू को मिलने आये। तब सुभाषबाबू ने वायव्य सरहद प्रान्त का नक़्शा निकालकर उसपर उनके साथ काफ़ी देर तक चर्चा की। आगे क्या करना है, यह सुभाषबाबू द्वारा बताये जाने पर ‘सरहद्द प्रान्त की तो आप चिन्ता ही छोड़िए, हम उसके चप्पे चप्पे से वाक़िब हैं। वहाँ आपका अगला प्रबन्ध ठीक से किया जायेगा’ यह कहकर वे जैसे आये थे, उसी तरह गुप्त रूप से चले भी गये।

सन १९४० के आरम्भ में ही नई दिल्ली में अखिल भारतीय विद्यार्थी संगठन का अधिवेशन आयोजित किया गया था। उसके अध्यक्ष के रूप में सुभाषबाबू को आमन्त्रित किया था। उस समय अध्यक्षीय भाषण करते हुए सुभाषबाबू ने ‘हिम्मत न हारनेवाले और प्रत्यक्ष रूप से कुछ कर दिखानेवाले ही स्वतन्त्रता के हक़दार हो सकते हैं’ यह प्रतिनिधियों के मन पर अंकित किया। ‘लेकिन यह मार्ग बहुत ही दुस्तर है और मेरे साथ इसपर से चलनेवाले साथियों को देने के लिए मेरे पास भूख, भूखमरी, कष्टप्रद जीवन और मृत्यु इनके सिवाय और कुछ भी नहीं है; इसलिए इसके लिए तैयार रहनेवाले ही मेरे साथ आयें’ ऐसी चेतावनी उन्होंने उपस्थितों को दी।

इसी दौरान मार्च १९४० में रामगढ़ में काँग्रेस अधिवेशन आयोजित किया गया, जिसके अध्यक्ष थे – मौलाना आज़ाद। इस अधिवेशन में, कार्यकारिणी द्वारा निर्धारित रवैये का ही उद्घोष किया जायेगा, यह जाननेवाले सुभाषबाबू ने उस अधिवेशनक्षेत्र से नज़दीक ही ‘समझौताविरोधी परिषद’ का आयोजन किया था। उसमें अध्यक्षीय भाषण करते हुए उन्होंने, केवल एक के बाद एक प्रस्ताव पारित करने का काम करनेवाली काँग्रेस द्वारा अपनाये गये नर्म रवैये की कड़ी आलोचना की। शब्दों के बुलबुलों की अपेक्षा प्रत्यक्ष कृति पर ज़ोर देने के कारण ही रशिया में बोल्शेविक क्रान्ति किस तरह सफल हुई और वहीं, इटली में निदर्शक शब्दों के जाल में फँसने के कारण ही इटली के माथे पर किस तरह तानाशाह मुसोलिनी आकर बैठ गया, इन उदाहरणों द्वारा अपने मुद्दे का समर्थन उन्होंने किया और स्वतन्त्रता अब बिलकुल आख़िरी पड़ाव तक आ चुकी रहने के बावजूद भी यदि हमने इस स्वर्णिम अवसर का लाभ नहीं उठाया, तो उसके जैसा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है, ऐसा उन्होंने कहा। उसी समय उन्होंने ६ अप्रैल से लेकर १३ अप्रैल के दरमियान ‘राष्ट्रीय सप्ताह’ का आयोजन करने की घोषणा की और भारत की मर्ज़ी के खिलाफ़ भारत को अपनी ओर से युद्ध में खींचने पर अंग्रेज़ सरकार के निषेध हेतु सत्याग्रह का भी ऐलान किया।

लेकिन इस सप्ताह से पहले ही एहतियाती तौर पर सरकार ने फॉरवर्ड ब्लॉक के अधिकांश नेताओं को गिऱफ़्तार कर दिया। लेकिन सुभाषबाबू को गिऱफ़्तार करने की रट गव्हर्नर हर्बर्ट द्वारा लगायी जाने पर भी, बंगाल की जनता के सुभाषबाबू कितने प्रिय है यह जानती हुई सरकार ने उन्हें आज़ाद रखा। ‘सुभाषबाबू को गिऱफ़्तार करते ही मेरी सरकार गिर जायेगी’ यह कारण, मन में सुभाषबाबू के प्रति सदिच्छा रखनेवाले मुख्यमन्त्री द्वारा गव्हर्नर को दिया जाने के बाद उन्हें मजबूरन अपना आग्रह छोड़ना पड़ा। लेकिन इससे होम डिपार्टमेंट सुकून से रहनेवाला नहीं था, वह सुभाषबाबू को फँसाने का अन्य कोई अवसर ढूँढने में लग गया।

महायुद्ध अपनी गति से शुरू ही था। १४ जून को हिटलर की फौज़ फ्रान्स की अभेद्य मॅजिनो चहारदीवारी को तोड़कर पॅरिस में दाखिल हो चुकी है, यह ख़बर मिली। जिस वक़्त यह ख़बर आयी, उस वक़्त सुभाषबाबू किसी काम के सिलसिले में कोलकाता के मेयर अब्दुल रेहमान सिद्दिकी के कार्यालय में महानगरपालिका के कुछ नेताओं के साथ बैठे थे। इस खबर को सुनते ही सुभाषबाबू खुशी से झूम उठे और कोलकाता महानगरपालिका के एक नेता इस्पहानीजी का हाथ पकड़कर मानो नाचने ही लग गये और ‘अब इंग्लैंड़ की हार दूर नहीं है’ यह भविष्यवाणी उन्होंने की।

इसी खुशी में सुभाषबाबू १८ तारीख़ को फॉरवर्ड ब्लॉक के दूसरे अधिवेशन में उपस्थित रहने के लिए नागपूर रवाना हुए।

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